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सैफरनआर्ट से हॉवर्ड भी हुआ हैरान

Last Updated- December 05, 2022 | 9:44 PM IST

जब 2005 की एक शाम मीनल और दिनेश वजीरानी को हॉवर्ड बिजनेस स्कूल ने फोन किया, तो यह पति-पत्नी ज्यादा हैरान नहीं हुए।


आखिर इसकी कोई वजह भी तो नहीं थी। इन दोनों ने वहीं से पढ़ाई जो की थी। लेकिन उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि तीन साल के बाद उन्हें अपने पुराने कॉलेज का दौरा करने के लिए बुलाया जाएगा, जहां एमबीए के स्टूडेंट्स उनकी कंपनी पर केस स्टडी करने में जुटे होंगे।


अब आप भी सोच रहे होंगे कि आखिर इन्होंने ऐसा क्या अनोखा काम कर दिया, जो हॉवर्ड को भी उनका लोहा मानना पड़ा? दरअसल, उनकी ऑनलाइन गैलरी और नीलामीघर कंपनी सैफरनआर्ट ही वह अनोखा काम है। इन्होंने एक ऐसे क्षेत्र में अपनी कंपनी को न सिर्फ बरकरार रखा बल्कि मुनाफा भी कमाया, जहां बड़े-बड़े दिग्गजों को हार माननी पड़ी थी। हॉवर्ड के प्रोफेसर इसी बात को तो जानना चाहते थे कि इस जोड़े ने यह कमाल कैसे कर दिखाया।


वजीरानी दंपती ने भी इनकार नहीं किया और उन लोगों को बताया कि कैसे कल खड़ी हुई एक कंपनी ने मॉडर्न और कंटेम्पोररी आर्ट के बाजार में लीडर की कुर्सी पर कब्जा कर लिया और इसके लिए उन्हें क्या-क्या कुर्बानियां देनी पड़ीं। मीनल का कहना है कि, ‘हमारे लिए तो वह बातचीत काफी फायदेमंद रही। बिजनेस की भागदौड़ में तो पीछे मुड़कर यह देखने का मौका ही नहीं मिलता कि हमने कैसे तरक्की की।’ वैसे, यह मुकाम पाना इतना आसान नहीं था। 2002 के आखिरी और 2003 के शुरुआती दिनों में तो उन्होंने अपनी इस कंपनी को बंद करने के बारे में गंभीरता से सोचा था।



उन दिनों को याद करते हुए दिनेश बताते हैं,’तब एग्जीबिशन और ऑनलाइन ट्रंजैक्शन के बीच हमें काफी इंतजार करना पड़ता था। उस वक्त पैसों की खातिर हमें अपने खुद के कलेक्शन का कुछ हिस्सा बेचना पड़ा था और उधार भी लेना पड़ा था, ताकि हम अपने बिजनेस को चला सकें। आज पीछे मुड़कर देखता हूं, तो मन में ख्याल आता है कि सही ही किया, जो हम डंटे रहे।’ केस स्टडी लिखने की प्रक्रिया से उन्हें अपने बिजनेस को एक संदर्भ में तब्दील करने में काफी मदद मिली। मीनल बताती हैं, ‘अंत में हमने पाया कि हमने यह कामयाबी  तीन चीजों की बदौलत पाई है।


ये तीन बातें हैं, नई सोच, उद्यमशीलता और नए बाजारों का निर्माण व विकास।’ उन्होंने जो पाया था, वह सचमुच जबरदस्त कामयाबी थी। उन्होंने एक ऐसे बाजार का निर्माण किया था, जिसमें प्रतियोगिता के लिए कोई था ही नहीं।



साइबर स्पेस के इस बाजार में सैफरनआर्ट ने जो कामयाबी पाई थी, उसकी सबसे बड़ी वजह कीमतों में पारदर्शिता थी। इसके कलेक्टर्स कॉनर में इस वेबसाइट के जरिये बिकी हर पेटिंग्स की कीमत होती है। साथ ही, इस साइट पर यहां से बिकी हर पेंटिंग की कीमत को भी तय कर सकते हैं। इसके अलावा, इसकी बोली लगाने की प्रक्रिया को हर कोई देख सकता है। दिनेश बताते हैं,’जब हम इस मार्केट में आए थे, तब मॉडर्न और कंटेम्पोररी आर्ट के बारे में कोई कीमत ही मौजूद नहीं हुआ करती थी। हमने इस कमी को पूरा किया। इससे कला के भारतीय कद्रदानों का ही भला हुआ।’



हॉवर्ड बिजनेस स्कूल को इस बात पर हैरानी हो रही है कि क्यों भारतीय साइबर स्पेस में कला का यह ऑनलाइन निलामीघर कामयाब हो गया, जबकि दूसरे देशों के ऐसे प्रयोग असफल रहे? इसका भी जवाब वाजिरानी दंपति के पास है। उनका कहना है कि,’हम जानते थे कि भारत में लोग-बाग काफी टेकसैवी हैं। साथ ही, इंटरनेट भी बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंच चुका था। लोग-बाग ऐसी जगह की तलाश में थे, जहां वे भारतीय कला को खरीद सकें।


बाद में, जब इंटरनेट और लोगों तक पहुंचा तो हमने भारतीय बाजार पर ज्यादा से ज्यादा फोकस करना शुरू किया।’  विश्लेषकों का कहना है कि ऑनलाइन गैलरियां अक्सर वेबसाइट पर कीमत की घोषणा करने से बचती हैं। दरअसल, वह मोलभाव के लिए मौके खुले रखना चाहते हैं। लेकिन, कीमत, आर्टिस्ट्स के इतिहास और उसके काम के बारे में बताकर सैफरनआर्ट ने पूरे बाजार पर कब्जा कर लिया।



आपको एक तााुब वाली बात बताएं! यह काम इस जोड़े ने 2001 में शुरू किया था। तब से लेकर आज तक साइबर स्पेस में कला की खरीदारी के मामले में भारतीय कला प्रेमियों में काफी का परिपक्वता आ चुकी है। अब तो बड़ी तादाद में लोग-बाग कलाकृतियों की तलाश में साइबर स्पेस का सहारा लेते हैं। अब तो इन्होंने अपनी वेबसाइट को नई शक्ल दे दी है। साथ ही, उन्होंने इस वेबसाइट पर अब पहली बार गहनों और जेवरातों की बिक्री की घोषणा की है।


इसकी शुरुआत अक्टूबर 2008 में होगी। दिनेश ने बताया कि,’अगले साल से तो हम दूसरे देशों की कलाकृतियां भी अपनी वेबसाइट्स पर बेचने की योजना बना रहे हैं।’ इसकी सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह कंपनी इसी साल जून में लंदन में अपना खुद का ऑफिस खोलने जा रही है।


साथ ही, यह नई दिल्ली और दुबई में भी दफ्तर खोलने के बारे में भी पूरी गंभीरता से सोच विचार कर रही है। दिनेश का कहना है कि,’जब हम हॉवर्ड में पढ़ रहे थे, तो वहां भारतीय केस स्टडी के नाम पर केवल टाटा संस ही हुआ करती थी।’ इस बात से इत्तेफाक जताते हुए मीनल कहती हैं कि,’वहां एमबीए स्टूडेंट्स को सैफरॉनआर्ट पर एमबीए करते देख और टेबल के इस तरफ खड़े रहना का अच्छा लगता है।’

First Published - April 16, 2008 | 11:32 PM IST

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