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सरकारी स्कूलों को ‘हलाल’ न करें, उनकी हालत सुधारें

Last Updated- December 05, 2022 | 4:59 PM IST

सेवाओं के गुणात्मक विस्तार और उनके सार्वभौमीकरण के लिए एसटीडी बूथों वाला रवैया (जहां फोन कॉल के लिए प्री-पेड वाउचर या कूपन मिलते हैं) अख्तियार करने से आज कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है।


बात ग्रामीण कनेक्टिविटी, बीमा कवर, ऋण, हेल्थ केयर की हो या फिर शिक्षा तक की, हर जगह यही तरीका आजमाया जा रहा है।राजस्थान सरकार ने अपने ताजा बजट में छात्रों को मुफ्त एजुकेशन वाउचर देने का ऐलान किया है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के लक्ष्यों को पूरा करने के मकसद से ऐसा किया गया है। ये वाउचर उन्हीं स्कूलों के छात्रों को दिए जाएंगे, जिन्हें बेरोजगार प्रशिक्षित शिक्षकों द्वारा चलाया जा रहा है।


सरकार ऐसे शिक्षकों को स्कूल स्थापित करने के लिए जमीन मुहैया कराएगी या फिर उन्हें सरकार द्वारा पहले से निर्मित स्कूल मुहैया कराए जाएंगे। इन सबके जरिये ऐसे शिक्षकों द्वारा चलाए जाने वाले स्कूलों की तादाद बढ़ाने की सरकार की मंशा है। पर इन स्कूलों में शिक्षकों का किस तरह का योगदान होगा, इस बारे में अभी कुछ भी साफ नहीं है। इस स्कीम का मकसद यह है बेरोजगार प्रशिक्षित शिक्षक ज्यादा से ज्यादा उद्यमशील बन सकें और वे अपने भीतर ऐसा कौशल विकसित करें, जिसकी बदौलत स्कूलों को सफलतापूर्वक चला सकें और ज्यादा से ज्यादा बच्चे इन स्कूलों में दाखिला लें।


ये शिक्षक जितने ज्यादा छात्रों को स्कूल में लाने में कामयाब होंगे, उनके हाथ में उतना ही ज्यादा पैसा आएगा। जाहिर है इसके लिए शिक्षकों द्वारा शिक्षा को ज्यादा से ज्यादा रोचक बनाने की कोशिश की जाएगी ताकि अधिकतम बच्चों का रुझान इन स्कूलों की ओर हो। इन शिक्षकों की नजर गरीब और अनपढ़ बच्चों पर होगी और साथ ही ऐसे बच्चों पर भी, जिन्हें सरकारी स्कूलों में सही तरीके से तालीम हासिल नहीं हो पा रही। यह सब तभी संभव हो पाएगा, जब स्कूल एक एसटीडी बूथ की तरह काम करें।


यह बात गौर करने लायक है कि एक एसटीडी बूथ की तरह स्कूलों में कोई अपना 2 मिनट नहीं बिताता, बल्कि यहां बच्चों की जिंदगी का ठीकठाक वक्त गुजरता है। यहां बच्चों के व्यक्तित्व का विकास होता है और स्कूल कोई व्यावसायिक सेवा देने वाली संस्था नहीं होते।शिक्षाविद विमला रामचंद्रन का मानना है कि समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था और गरीबी ऐसी दो मूल जंजीरें हैं, जिन्हें तोड़ पाने में शायद वाउचर सिस्टम (छात्रों को दिया जाने वाला मुफ्त एजुकेशन वाउचर) मददगार साबित नहीं होगा।रामचंद्रन दिल्ली की मिसाल पेश करती हैं।


वह कहती हैं – ‘क्या दिल्ली के स्कूलों में गरीबों के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित रखी जाती हैं? जबकि कोर्ट इसे कानूनी रूप से अनिवार्य बनाने का आदेश दे चुका है।’ उनके मुताबिक वाउचर स्कीम का कोई मतलब नहीं रह जाएगा, जब तक स्कूलों में यह व्यवस्था नहीं की जाए कि वे किस तरह के छात्रों का दाखिला लेंगे।


साथ ही डाइट द्वारा शिक्षकों को दी जाने वाली ट्रेनिंग का क्या होगा और फिर स्कूली जर्सियों, किताबों और दूसरे कई तरह के खर्चों का क्या होगा, जिनका खर्च सिर्फ धनी लोग ही वहन कर सकते हैं? रामचंद्रन का मानना है कि छात्रों को दिए जाने वाले मुफ्त एजुकेशन वाउचर से बमुश्किल उनकी पढ़ाई के व्यावहारिक खर्चे निकल पाएंगे।


उदयपुर के एक एनजीओ ‘सेवा मंदिर’ की कार्यकारी निदेशक नीलिमा खेतान कहती हैं – ‘गरीबी, स्कूलों तक पहुंच न होना, और खराब पढ़ाई ऐसी वजहें हैं, जिनके चलते बच्चे सरकारी स्कूल छोड़ देते हैं।’ खेतान का एनजीओ 200 स्पेशल प्राइमरी स्कूल चलाता है।राजस्थान सरकार ने पहले लोक जुंबिश परियोजना चलाई थी। यह एक बेहद क्रांतिकारी कार्यक्रम था, जिसके तहत समुदायों को शिक्षा से जोड़े जाने की मुहिम चलाई गई थी।


पर इस कार्यक्रम को दोबारा नहीं चलाया गया और इसकी जगह केंद्र सरकार के सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) को अमल में लाया गया। अब स्पध्र्दा एसएए के तहत चलने वाले स्कूलों और एसटीडी टाइप स्कूलों के बीच है। पर यह स्पध्र्दा गैरबराबरी की है। जाहिर है यदि सरकारी स्कूलों के बच्चों का रुख प्राइवेट  स्कूलों की ओर होने लगा, तो सरकारी स्कूलों पर बंद होने का खतरा मंडराने लगेगा।


पर यहां एक सवाल भी है कि धीमे-धीमे मरने के अलावा क्या सरकारी स्कूलों का कोई दूसरा हश्र नहीं है?राजस्थान सरकार ने ‘ज्ञानोदय’ नाम से एक और योजना शुरू ही है। इसके तहत प्राइवेट और धर्मादा संस्थाओं को पंचायतों के मुख्यालयों में सीनियर सेकंड्री और सेकंड्री स्कूल खोलने के लिए धन दिए जाने का प्रावधान किया गया है।


दूसरी ओर, सरकारी स्कूलों के बीच भी नेमतें बाटी गई हैं, जिनमें पारा-शिक्षकों और लोक जुंबिश के कार्यकर्ताओं को नियमित किया गया है और इस तरह की कई और व्यवस्थाएं की गई हैं।


 इधर, भोपाल में शिक्षा का एक अलग तरह का मॉडल चलाने वाले प्रदीप घोष कहते हैं कि यदि उनके राज्य में छात्रों को मुफ्त एजुकेशन वाउचर दिए जाते, तो अच्छा होता। पर घोष एक अलग तरह का सवाल उठाते हैं। उनका कहना है मात्रा तो कोई मुद्दा ही नहीं है, असली मसला गुणवत्ता से जुड़ा है। बकौल घोष, सवाल यह है कि क्या इन एजुकेशन वाउचर्स से पढ़ाई की मौजूदा गुणवत्ता और तौर-तरीकों में किसी तरह का परिवर्तन आएगा?


12वीं कक्षा पास कर चुके छात्रों को छोड़ दें तो गांवों के बाकी बच्चे सही मायने में न तो गांवों के रह जाते हैं और न ही शहर के। ऐसे में विषयों का चुनाव शुरुआती स्तर से किए जाने की छूट होनी चाहिए। साथ ही स्कूल के हर बच्चे पर व्यक्तिगत तौर पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है, जिसका घोर अभाव फिलहाल सरकारी स्कूलों में देखने को मिलता है। इस समस्या का समाधान यह है कि मौजूदा सरकारी स्कूलों की हालत सुधारी जाए, न कि उनके वजूद को ही खत्म किए जाने की बात की जाए।

First Published - March 24, 2008 | 11:13 PM IST

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