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अथ श्री रैनबैक्सी परिवार कथा…

Last Updated- December 07, 2022 | 5:05 AM IST

‘रैनबैक्सी मेरा चौथा बेटा है।’ यह बात अक्सर रैनबैक्सी के संस्थापक भाई मोहन सिंह अपने दोस्तों से कहा करते थे।


दरअसल, वे इस कंपनी से इस कदर आत्मिक रूप से जुड़े हुए थे कि अपने तीन बेटों की तरह ही इससे प्यार करते थे। ऐसे में यह कहना बड़ा मुश्किल है कि अगर वे जिंदा होते, तो रैनबैक्सी को जापानी कंपनी के हाथों सौंपने के पोते मालविंदर सिंह के फैसले से उन्हें खुशी मिलती या नहीं।

प्रिय पुत्र परविंदर सिंह द्वारा ही कंपनी के सभी अधिकार हथिया लेने से आहत पिता भाई मोहन सिंह की मृत्यु पिछले साल ही हुई है। देश के विभाजन के समय भाई मोहन सिंह रावलपिंडी से दिल्ली आए थे। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पूर्वोत्तर भारत में सड़क निर्माण व्यवसाय में खूब पैसा बनाया था।

बाद में उन्होंने दिल्ली में कारोबार शुरू किया। 1937 में अमृतसर में उनके दो चचेरे भाइयों रणजीत और गुरबख्श सिंह ने रैनबैक्सी नाम से दवा वितरण का काम शुरू किया, जिसे उन्होंने ही धन मुहैया कराया था। कंपनी का नाम दोनों भाइयों के नामों को जोड़कर बनाया गया। हालांकि कंपनी मुनाफा नहीं कमा सकी, जिससे उनके भाई पैसा लौटाने में असफल रहे। इसकी वजह से भाई मोहन सिंह ने कंपनी को अपने कब्जे में ले लिया।

उसके बाद कंपनी के विस्तार में जुट गए। उन्होंने दो बार कंपनी को जबरन अधिग्रहण से बचाया। एक बार तो गुरबख्श सिंह ही इसका अधिग्रहण करने की फिराक में थे, वहीं दूसरी बार इटली की एक कंपनी की नजर रैनबैक्सी पर लग गई थी। 1969 में रैनबैक्सी चर्चा में आई और उसके बाद सफलता के नए आयाम स्थापित करती चली गई। सिंह परिवार में 1980 के दशक से दरार आनी शुरू हुई।

उसके बाद भाई मोहन सिंह ने अपने कारोबार को तीनों बेटों के बीच बांट दिया। परविंदर सिंह के हिस्से में रैनबैक्सी आई। हालांकि कुछ समय बाद पिता-पुत्र में टकराव की स्थिति बन गई और परविंदर ने कंपनी के प्रमुख एक्जिक्यूटिव डी.एस. बरार के साथ मिलकर जहां कंपनी को ऊंचाई पर पहुंचाया, वहीं भाई मोहन सिंह को हाशिए पर ला खड़ा किया।

कुछ समय बाद परविंदर ने पिता को कंपनी से हटाकर बागडोर खुद संभाल ली। परविंदर सिंह के नेतृत्व में कंपनी ने विदेशों में अपना परचम लहराया, लेकिन कैंसर की वजह से साल 2000 में उनकी मृत्यु हो गई। उसके बाद भाई मोहन सिंह परविंदर के पुत्र मालविंर और शिविंदर को रैनबैक्सी के बोर्ड में शामिल कराने में सफल रहे। लेकिन इन दोनों ने स्पष्ट रूप से कहा कि वे अपने पिता की उस इच्छा का पालन करेंगे, जिसमें कहा गया था कि रैनबैक्सी से परिवार के अन्य सदस्यों को बाहर रखा जाए।

मालविंदर तेजी से कंपनी में उच्च पद पर पहुंच गए और दिसंबर 2003 में बरार को हटाकर कंपनी पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया। लेकिन पांच साल बाद ही सिंह परिवार ने रैनबैक्सी को जापानी कंपनी के हाथों बेचने का निर्णय ले लिया।

महाअधिग्रहण
कथा है यह स्वार्थ की, पुरुषार्थ की…

1937  भाई मोहन सिंह से धन लेकर उनके चचेरे भाइयों रणजीत सिंह और गुरुबख्श सिंह ने अपने-अपने नामों को मिलाकर रैनबैक्सी नाम से दवा वितरण का काम शुरू किया।

1952 कंपनी को नुकसान हुआ, जिस कारण दोनों भाई मोहन सिंह को पैसा लौटाने में नाकाम रहे। लिहाजा मोहन सिंह ने कंपनी को अपने कब्जे में ले लिया। इस दौर में उन्होंने कंपनी को दो बार जबरन अधिग्रहण से बचाया।

1973 कंपनी ने बाजार में शेयर जारी किए। इसी साल भाई मोहन सिंह के सबसे बड़े बेटे परविंदर सिंह ने कंपनी में कदम रखा।

1980 भाई मोहन सिंह के परिवार में दरार आनी शुरू हुई। भाई मोहन सिंह ने अपने तीन बेटों में कारोबार को बांट दिया। रैनबैक्सी परविंदर सिंह के हिस्से में आई। मगर कुछ ही समय में पिता-पुत्र के बीच टकराव के हालात बन गए।

1999 फिर परविंदर सिंह ने कंपनी के प्रमुख कार्यकारी डी.एस. बरार के साथ मिलकर कंपनी को नई ऊंचाइयों पर तो पहुंचाया मगर पिता भाई मोहन सिंह को जबरन कंपनी से हटाकर खुद बागडोर संभाल ली।

1999 कैंसर से परविंदर सिंह की मौत, भाई मोहन सिंह ने परविंदर के दोनों बेटों मालविंदर और शिविंदर को कंपनी बोर्ड में शामिल करा दिया।

2003 तरक्की की सीढ़ियां तेजी से चढ़कर मालविंदर कंपनी प्रमुख बन बैठे। बरार को उन्होंने बाहर का रास्ता दिखा दिया।

2006 भाई मोहन सिंह की मौत।


2008 कंपनी को मालविंदर ने जापानी हाथों में सौंप दिया।

First Published - June 13, 2008 | 12:14 AM IST

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