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प्रमोटर अवधारणा को समाप्त किए जाने की कसरत

Last Updated- December 10, 2022 | 12:22 AM IST

भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने प्रमोटरों के लिए गिरवी शेयरों का खुलासा करने की जरूरत को अनिवार्य करने का फैसला किया है।
सेबी की इस योजना से कंपनियों में प्रमोटरों की भूमिका को लेकर स्थिति काफी हद तक बेहतर हो सकती है। सेबी का यह उपाय देश की प्रमुख आईटी सेवा प्रदाता कंपनी सत्यम कंप्यूटर्स सर्विस लिमिटेड में ताजा घटनाक्रम के लिए एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।
सत्यम के मामले में प्रमोटरों द्वारा गिरवी रखे गए शेयरों को बाजार में बेच दिया गया। हालांकि यह लेख सत्यम मामले के गुण-दोषों पर प्रतिक्रिया नहीं करेगा। भारतीय सिक्यूरिटीज कानूनों के तहत ‘प्रमोटर’ वह व्यक्ति है जो कंपनी पर नियंत्रण रखता है और ऐसे लोगों को शामिल करता है जो प्रतिभूतियों की पेशकश के लिए योजना बनाते हैं।
प्रमोटरों को लेकर भारतीय कानून के सिर्फ तीन पहलुओं की संक्षिप्त समीक्षा यह दिखाएगी कि प्रमोटर की अवधारणा से जुड़ी नियमन नीति को गलत तरीके से स्पष्ट किया गया है जो वास्तव में असंगत है।
जब कोई कंपनी प्रतिभूतियों की पेशकश करती है तो उसे प्रमोटरों के बारे में खुलासा करने की जरूरत होती है जिनमें प्रमोटर के अन्य कार्यों आदि का ब्योरा शामिल होता है। इन जानकारियों में यह भी शामिल होता है कि प्रमोटर का प्रदर्शन या कामकाज कैसा है या फिर वह किसी मुकदमेबाजी में तो नहीं फंसा हुआ है।
ऐसे खुलासों के पीछे यह तर्क होता है कि कंपनी में निवेश करने वाला व्यक्ति यह जानना चाहता है कि कंपनी के अन्य व्यवसाय किस तरह चल रहे हैं। कंपनी के ये व्यवसाय अच्छे चल रहे हैं या नुकसान में चल रहे हैं।
हालांकि प्रतिभूतियों की पेशकश के लिए यह दिशा-निर्देश जरूरी है कि इक्विटी शेयर पूंजी की पेशकश के बाद प्रमोटर का कंपनी में कम से कम 20 फीसदी का नियंत्रण होना चाहिए। इसके अलावा प्रमोटर को यह न्यूनतम 20 फीसदी हिस्सेदारी तीन साल तक रखनी होगी।
इन कसौटियों पर खरा उतरे बगैर कोई भी कंपनी भारतीय पूंजी बाजार तक पहुंच नहीं बना सकेगी। आश्चर्यजनक बात यह है कि किसी कंपनी द्वारा पेशकश करने और सूचीबद्ध होने के बाद कानून में न्यूनतम प्रमोटर हिस्सेदारी को लेकर कोई निर्धारण नहीं है।
इसके विपरीत लिस्टिंग एग्रीमेंट यानी सूचीबध्दता समझौते में प्रमोटर की शेयर हिस्सेदारी की अधिकतम सीमा निर्धारित की गई है। यह व्यवस्था तार्किक है, क्योंकि नियामक नीति कानूनी तौर पर वैध हो सकती है।
अनियमितताओं के परिणाम के तौर पर हजारों कंपनियां प्रमोटर हिस्सेदारी बनाए रखने के भार को सहन कर रही हैं। हालांकि कुछ कंपनियां ऐसी भी हैं जिन्होंने सूचीबद्ध होने के बाद प्रमोटरों को रखने की जरूरत महसूस नहीं की है।
ऐसे दो प्रमुख उदाहरण लार्सन ऐंड टुब्रो और हाउसिंग डेवलपमेंट फाइनैंस कॉरपोरेशन के हैं। जहां लार्सन ऐंड टुब्रो सत्यम के अधिग्रहण के लिए उम्मीदवारी को लेकर सुर्खियों में रही है वहीं बाद वाली कंपनी के चेयरमैन सरकार की अगुआई में सत्यम के अस्तित्व को बचाए रखने की वकालत कर रहे हैं।
प्रमोटरों द्वारा गिरवी शेयरों के विशेष खुलासे पर उपायों की ताजा घोषणा के बाद भी संवेदनशील मूल्य के सभी स्वरूपों के जरूरी खुलासे से जुड़ी सूचनाओं के असली मुद्दे को छोड़ दिया गया है। प्रमोटरों की हिस्सेदारी की बात करें तो सत्यम में प्रमोटर हिस्सेदारी बेहद नगण्य रही है।
यह महज लगभग 7 प्रतिशत है। इतनी कम मात्रा में शेयरों को गिरवी रखे जाने से मुश्किल से ही किसी तरह का बदलाव संभव है। अगर कोई शेयरधारक अपनी कंपनी में मंदी को भांप कर या पैसे की जरूरत पड़ने पर शेयर बेचता है तो उसे स्वयं प्राइस-सेंसिटिव इन्फॉर्मेशन यानी कीमत-संवेदी सूचना देगी होगी।
ऐसे खुलासे के लिए कानून पहले से ही अनिवार्य हैं। प्रमोटरों द्वारा गिरवी शेयरों को अलग करने के बजाय सेबी को यह सुनिश्चित करना चाहेगा कि लिस्टिंग के वक्त कंपनी में प्रमोटर की न्यूनतम हिस्सेदारी सीमा बरकरार रखी जानी चाहिए।
कंपनी का कामकाज बोर्ड-संचालित होना चाहिए न कि यह प्रमोटरों के अधीन हो।
(लेखक जेएसए, एडवोकेट्स ऐंड सॉलिसिटर्स के पार्टनर हैं। )

First Published - February 8, 2009 | 10:51 PM IST

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