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फोस्टर्स से विदेशी लेनदेन पर कसता शिकंजा

Last Updated- December 07, 2022 | 7:07 PM IST

अथॉरिटी फॉर एडवांस रूलिंग (एएआर) के हाल के निर्णय से भारतीय राजस्व विभाग को संबल मिला है। विभाग विदेशी लेनदेन पर कड़े स्रोत आधारित सिद्धांतों के जरिये कर लगाने की कोशिश कर रहा था।


फोस्टर मामले में एएआर ने व्यवस्था दी कि किसी प्रकार की आस्तियों (जैसे कि ब्रांड या ट्रेडमार्क ), जिसका निर्माण या विकास भारत में हो रहा हो,  के लेनदेन या मार्केटिंग पर कर अदा करना होगा।

यह मामला स्रोत आधारित नियम के तहत कड़े आवेदन का एक उदाहरण है। इसमें इस बात का जिक्र किया गया है कि किस प्रकार किसी खास परिक्षेत्र में राजस्व गतिविधियां की जा सकती है, उसके क्या नियम-कानून हैं और आस्तियों के विदेशी लेनदेन की प्रक्रिया कैसी है।

बाजार आस्तियों का हस्तांतरण

फोस्टर्स ऑस्ट्रेलिया लिमिटेड (फोस्टर्स ऑस्ट्रेलिया) बीयर का उत्पादन करने वाली एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी है। इसे भारत में फोस्टर्स के ब्रांड नाम और ट्रेडमार्क का इस्तेमाल करने के लिए प्रमाण पत्र मिला हुआ था।

एक दशक पहले, यह फोस्टर्स इंडिया लिमिटेड के साथ ब्रांड लाइसेंस समझौता (बीएलए) कर चुकी थी, जिसके तहत उत्पाद के निर्माण, उसकी पैकेजिंग, लेबल लगाने और भारत में उसे बेचने की बात की गई थी। इस बीएलए के तहत यह बात भी कही गई थी कि फोस्टर्स इंडिया लिमिटेड भारत में उसके ट्रेडमार्क का इस्तेमाल कर सकती है।

इसके बाद फोस्टर्स ऑस्ट्रेलिया ने सबमिलर के साथ एक समझौता किया, जिसके तहत भारत में फोस्टर्स ऑस्ट्रेलिया के सारे उत्पादों के निर्माण, उसके ब्रांड और बौद्धिक संपदा अधिकार और बेचने का अधिकार सबमिलर को दे दिया गया।

इसके बाद फोस्टर्स ऑस्ट्रेलिया एएआर से संपर्क स्थापित किया, जिसमें इस समझौते के आधार पर कर लगाने संबंधी बातों को स्पष्ट करने की कोशिश की गई। दरअसल इस समझौते के आधार पर मार्केटिंग और बौद्धिक संपदा अधिकार को लेकर एएआर ने फोस्टर्स ऑस्ट्रेलिया पर कर लगाने की बात कह रही थी।

विवाद को लेकर दी गई व्यवस्था

इस निर्णय ने एक बुनियादी प्रश्न को खडा कर दिया। आस्तियां (पूंजीगत परिसंपत्ति) आखिर रहता कहां है? घरेलू कानून के अंतर्गत जो पेचीदगी है, वह है कि अप्रवासी द्वारा निष्पादित लेनदेन पर कर आरोपित होगा। वैसे इस प्रस्ताव को लेकर बहुत कम दिशा-निर्देश ही उल्लिखित किए गए हैं। इस मामले को लेकर कई तरह के विवाद उत्पन्न हुए हैं, जिसमें वोडाफोन का मामला भी काफी महत्वपूर्ण है।

फोस्टर्स का प्रारंभिक इरादा यह था कि समझौते का हस्तांतरण हस्तांतरण करने वाले की जगह में समानता होने की वजह से मंजूर कर ली जाए। कमोबेश जब ऑस्ट्रेलिया में इस समझौते को अमली जामा पहनाया जा रहा था, तब भारत में पूंजी लाभ को लेकर किसी प्रकार के कराधान के बारे में नहीं सोचा गया था।

उसके बाद राजस्व विभाग के प्रतिनिधियों ने तर्क देते हुए कहा कि जिस जगह से उन उत्पादों का इस्तेमाल होता है, उसे ही मुख्य निर्माण केंद्र माना जाएगा। ठीक वोडाफोन मामले की तरह। कर अदा करने वाले की तर्कों से असहमत एएआर ने व्यवस्था दी कि निर्माण स्थल का निर्णय कानूनी मालिकाना हक से अलग बात होती है।

अमेरिकी और ब्रिटिशों के निर्णय को ध्यान में रखते हुए अथॉरिटी ने कहा कि इस्तेमाल करने की जगह और उसके विकास की जगह का निर्धारण इस बात पर होता है कि ब्रांड और ट्रेडमार्क की स्थापना कहां हुई है। चूंकि फोस्टर्स के मामले में आस्तियों की मार्के टिंग भारत में हुई है, इसलिए इसका व्यापार स्थल भी भारत ही हुआ।

और इसलिए फोस्टर्स ऑस्ट्रेलिया को इन गतिविधियों के लिए भारत में कर अदा करनी चाहिए। अथॉरिटी ने आगे व्यवस्था दी कि ऑस्ट्रेलिया में जो निर्माण स्थल है, वह सांकेतिक है और वहां से किसी प्रकार की पूंजी गतिविधि या हस्तांतरण नहीं होता है।

हस्तांतरण मूल्य का प्रश्न : अनुत्तरित या उठाए नहीं गए?

वे, जो हस्तांतरण मूल्यीकरण (अंत: संगठनीय लेनदेन का मूल्यीकरण) से भली भांति वाकि फ हैं, वे आर्थिक मालिकाना हक और फोस्टर में प्रयुक्त सिद्धांतों के बीच की समानता को समझने में भूल नहीं करेंगे। आर्थिक मालिकाना हक ओईसीडी द्वारा मान्यता प्राप्त एक हस्तांतरण मूल्यीकरण प्रणाली है और बहुत सारी जगहों (अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान आदि) पर यह प्रणाली प्रचलित भी है।

आर्थिक मालिकाना हक सिद्धांत के अनुसार, आस्तियों का मालिकाना हक आईपी विकास में योगदान पर आधारित होता है। एएआर ने फोस्टर्स के मामले में आर्थिक मालिकाना हक का सिद्धांत ही लागू किया था। इसके बावजूद इस तरह की आस्तियों की मार्केटिंग को लेकर एएआर बहुत सारे पक्षों (फोस्टर्स ऑस्ट्रेलिया सहित) के योगदान को नजरअंदाज कर दिया।

भारत आने से पहले ही फोस्टर्स एक नामी गिरामी ब्रांड के तौर पर पहचानी जाती थी। इसलिए भारत से उसे पूरी तरह से पूंजी का लाभ हो रहा है, यह तर्क सही प्रतीत नहीं होता है। हैरत की बात तो यह है कि भारत में मार्केटिंग के लिए ऑस्टे्रलियन इकाई के जरिये फंड उपलब्ध कराए जाते थे। इस तरह के मामले में समानुपातिक पूंजी लाभ के आसार कुछ हद तक तो नजर आते हैं।

मैं इस बात का अनुमान लगाता हूं कि इस संबंध में कंपनी की विस्तार को लेकर किसी भी तरह के कोई प्रश्न उठाए ही नहीं गए। यह मेरी व्यक्तिगत धारणा है कि अगर इस तरह का कोई प्रश्न उठता भी, तो इसका जबाव उनके पास भी नहीं होता।  कम से कम वह इस बात की व्यवस्था जरूर करते कि लेनदेन पर लगाए जाने वाले करों के संबंध में विस्तार संबंधी कानून को भी दिमाग में लेना चाहिए।

दोहरे कराधान का मामला

एएआर के द्वारा जो भी व्यवस्था दी जाती है, उसमें वास्तविकताओं का ख्याल रखा जाता है, हालांकि यह संभव है कि किसी दूसरे मामले में पहले वाली व्यवस्था का ही सहारा लिया जाए। मिसाल के तौर पर अगर फोस्टर्स के मामले को ही पूर्ववर्ती मामले की तरह व्यवह्रत किया जाए, तो कर योजना और निवेश के अन्य मामले में इसका उदाहरण भी लिया जा सकता है।

अगर आस्तियों के बाजार का निर्धारण उसके उत्पादों के इस्तेमाल होने वाली जगहों के आधार पर किया जाए,  तो फोस्टर्स के मामले में दी गई व्यवस्था से भारत में एक्जिट टैक्स का रास्ता साफ होता है। वैसे इस तरह के मामले में हमारे पास विस्तृत नियम कानून नहीं है। जब तक संधि संरक्षण मिला रहता है, तब तक ही हाउसिंग बौद्धिक संपदा के लिए पूंजीगत लाभ पर कर में राहत मिल सकती है।

स्रोत आधारित कराधान पर बहस

भारतीय आयकर कानून में अधिकतर व्यापारिक गतिविधियों के लिए स्रोत आधारित कराधान प्रणाली ही उपयुक्त होती है। कुछ रॉयल्टी के मामले में भी इसी प्रणाली का उपयोग किया जाता है। हालांकि इसे लेकर न्यायालय ने भी सुरक्षित रास्ता ही अख्तियार किया है।

स्रोत आधारित कर प्रणाली को अपनाने के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि विधायिकी जनादेश की अनुपस्थिति में इसे लागू करना उचित नहीं होगा। फोस्टर्स का मामला निश्चित तौर पर राजस्व विभाग के खेमे में एक आंधी बनकर आया।

हालांकि नीतिगत आधार पर यह कहा जा सकता है कि दोहरे कार्यस्थल की आधार की व्याख्या के आधार कर लगाने की जो पहल की गई है, वह एक तेज तर्रार प्रक्रिया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि स्रोत आधारित कर प्रणाली दुधारी तलवार की भांति है, जिसमें अगर राजस्व विभाग इसका इस्तेमाल करता है, तो न्यायिक प्राधिकरण इसे बतौर ढ़ाल इस्तेमाल करता है।

निश्चित तौर पर फोस्टर्स का मामला भारत में अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर एक बार फिर से बहस छेड़ चुका है। इस बहस में आस्तियों, कार्य स्थल का निर्धारण और कर प्रणाली का शामिल होना भी लाजिमी है।

(लेखक बीएमआर एडवाइजर के पार्टनर हैं। ऊपर व्यक्त किए गए विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)

First Published - September 1, 2008 | 1:41 AM IST

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