स्टरलाइट में अल्पसंख्यक शेयरहोल्डर कुछ बदलाव सा महसूस कर रहे हैं। कंपनी ने दो और आकर्षक कारोबारों एल्युमीनियम और पावर को इससे अलग कर दिया है।
स्टरलाइट अब सिर्फ कॉपर, जिंक और सीसे का कारोबार करेगी। इन स्थितियों में अगर कंपनी का शेयर गुरुवार को 7.5 फीसदी गिरा तो आश्चर्य कैसा। इसके अलावा शेयर का वैल्यूएशन एल्युमीनियमऔर पॉवर कारोबार की वजह से प्रभावित हो सकता है।
हालांकि स्टरलाइट के शेयर होल्डर को एल्युमीनियम और पावर कारोबार में शेयर खरीदने का मौका मिल सकता है। लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि स्टरलाइट के शेयरहोल्डर को प्रत्येक चार शेयरों के लिए मद्रास एल्युमीनियम के जो सात शेयर मिलेंगे, वह इस ट्रांसफर के लिए दी जाने वाली राहत के पर्याप्त नहीं है।
वेंदाता का माल्को में 80 फीसदी हिस्सेदारी है जबकि स्टरलाइट में कंपनी की हिस्सेदारी 60.6 फीसदी है। हालांकि बाजार से जुड़े कुछ ही विश्लेषक ऐसा मानते हैं कि माल्को के शेयर होल्डर जिन्हें एल्युमीनियम और पावर वेंचर का ट्रांसफर किया गया है, ने एक अच्छा बेहतर सौदा पाया है। माल्को के शेयरों में 17 फीसदी का उछाल देखा गया था।
कोनकोला कॉपर के बारे में अभी ज्यादा विस्तार से जानकारी उपलब्ध नहीं है लेकिन अब यह स्टरलाइट का हिस्सा होगी। यह अतार्किक नहीं है कि प्रवर्तक किसी खास कारोबार से संबंधित परिसंपत्त्तियों में रणनीतिक या वित्तीय निवेशकों को आकर्षित करने के लिए अलग कंपनियां बनाएं।
हालांकि पुनर्संरचना के बाद स्टरलाइट में प्रवर्तकों की हिस्सेदारी 73 फीसदी रहेगी। इसलिए यदि स्टरलाइट को नई निवेश की गई पूंजी से लाभांवित होना है तो उसके लिए नए शेयर जारी करने होंगे। जिंक का मौजूदा कारोबार 1782 डॉलर प्रति टन पर हो रहा है जो मार्च में इसके उच्चतम स्तर से 37 फीसदी कम है।
उद्योग से जुड़े विश्लेषकों का मानना है कि कीमतें अपने निचले स्तर पर पहुंच चुकी हैं। इसके अलावा अगले दो सालों में जिंक में नई क्षमताएं भी जुड़ रही हैं और इसतरह आपूर्ति मांग से ज्यादा हो जाएगी। जून 2008 की तिमाही में भी स्टरलाइट ने अपने जिंक और सीसे की बिक्री में 40 फीसदी सालाना की कमी देखी।
हालांकि एल्युमीनियम ने बेहतर प्रदर्शन किया और उसकी बिक्री सालाना आधार पर 35.8 फीसदी ज्यादा रही। इसकी वजह सालाना आधार पर सात फीसदी का बेहतर रिलयलाइजेशन रहा। ऐलान के पहले विश्लेषकों को अनुमान था कि कंपनी के शेयर को 11.5 गुना पर कारोबार करना चाहिए। हालांकि यह अब बदल सकता है।
आईटी- विदेश से उम्मीद
अमेरिका में चल रह रहे क्रेडिट संकट से भारतीय सूचना-प्रौद्योगिकी सेवा पर असर पडा और खासकर उन कंपनियों पर जिनका वित्तीय सेवाओं की ओर ज्यादा एक्सपोजर है। ज्यादातर कंपनियों के वॉल्यूम में पिछले कुछ महीनों के दौरान कमी देखी गई है जबकि कीमत पर भी दबाव बना हुआ है।
वैश्विक कंपनियों के द्वारा अपने सूचना प्रोद्योगिकी खर्चों में कटौती करने के फैसले का भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों पर बुरा असर पड़ा है। भारतीय कंपनियां इस बात की आशा कर रही हैं कि मंदी से ग्रस्त वैश्विक कंपनियां अपनी लागत को कम करने के लिए ज्यादा से ज्यादा काम की आउटसोर्सिंग करेंगी।
ऐसा एक अमेरिका स्थित विदेशी अखबार फारेस्टर के द्वारा किए गए सर्वे के मुताबिक अब 43 फीसदी कंपनियां अपनी लागत को कम करने के लिए ऑफशोरिंग पर जोर दे रही हैं जबकि मौजूदा समय में सिर्फ नौ फीसदी कंपनियां ही ऑफशोरिंग करती हैं।
यह रिपोर्ट उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के 947 सूचना प्रोद्योगिकी प्रबंधकों के विचारों पर आधारित थी। यह भारतीय सूचना प्रोद्योगिकी कंपनियों के लिए अच्छा समाचार नहीं हो सकता है क्योंकि ज्यादातर कंपनियां अपने सूचना-प्रोद्योगिकी खर्चों में कटौती करने के बारे में सोंच रही हैं।
फॉरेस्टर के अध्ययन के मुताबिक कंपनियों ने पहले ही अपने सूचना-प्रोद्योगिकी बजट में कटौती कर दी है जबकि 24 फीसदी ने अपने सूचना-प्रोद्योगिकी खर्च को टाल दिया है। हालांकि ये खर्चे भौगोलिक और सेक्टर और सेक्टर के आधार पर अलग-अलग हैं।
इसके अतिरिक्त एक ब्रोकर कंपनी सीएलएसए के अनुमानों के अनुसार उद्योग का अनुमानित खर्चा वास्तविक आंकड़ों से अलग है। रिपोर्ट कहती है कि संभावना व्यक्त करने वाले प्राय: अप सायकल और डाउन सायकल मापने में ज्यादा अनुमान लगा देते हैं।
जबकि भारतीय कंपनियां यूरोप में अमेरिका की अपेक्षा तुलनात्मक रूप से बेहतर माहौल की आशा कर रही हैं हालांकि यूरोपीय बाजार में भी मंदी के आसार नजर आने लगे हैं और यह भारतीय कंपनियों के लिए परेशनी की वजह है।
सूचना-प्रौद्योगिकी कंपनियां लगातार गिरते रुपए पर अवश्य खुश होंगी जबकि रुपया शुक्रवार को डॉलर की तुलना में 20 महीनों के न्यूनतम स्तर 44.83 पर पहुंच गया और इसमें लगातार गिरावट भी जारी है। इसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि सूचना प्रोद्योगिकी कंपनियों के शेयर पिछले कुछ महीनों से बाजार को आउटपरफार्म कर रहे हैं। इसकी वजह रुपए के मूल्य में डॉलर की तुलना में आई गिरावट है।