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गन्ने की बढ़ती लागत, चीनी मिलों के लिए बन गई आफत

Last Updated- December 09, 2022 | 3:30 PM IST

कुछ राज्यों द्वारा जिस प्रकार नासमझी में गन्ने का मूल्य तय किया गया है, इसे देखते हुए लगता है कि आमतौर पर देश की चीनी मिल अपनी लागत की उगाही करने की स्थिति में भी नहीं होंगे।


स्पष्ट तौर पर उत्तर प्रदेश जैसा राज्य, देश के चीनी उत्पादन में जिसकी हिस्सेदारी लगभग एक-तिहाई है, केंद्र सरकार के सांविधिक न्यूनतम मूल्य से अधिक कीमत पर गन्ना खरीदने का फरमान मिलों को जारी करेगी ताकि उत्पादकों को फायदा हो सके।

लेकिन चीनी उद्योग इस फरमान से खुश नहीं होगा। जब मिल अच्छी कीमतों पर चानी बेचने में सक्षम नहीं होंगे तो उनके पास गन्ने के बिल का भुगतान करने के लिए पैसे नहीं होंगे। सितंबर 2008 में समाप्त हुए सीजन में उत्तर प्रदेश में इसे लेकर बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किया गया।

हालांकि, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि राज्य सरकार के स्वामित्वाली और सहकारी फैक्ट्रियों पर निजी मिलों की तुलना में गन्ने की  बकाया राशि अधिक है।

बजाज हिंदुस्तान, बलरामपुर चीनी और त्रिवेणी जैसे समूह ने साल दर साल गन्ना पेराई क्षमता का विस्तार किया है ताकि बढ़ती अर्थव्यवस्था का लाभ उठाया जा सके।

इसके साथ-साथ इन कंपनियों ने पावर इकाइयों, शीरा आधारित डिस्टिलरियों और एथेनॉल संयंत्रों में भी भारी निवेश किया है। चीनी मिलों की पावर इकाइयां खोई को जला कर बिजली उत्पादन करती हैं।

अन्य व्यवसायों से अर्जित लाभों के कारण ये समूह अन्य कंपनियों की तुलना में गन्ना खाता की देनदारियों का बेहतर खयाल रख पाती हैं।

इसके बावजूद कुछ ऐसे अवसर भी होते हैं जब गन्ने का बकाया भुगतान करने के लिए उनके पास फंड की कमी होती है।निस्संदेह, राज्य सरकार द्वारा गन्ने का राज्य समर्थित मूल्य बढ़ाने से शुरू में गन्ना उत्पादकों में खुशी की लहर का संचार हुआ।

लेकिन गन्ने का राज्य समर्थित मूल्य बढ़ाए जाने के बाद भारतीय चीनी मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष ने कहा कि जब गन्ने का बकाया बढ़ता है, जैसा कि पिछले सीजन के दौरान एक बार देखा गया था, तो सबसे ज्यादा समस्या छोटे किसानों के साथ होती है।

औद्योगिक अधिकारी ओम प्रकाश धानुका कहते हैं कि जब वर्तमान परिस्थितियों में किसानों को अपने भुगतान के लिए अनिश्चित काल तक इंतजार करना होता है तो गन्ने को नकदी फसल कैसे कहा जा सकता है।

वास्तव में, दुखी होकर लगभग सभी राज्यों के पारंपरिक गन्ना किसानों ने अन्य फसलों जैसे मक्का, कपास, गेहूं और चावल की खेती शुरू की दी है।

साल 2005-07 के दौरान गन्ने की खेती रेकॉर्ड 51.51 लाख हेक्टेयर में की गई थी और पैदावार भी सर्वाधिक 3,550 लाख टन की हुई थी। इस सीजन में गन्ने के रकबे में लगभग 30 प्रतिशत की कमी हुई है।

गन्ने के रकबे में कमी, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में देर से कटाई की शुरुआत और चीनी की कीमतों की उगाही में कमी से इस सीजन में चीनी का उत्पादन घट कर 190 लाख टन होने की उम्मीद है जबकि पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि उत्पादन 220 लाख टन तक होगा।

इस सीजन की शुरुआत में चीनी का भंडार 81 लाख टन का था। इसलिए अगर उत्पादन में कमी भी होती है तो 2009-10 की शुरुआत में चीनी की कमी का अनुभव नहीं होगा।

लेकिन, जैसा कि कारोबार की प्रकृति होती है, इस समय कच्चे चीनी के आयात की अनुमति के लिए एक अभियान देखने को मिल रहा है।

इस अभियान में शामिल लोगों को गन्ना उत्पादकों की जरा भी फिक्र नहीं है। पेराई मिल पहले ही प्रति क्विंटल चीनी पर 400 रुपये का नुकसान उठा रहे हैं। आगे  इसका प्रभाव गन्ना बिल के निपटान पर पड़ेगा।

उम्मीद की जाती है कि आयात की अनुमति के बारे में सोचते समय सरकार 5 करोड़ गन्ना उत्पादकों के हितों और उद्योग का ध्यान रखेगी।

भारत विश्व के प्रमुख चीनी उत्पादक देशों में शामिल है। भारतीय चीनी मिल एसोसिएशन के निदेशक एस एल जैन दावा करते हैं कि अन्य उत्पादक देशों की तुलना में भारत सबसे कम लागत में गन्ना से चीनी बनाता है।

उनका कहना है कि भारत की कच्ची चीनी विश्व में सबसे अच्छी साबित हुई है। पिछले साल 50 लाख टन चीनी का निर्यात किया गया।

ऐसा हमेशा संभव है यदि गन्ने की कीमतें उचित तौर पर तय की जाएं। सीजन दर सीजन राज्य सरकार उत्पादकों की भलाई सोचते हुए गन्ने की कीमत तय करती है। चीनी उद्योग के बारे में वे नहीं सोच पाते।

दुख की बात यह है कि ब्याज रहित ऋण उपलब्ध कराने के मामले में राज्य सरकार उद्योग का साथ नहीं देती, वैसे समय में भी नहीं जब गन्ने की बकाया राशि बहुत अधिक हो जाती है।

वास्तव में, संकट की घड़ी में  केंद्र सरकार बफर भंडार बना कर, उत्पाद कर संग्रह के एवज में ऋण अवधि का विस्तार और निर्यात के लिए परिवहन का खर्च उठा कर मदद करती देखी गई है।

First Published - December 29, 2008 | 9:51 PM IST

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