मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस द्वारा भारत की सॉवरिन डेट रेटिंग को कम किए जाने को बाजार ने काफी हद तक तवज्जो नहीं दी है। शायद बाजार को पहले से आशंका थी कि रेटिंग में कमी की जा सकती है। परंतु अगर देश के वृहद आर्थिक हालात की बात की जाए तो रेटिंग में यह कमी आपातकालीन परिस्थितियों का संकेत देती है। मूडीज ने दावा किया कि उसे उम्मीद थी कि सरकार का सामान्य कर्ज सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 70 प्रतिशत से बढ़कर 84 प्रतिशत तक हो जाएगा। इससे वह कहानी सामने आती है जिसका समर्थन गत सप्ताह जारी किए गए आंकड़े भी करते हैं। मिसाल के तौर पर आंकड़ों से पता चला कि 2029-20 में जीडीपी केवल 4.2 फीसदी की दर से बढ़ा लेकिन एक ओर जहां सकल स्थायी पूंजी निर्माण में कमी आई, वहीं सरकारी खपत व्यय करीब 12 फीसदी की दर से बढ़ा। जबकि इस दौरान निजी खपत व्यय 5.3 फीसदी की दर से विकसित हुआ। इससे पिछले वर्ष भी सरकार के व्यय की वृद्धि ने जीडीपी के अन्य घटकों को पीछे छोड़ दिया था। आश्चर्य नहीं कि इसके चलते राजकोषीय दबाव बढ़ रहा है। जैसा कि महालेखाकार ने गत शुक्रवार को कहा भी, गत वर्ष केंद्र का राजकोषीय घाटा 4.6 फीसदी रहा जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को छह साल पहले विरासत में मिले स्तर से अधिक है। इस प्रकार सरकार ने अपनी एक प्रमुख उपलब्धि को गंवा दिया है।
लब्बोलुआब यह कि सरकारी व्यय अब अर्थव्यवस्था का इकलौता वाहक रह गया है। परंतु इसकी वजह से राजकोषीय स्थिति को नियंत्रण में रखना मुश्किल हो रहा है और ऋण संबंधी आवश्यकताओं में भी विसंगति उत्पन्न हुई है। महामारी की शुरुआत के बाद वित्त मंत्रालय ने सरकारी ऋण आवश्यकताओं को और बढ़ाया और अब वह करीब 12 लाख करोड़ रुपये हो गई है। वर्ष 2019 का अंतरिम बजट बताता है कि 2019-20 में सकल बाजार उधारी करीब 7 लाख करोड़ रुपये होगी लेकिन इसके साथ ही राजस्व में भारी कमी की बात भी कही गई। पिछले बजट में चालू वर्ष की बाजार उधारी के 7.8 लाख करोड़ रुपये रहने की बात कही गई थी जिसे अब बढ़ा दिया गया है। कर राजस्व में ठहराव या उसमें गिरावट के बीच महालेखाकार के मुताबिक पिछले वर्ष के दौरान केंद्र का शुद्ध कर राजस्व केवल 13.6 लाख करोड़ रुपये रहा। इस बीच उधारी में इजाफा हुआ है। ऋण के ये आंकड़े किसी भी देश को असहज करने वाले हैं। उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश के लिए तो ये और भी चिंताजनक हैं क्योंकि उसका ऋण स्तर पहले ही अन्य समकक्ष देशों से अधिक है। तेल की कम कीमतें तथा बाह्य खाते का सहज स्तर भारत को अभी भी उस प्रभाव से बचा रहा है जिसका सामना खराब वृहद आर्थिक स्थिति वाले जिंस निर्यातक देशों को करना पड़ रहा है। परंतु यह सिलसिला कब तक चलेगा कुछ कहा नहीं जा सकता।
वृद्धि को बल देने के लिए सरकार का ऋण लेना और व्यय करना ऐसे समय में उचित हो सकता है जब निजी क्षेत्र लगभग स्थगित है। परंतु यह बात भी एकदम स्पष्ट हो चुकी है कि यह लंबे समय तक नहीं चल सकता है। क्योंकि यदि कारोबारी भावना में सुधार होता है और निजी क्षेत्र में ऋण की मांग बढ़ती है तो कैसे हालात बनेंगे? सरकार देश में निवेश लायक अधिशेष पर एकाधिकार कर रही है और विदेशी निवेशक भारतीय निजी क्षेत्र को ऋण देने के इच्छुक नहीं हैं।
क्या सरकार इस मोड़ पर व्यय कम कर पाएगी? या फिर क्या वह अर्थव्यवस्था में सुधार से इतना राजस्व जुटाने की अपेक्षा कर रही है जिससे ऋण कार्यक्रम एक बार फिर नियंत्रण में आ जाए।