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मुद्रास्फीति की गिरफ्त में फंसे बाजार और अर्थव्यवस्थाएं

Last Updated- December 12, 2022 | 12:27 AM IST

दुनिया के प्रमुख केंद्रीय बैंक की ओर से ब्याज दर में वृद्घि किए जाने और यूएस फेडरल रिजर्व द्वारा बॉन्ड की खरीद कम किए जाने के बाद बाजारों और विश्व अर्थव्यवस्था के लिए मुद्रास्फीति एक नई चिंता के तौर पर उभर कर सामने आ गई है। यूरोप में प्राकृतिक गैस की कीमत में तेज वृद्घि, ब्रिटेन और चीन में बिजली कटौती तथा कच्चे तेल की कीमतों में तेजी आने से उच्च मुद्रास्फीति का भय चरम पर पहुंच गया है।
पिछले महीने में ब्रेंट क्रूड तेल की कीमतें करीब 20 फीसदी चढ़ी हैं और मंगलवार को यह कमोडिटी एक्सचेंजों पर 80 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गई जो कि तीन वर्ष का उच्चतम स्तर है।  इसके कारण भारत द्वारा आयात किए जाने वाले कच्चे तेल की कीमत बढ़ेगी जिससे मजबूर होकर तेल विपणन कंपनियां ईंधन कीमतों में इजाफा करेंगी। इसके बाद खुदरा या उपभोक्ता महंगाई में और अधिक इजाफा होगा। कच्चे तेल की उच्च कीमतों के कारण उपभोक्ता सामान बनाने वाली कंपनियों की लागत में भी इजाफा होगा। विश्लेषकों का कहना है कि तेल कीमतों के प्रभाव से इनपुट कीमत बढऩे पर कॉर्पोरेट मार्जिन में भी गिरावट आएगी।
कोटक इंस्टीट्यूशनल इक्विटीज के विश्लेषकों ने लिखा, ‘वैश्विक ऊर्जा कीमतों में तेज वृद्घि और बढ़ी हुई कीमतों की संभावनाओं से वैश्विक और घरेलू महंगाई पर एक और जोखिम पड़ सकता है। मुद्रास्फीति के अल्पकालिक होने को लेकर बाजार आशावादी रहे हैं। हालांकि, विभिन्न जिंसों में आपूर्ति आधारित मौजूदा व्यवधानों के कारण मुद्रास्फीति उम्मीद से अधिक समय तक रह सकती है।’
ऐतिहासकि तौर पर ब्रेंट क्रूड तेल कीमतों और भारत में समग्र महंगाई के बीच सकारात्मक अंतर्संबंध रहा है। यह भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लिए मूल्य अपस्फीतिकारक द्वारा भी दर्ज किया गया है। जीडीपी कीमत अस्फीतिकारक में थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) आधारित महंगाई और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित महंगाई दोनों को शामिल किया गया है।
बीपी के आंकड़ों के मुताबिक ब्रेंट क्रूड तेल की कीमत 2005 और 2011 के बीच दोगुनी हो गई। इसी दौरान भारत में समग्र महंगाई 2005-06 के 4.6 फीसदी से बढ़कर 2010-11 में करीब 10 फीसदी हो गई। इसी तरह से दुनिया भर में कच्चे तेल की कीमतों में कमी आने पर 2012 के बाद महंगाई में तेज गिरावट दर्ज की गई।      
भारत में मुद्रास्फीति 2019-20 में निचले स्तर पर पहुंचने के बाद एक बार फिर से बढऩे लगी है। 2020-21 में समग्र मुद्रस्फीति वित्त वर्ष 2020 के 3.7 फीसदी के मुकाबले 60 आधार अंक चढ़कर 4.3 फीसदी पर पहुंच गई। अप्रैल से अगस्त, 2021 के दौरान सीपीआई औसतन 5.5 फीसदी रहा जबकि डब्ल्यूपीआई दो अंक में रहा था। आंकड़ों से पता चलता है कि अमेरिका में कीमत वृद्घि अपेक्षाकृत तीव्र रही है। इस साल अप्रैल से अगस्त के दौरान अमेरिका में खुदरा मुद्रास्फीति का औसत 5.1 फीसदी रहा जबकि मार्च 2021 में समाप्त हुए वर्ष के 12 महीनों के दौरान समग्र मुद्रास्फीति का औसत 4.5 फीसदी रहा था। अप्रैल 2019 से मार्च 2020 के बीच की अवधि में मुद्रास्फीति महज 0.6 फीसदी रही थी। विश्लेषक इसकी वजह अमेरिका में दिए गए एक बहुत बड़े राजकोषीय प्रोत्साहन को बताते हैं।
अन्य विश्लेषक इसकी वजह चीन और यूरोप में बिजली लागत में हो रही बढ़ोतरी को बताते हैं। जेएम फाइनैंशियल इंस्टीट्यूशनल सिक्योरिटीज के प्रबंध निदेशक और मुख्य रणनीतिकार धनंजय सिन्हा कहते हैं, ‘यूरोप और चीन में बिजली लागत में तेजी से इजाफा हो रहा है जिससे विनिर्माताओं की परिचालन लागत बढ़ी है। इसके अलावा वैश्विक आपूर्ति शृंखला में मौजूदा कोविड-19 व्यवधान से भी विनिर्मित और उपभोक्ता सामानों में और अधिक मुद्रास्फीति नजर आ सकती है।’

 

First Published - October 6, 2021 | 11:53 PM IST

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