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मंदिर रूपी परीक्षा में कांग्रेस की विफलता

क्या कांग्रेस पार्टी मोदी, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचना करते हुए राम मंदिर के उत्सव में शामिल नहीं हो सकती थी?

Last Updated- January 14, 2024 | 8:52 PM IST
Ram Mandir

करीब चार दशकों से एक प्रेत कांग्रेस का पीछा कर रहा है और इस दौरान पार्टी लोकसभा में 414 सीट से घटकर 52 सीट पर आ चुकी है। हालांकि यह आंकड़ा 2014 में उसे मिली 44 सीट से अधिक है। राम मंदिर के निर्माण ने पार्टी को यह अवसर दिया था कि वह इससे पीछा छुड़ाए लेकिन कांग्रेस पार्टी ने इसे गंवा दिया। यह प्रेत दरअसल पार्टी का विचारधारा से जुड़ा भ्रम है और वर्तमान में धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करने का उसका तरीका भी। पार्टी द्वारा मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में शामिल होने से इनकार करने के बाद कुछ प्रश्न स्वाभाविक रूप से उभरे हैं।

पहला, क्या पार्टी की 1996 के बाद की विचारधारा मौजूदा चुनावी राजनीति के अनुरूप है? यह उस विरोधाभास को कैसे दूर करेगी जिसके तहत एक तरफ तो उसने मंदिर पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का स्वागत किया तो वहीं दूसरी ओर वह उसके उद्घाटन समारोह से दूरी बना रही है जबकि लाखों हिंदू इस उत्सव में शामिल हैं जो पार्टी के प्रतिबद्ध मतदाता भी हैं। अब पार्टी अपने मतदाताओं से क्या कहेगी जिनमें हिंदू, मुस्लिम और धर्मनिरपेक्ष लोग भी शामिल हैं?

हिंदू, उसे एक उदास और पराजित शक्ति के रूप में देख रहे हैं जो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय और ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के बीच उलझी हुई है। मुस्लिमों को पता है कि पार्टी मस्जिद की सुरक्षा कर पाने में नाकाम रही, उसने मंदिर से जुड़े निर्णय का स्वागत किया और अब वह उद्घाटन समारोह में न शामिल होकर उनका साथ चाहती है।

कट्‌टर धर्मनिरपेक्ष लोगों की नजर में तो पार्टी उसी समय उतर गई थी जब उसने सर्वोच्च न्यायालय के मंदिर/मस्जिद से जुड़े निर्णय का स्वागत किया था। ऊपर हमने जिन तीन मतदाता वर्गों की बात की वे सभी पार्टी को पाखंडी के रूप में देख सकते हैं। पार्टी ने इस स्थिति को बदलने का निर्णय लिया। उसकी सबसे बड़ी नाकामी इस तथ्य में निहित है कि उसकी आंतरिक बहस (यदि ऐसी कोई बहस है) घालमेल भरी है। इन तमाम दशकों के दौरान पार्टी असहाय कबूतर की तरह आंख बंद किए बैठी रही और आशा करती रही कि बिल्ली उसे न देखे।

शिकार होने की प्रतीक्षा में बैठे कबूतर की उपमा क्रूर हो सकती है लेकिन दुर्भाग्यवश एक ऐसे दल के लिए यह सटीक है जो इतना आत्ममुग्ध है कि 2014 की आपदा के बाद भी उसे अपने अस्तित्व के लिए तब तक खतरा नहीं नजर आया जब तक कि उसने अपनी मौलिक वैचारिक स्थिति को सुलझा नहीं लिया।

अब तक उसे पता चल जाना चाहिए था कि मोदी-शाह की भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर लड़ाई को तीन स्पष्ट मुद्दों के इर्दगिर्द पुनर्परिभाषित कर दिया है: संस्कृति (धर्म), पहचान (राष्ट्रवाद) और सुरक्षा। इनमें से हर मुद्दे पर कांग्रेस पराजित नजर आती है और यह प्रतीक्षा करती दिखती है कि सामने वाला पक्ष पहला कदम उठाए। कोई भी दल एक मजबूत सत्ताधारी को केवल प्रतिक्रिया देकर नहीं हरा सकता। उसे वैकल्पिक दृष्टि पेश करनी होगी।

पार्टी को इन तीनों अहम मुद्दों पर अपना नजरिया साफ करना चाहिए। प्रति माह 6,000 रुपये की राशि, मुफ्त बिजली तथा तमाम अन्य मुफ्त चीजें यह विकल्प नहीं हो सकतीं। आप ऐसे मुद्दों से नहीं लड़ सकते जो लोगों के दिलों से जुड़े हों। मतदाता यह सवाल कर सकते हैं कि आखिर उनकी आस्था, राष्ट्रीय गौरव या परिवार की सुरक्षा की भरपाई क्या किसी पैसे या मुफ्त उपहार से हो सकती है?

सच तो यह है कि इन तीनों में से हर मुद्दे पर कांग्रेस का प्रदर्शन शून्य रहा है। पार्टी इनके बारे में बात तक नहीं करना चाहती है। अयोध्या में ‘मंदिर’ के ताले कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में खोले गए थे ताकि वहां पूजा शुरू हो सके और उसके बाद ही शिलान्यास संभव हो सका। राजीव गांधी ने 1989 में अपना चुनाव प्रचार अयोध्या से शुरू किया था और राम राज लाने का वादा किया था।

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अगर वह उन कदमों का सुधार कर रहे थे जिन्हें उन्होंने गलत कदम के रूप में देखा था, मसलन शाहबानो मामले में अदालती निर्णय को पलटना और सलमान रश्दी की किताब सटैनिक वर्सेज पर प्रतिबंध, तो यह बात हमें केवल यही याद दिलाती है कि यह वैचारिक विरोधाभास बहुत पुराना है।

जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी अपने-अपने तरीके से इस बारे में काफी स्पष्ट थे। नेहरू अनीश्वरवादी थे और उन्हें इसी रूप में जाना जाता था। वह अपने दौर में धार्मिक राजनीति से दूर रहते हुए अपनी पार्टी के दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादियों को व्यवस्थित तरीके से दूर रख सकते थे। इसके विपरीत इंदिरा गांधी ने रुद्राक्ष की माला को धारण करते हुए हिंदुत्व को बाकायदा धारण किया। वह हिंदुओं को जनसंघ (भाजपा का मातृ संगठन) के साथ नहीं जाने देने वाली थीं।

यही वजह है कि उन्होंने कभी उस पर ‘हिंदू पार्टी’ होने के नाते हमला नहीं किया। वह उसे ‘बनिया’ पार्टी कहती थीं और उन्होंने सावरकर को ‘वीर’ कहकर सराहा। उन्हें पता था कि मुस्लिम मतों को चुनौती देने वाला कोई नहीं है। भ्रम उनके बाद शुरू हुआ।

इस समय जो बातें मोदी के लिए वास्तव में कारगर हैं और जो हालिया विधानसभा चुनावों में भी नजर आई, वह है भारत की वैश्विक छवि में सुधार। नेहरू, इंदिरा या राजीव के कार्यकाल में कांग्रेस का प्रदर्शन इतना खराब नहीं रहा। वह इसके बारे में बात क्यों नहीं करेगी और इसकी वजह दिलचस्प है। शायद इसलिए कि वह उन दो प्रधानमंत्रियों के बारे में बात नहीं करना चाहती जो बाद में हुए और गांधी परिवार से नहीं थे।

मोदी के शक्तिशाली व्यक्तित्व प्रदर्शन और चापलूसी का मखौल उड़ाना आसान है। मतदाता पूछेंगे कि अगर इस प्रक्रिया में हमारा देश आगे बढ़ रहा है तो दिक्कत क्या है? क्या कांग्रेस के पास इसका बेहतर विकल्प है? क्योंकि मतदाताओं को तो विकल्प और नए विचारों की आवश्यकता है।

राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर मोदी का प्रदर्शन बहुत अच्छा है, खासकर आंतरिक मोर्चे पर। उनके उदय के बाद पठानकोट को छोड़कर जम्मू कश्मीर के बाहर कोई बड़ा आतंकी हमला नहीं हुआ। कई भाजपा शासित राज्यों में कानून व्यवस्था की स्थिति में वाकई सुधार हुआ है, खासकर उत्तर प्रदेश में और मतदाता इसके लिए पार्टी को पुरस्कृत भी कर रहे हैं।

हालांकि कांग्रेस भी मजबूती से यह कहने की इच्छुक नहीं है कि उसकी सरकारों ने आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों का किस तरह सामना किया। उसके सामने एक चुनौती यह है कि ऐसे में पी वी नरसिंह राव का उल्लेख करना होगा जिन्होंने कश्मीर और पंजाब में अशांति के चरम दौर का सामना किया और 1991 से 1993 के बीच उनसे निपटने में कामयाब रहे।

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यह कांग्रेस तो असम और मिजोरम में राजीव गांधी की सफलता और पंजाब में संत हरचंद सिंह लोंगोवाल के साथ समझौते के रूप में तकरीबन सफल होने को भी ठीक से नहीं भुना पाई। अगर आप कांग्रेस के मतदाता या शुभेच्छु होंगे तो आप जानना चाहेंगे कि लोंगोवाल कौन थे लेकिन पार्टी के नेता आपको नहीं बताएंगे। मुझे यह बात नहीं समझ में आती है कि कांग्रेस जिस तरह नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के समय को भुला देती है उसी तरह राजीव के काल को भी क्यों भुला देती है। या फिर वे हमेशा यही बताते दिखते हैं कि कैसे इन सरकारों के कार्यकाल में वृद्धि दर बीते नौ सालों की तुलना में बेहतर थी।

कांग्रेस कई विरोधाभासों से जूझ रही है। अतीत के किन नेताओं को वह उभारना चाहती है और किन्हें नहीं? वह कश्मीर और अनुच्छेद 370 पर क्या रुख रखना चाहती है? वह बदलावों को स्वीकार करेगी या सत्ता में वापसी होने पर उन्हें बदलेगी? ये सभी बातें महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन सबसे अहम यह है कि मंदिर और भगवान राम को लेकर उसका रुख क्या है।

क्या यह बेहतर नहीं होगा कि वह बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ मंदिर के उत्सव में शामिल हो जबकि इसके साथ ही वह इस मामले का राजनीतिकरण करने के लिए मोदी, भाजपा और आरएसएस की आलोचना करती रह सकती है? यह सर्वश्रेष्ठ विकल्प नहीं है लेकिन हर शादी में मुंह फुलाए रहने वाले फूफा की तरह दिखने से तो यही बेहतर होगा।

First Published - January 14, 2024 | 8:52 PM IST

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