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क्या उत्पाद पेटेंट लोगों के खिलाफ हैं?

Last Updated- December 05, 2022 | 5:08 PM IST

पिछले कई दिनों से अपने देश में एक बड़ी बहस पेटेंट के बारे में चल रही है। कुछ लोगों का कहना है कि पेटेंट नई सोच को बढ़ावा देता है, तो कुछ के मुताबिक यह गरीबों के जीवन के साथ खिलवाड़ है।


इसमें कोई शक नहीं कि दवा क्षेत्र में होने वाले किसी भी रिसर्च या विकास का सबसे ज्यादा फायदा किसी मरीज को ही होता है। हर दिन दु्निया में हजारों बीमारों की मौत सिर्फ इसलिए हो जाती है क्योंकि उनके मर्ज की अब तक कोई दवा नहीं मिल पाई है। इसके लिए पेटेंट बेहद जरूरी है। किसी नए उत्पाद का पेटेंट, नई सोच के लिए मिला इनाम होता है।


यह निवेशकों और खोजकर्ताओं के लिए प्रेरणा की तरह होता है। अक्सर कहा जाता है कि प्रोडक्ट पेटेंट को खत्म कर भारत देसी जेनरिक दवाओं के उत्पादन में तेजी ला सकता है, जिससे आम लोगों को फायदा होगा।हालांकि, जेनरिक दवाएं दवाओं की कमी का इकलौता इलाज नहीं है। इसका सही समाधान तो लोगों को दवाएं मुहैया कराकर ही किया जा सकता है और दवाओं को लोगों तो पहुंचाने के कई रास्ते है।


नई सोच को स्वीकार नहीं करने से भारत आने वाले कल की दवाओं तक पहुंच को खतरे में डाल रहा है, जिससे आखिर में लोगों की जान ही खतरे में पड़ जाएगी। जेनरिक दवाओं के लिए प्रोडक्ट पेटेंट तो एक अच्छा शगुन ही है। कृपया करके सोने के अंडे देने वाली मुर्गी का गला अपने ही हाथों से न घोंटें।विकासशील देशों में दवाओं तक लोगों की पहुंच को बरकरार रखना एक मुश्किल समस्या है। इस मुश्किल का हल केवल जेनरिक दवाओं को मुहैया करवाना नहीं है।


लोगों को दवाओं से दूर रखने में दो बातें काफी अहम जगह रखती हैं और इन दोनों का पेटेंट का कोई लेना-देना नहीं है। पहला तो यह कि यहां फंडों की काफी की है। दूसरी बात है, स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की कमी। सच तो यह है कि अगर दवाएं लोगों तक नहीं पहुंच पा रही हैं, तो कीमतों, उद्योग की संरचना और फार्मा क्षेत्र के पेटेंट का इससे बहुत कम लेना-देना है।


पेटेंट से इनकार और जेनरिक कंपनियों को नई दवाओं की नकल करने की इजाजत देना गरीबों तक दवाओं को पहुंचाने का जरिया नहीं हो सकता है। हिंदुस्तान में इतनी कुव्वत तो जरूर है कि वह बस एक नकलची नहीं बनकर रह सकता। एक स्वतंत्र और साफ पेटेंट पॉलिसी का फायदा न सिर्फ फार्मा कंपनियों को मिलेगा, बल्कि यह फायदे इससे भी आगे के होंगे। समय आ गया है कि जब हम बौध्दिक संपदा कानून के फायदे को देखें।


इससे काफी विदेशी निवेश मिलता है, जिसका फायदा तेज आर्थिक विकास के रूप में सामने आता है। हमारे पास मौका है कि हम केवल नकलची न रहकर एक ग्लोबल खिलाड़ी के रूप में सामने आया। इससे हमारा ही काफी हद तक फायदा होगा।प्रोडक्ट पेटेंट किसी खास उत्पाद पर एकाधिकार पर कानून की मुहर होती है। इस वजह से कोई और बिना इजाजत के उस खास उत्पाद का उत्पादन या बिक्री नहीं कर सकता है।


इस वजह से तो फार्मा जगत की बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां प्रोडक्ट पेटेंट का खास तौर पर इस्तेमाल करती हैं। वजह यह है कि इससे उनका उत्पाद किसी भी भी तरह की प्रतियोगिता से मुक्त हो जाती है। इस बारे में किया गया ट्रिप्स समझौता, एक ऐसा समझौता है जिसकी शुरुआत ही विकसित देशों की फार्मा और एग्रो केमिकल कंपनियों ने की थी। इसके तहत तो पेटेंटों की जद दुनिया भर को ले आया गया।


इससे हुआ यह कि विकासशील देशों की सरकारें अपने लोगों को जीवन रक्षक दवाएं मुहैया करवा पाने मे अक्षम हो गईं। इन देशों, खासकर अफ्रीका, के हजारों लोगों की जान केवल इसलिए चली गई क्योंकि न तो वह मासूम लोग और न ही सरकार उन दवाओं की कीमत चुका पाए। मिसाल के तौर पर पेटेंट के कायदे कानून में बंधे एंटी रेट्रोवाइरल (एआरवी) दवाओं को ही ले लीजिए। विकासशील देशों में एचआईवीएड्स से हजारों की जान इसलिए गई क्योंकि सस्ती एवीआर दवाएं उनतक पहुंच ही नहीं पाईं। 


जेनरिक दवाओं के आने से पहले एवीआर दवाओं पर साल भर का खर्च प्रति व्यक्ति 10 से 12 हजार डॉलर प्रति साल हुआ करता था। जेनरिक दवाओं के आ जाने के बाद से कीमतों में अपने-आप कमी आ गई। इसलिए इन देशों में तो प्रोडक्ट पेटेंट जनसंहार कर रहा है। साथ ही, इस बात के भी पक्के सबूत हैं कि प्रोडक्ट पेटेंट से न तो पुरानी बीमारियों के इलाज के लिए होने वाले शोध और विकास को कोई बढ़ावा मिलता और न ही निवेशक इस दिशा में आते है।


पेटेंट दवाओं की कीमत बढ़ाते हैं, जिससे विकसित देश भी काफी परेशान हैं। वहां सोशल सिक्योरिटी सिस्टम से बाहर रह रहे लोगों की जिंदगी और भी मुश्किल हो जाती है। दूसरी तरफ, आम सोच के इतर एक दवा केवल एक पेटेंट से सुरक्षित नहीं हो जाती। इसके लिए पूरी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। एक दवा का पेटेंट को पाने के लिए कई पेटेंट को हासिल करना पड़ता है। इससे अलग-अगल एक्सपाइरी डेट वाली पेटेंटों का एक ताना-बाना बुना लिया जाता है।


इससे लोगों को एक दवा पर सालों तक राज करने का मौका मिल जाता है। इससे न सिर्फ जेनरिक दवाओं के उत्पादन पर असर पड़ता है, बल्कि उसके बारे में आगे रिसर्च करने का मौका भी छूट जाता है।  यह एचआईवीएड्स या कैंसर के मामले में काफी खतरनाक साबित हो सकता है।

First Published - March 27, 2008 | 12:46 AM IST

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