पिछले कुछ महीनों में हम भारतीय कॉरपोरेट जगत की मुद्रा से जुड़ी चिंताओं के बारे में पढ़ चुके हैं। इस दौरान कई कंपनियों ने यह बात स्वीकार की कि किस तरह उन्हें मुद्रा बाजार का पर्याप्त प्रबंधन नहीं करने की वजह से नुकसान उठाना पड़ा।
हालांकि भारतीय निवेशकों के पास विदेशी निवेश के अनोखे इस्तेमाल की सुविधा है। इस कारण मुद्रा की कीमत कम होने का मतलब मुनाफा होना है। भारत में व्यक्तिगत विदेशी निवेश की अनुमति 2004 के बजट में मिली थी। तब से भारतीय बाजारों ने अंतरराष्ट्रीय बाजारों को प्रदर्शन के मामले में पीछे ही छोड़ा है और इसी का तकाजा है कि लोगों में विदेशी निवेश के प्रति दिलचस्पी कम हुई है।
किसी भी स्थिति में विदेशों में निवेश का एक व्यावहारिक विकल्प म्युचुअल फंड ही था, कहने का तात्पर्य यह कि म्युचुअल फंडों के जरिये ही बाहर निवेश किया जा सकता था। खासकर एक साल पहले तक विदेशों में निवेश के कुछ ही विकल्प मौजूद थे। हालांकि तब से अब तक की स्थिति में परिवर्तन आया है और विदेशों में भी निवेश के कई अवसर सामने आए हैं।
अब कम से कम 15 फंड हैं जिनके जरिये हम बाहर विदेशों में निवेश कर सकते हैं। इन सबमें विभिन्नताएं भी उपलब्ध हैं जिनके जरिये हम विभिन्न तरीके से निवेश के काम को अंजाम दे सकते हैं। इनमें सामान्य वैश्विक फंड के अलावा क्षेत्र विशेष मसलन लैटिन अमेरिका एवं चीन आधारित फंड हैं जिनके जरिये निवेश किया जा सकता है। इसके अलावा डाइवर्सिफाइड फंड, सेक्टोरल फंड डेट फंड भी हैं।
चूंकि विकल्प बढ़ रहे हैं, इसलिए ज्यादा से ज्यादा भारतीय देश के बाहर निवेश कर रहे हैं और यह चलन जोर पकड़ता जा रहा है। जाहिर है, ऐसे निवेश में दिलचस्पी रखने वालों की तादाद वक्त के साथ बढ़ती ही जाएगी। नतीजतन फंडों की संख्या में इजाफा ही इजाफा होगा। हालांकि इन सबके साथ जो चीज बढ़ेगी वह है मुद्राओं में उतार -चढ़ाव के साथ साथ मूल निवेश रिटर्न में भी अप्रत्याशित ज्वार भाटा।
पिछले ढाई साल के दौरान पहले तो रुपया डॉलर के मुकाबले 20 फीसद ऊपर चढ़ा और बाद में उसकी कीमत में तकरीबन 16 फीसद की गिरावट आ गई। लिहाजा जब इस उतार-चढ़ाव के मद्देनजर आप विदेशी निवेश में अपने रिटर्न देखेंगे तो आप पाएंगे कि आपको अपने वास्तविक रिटर्न से कहीं ज्यादा रिटर्न मिला है। लेकिन परेशानी तो खुदरा निवेशकों के साथ है क्योंकि सभी प्रकार के निवेश में अनिश्चितता बनी हुई है।
लिहाजा निवेशकों को यह सोचना पड़ेगा कि दुनिया के किस हिस्से में निवेश किया जाए और यह भी देखना पड़ेगा कि उस हिस्से की मुद्रा और भारत की मुद्रा के बीच क्या तालमेल है। मुझे लगता है कि निवेशक से इस तरह की उम्मीद बिल्कुल बेमानी होगी।
मुद्रा की चाल का अंदाजा तो कोई भी नहीं लगा सकता, इसलिए इस सिलसिले में निवेशकों का दांव सीधा भी पड़ सकता है और उलटा भी। इसका फैसला तो उस हिस्से के आर्थिक कारक ही करेंगे। इसका उदाहरण फै्रंकलिन इंडिया इंटरनेशनल बांड फंड से मिल सकता है, जो अपनी सभी संपत्तियों का निवेश अमेरिका में अपनी मूल कंपनी द्वारा चलाए जा रहे मैचिंग बांड फंड में करता है।
चूंकि यह एक बांड फंड है लिहाजा इसका असल रिटर्न मुद्रा के प्रभाव का एक हिस्सा भर साबित हो रहा है। इसके मूल फंड ने पिछले तीन साल में 4.37 फीसदी सालाना का रिटर्न दिया है जो किसी भी भारतीय वर्जन के मुकाबले बेहतर है जिसने 2.91 फीसदी का ही रिटर्न दिया है। पिछले पांच साल में मूल फंड ने 4.24 फीसदी का रिटर्न दिया है और फीडर फंड ने 1.98 फीसदी का रिटर्न दिया है। इसकी वजह रुपये की मजबूती थी।
लेकिन अगर हम मौजूदा स्थिति पर नजर डालें तो स्थिति बिल्कुल उलटी है। 10 सितंबर के बाद से ही किसी भी भारतीय फंड के मुकाबले इसने 15.5 फीसदी का रिटर्न इस अवधि में दिया है। हालांकि इन रिटर्नों का वास्तविक निवेश से किसी प्रकार का कोई राफ्ता नही है। लिहाजा विदेशी इक्विटी फंडों के लिए यह भले ही कम प्रभाव वाला हो पर इसे नजरअंदाज करना बेवकूफी होगी।
इसलिए ऐसी स्थिति में आदर्श हल यह होगा कि हेजिंग का सहारा लिया जाए। हालांकि हेजिंग के लिए कई परिस्थितियों में कीमत कुछ ज्यादा अदा करनी पड़ती है जिसे कई निवेशक झेलना पसंद न करें। जाहिर तौर पर यह निवेशकों के लिए एक और अतिरिक्त परेशानी का सबब बढ़ाने जैसा है।
लेखक वैल्यू रिसर्च के सीईओ हैं।