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संपादकीय: राजनीतिक दलों में पारदर्शिता हो प्राथमिकता

एक विकल्प यह भी हो सकता है कि एक ऐसा राष्ट्रीय कोष बनाया जाए जिसमें सभी नागरिक और कंपनियां योगदान करें।

Last Updated- May 29, 2024 | 11:07 PM IST
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अठारहवीं लोक सभा के लिए मतदान इस हफ्ते खत्म हो जाएगा और नतीजे 4 जून को आएंगे। इसके बाद केंद्र में नई सरकार के गठन का रास्ता साफ हो जाएगा। अगली सरकार किसी भी राजनीतिक दल या गठबंधन की क्यों न हो, उसे तत्काल अपना काम शुरू करना होगा और नीतिगत तथा प्रशासन संबंधी चुनौतियों से निपटना होगा।

ऐसा ही एक मसला चुनावों से ही जुड़ा है। फरवरी में सर्वोच्च न्यायालय के एक संवैधानिक पीठ ने चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द कर दिया क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मिले सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती थी।

सर्वोच्च न्यायालय ने इन बॉन्डों को जारी करने के लिए अधिकृत भारतीय स्टेट बैंक को यह निर्देश भी दिया कि वह इनके जरिये मिले चंदे का ब्योरा सार्वजनिक करे, जिसके बाद इनका मीडिया और अन्य जगहों पर गहराई से विश्लेषण किया गया। भारत में चुनावों की फंडिंग हमेशा से ही चिंता का विषय रही है और सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने राजनीतिक पार्टियों को मिल रहे धन के बारे में सभी मसलों के समाधान का एक अवसर प्रदान किया है।

केंद्रीय गृह मंत्री ने हाल में एक साक्षात्कार में इस बात पर जोर दिया कि चुनावी बॉन्ड योजना का कोई विकल्प लाना होगा। भारतीय राजनीति में काले धन या आमतौर पर धनबल का इस्तेमाल बड़ी चिंता का विषय रहा है और अगली सरकार को इस समस्या का तत्काल समाधान करना चाहिए। लेकिन जो भी विकल्प अपनाया जाए, उसे चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द करने की बुनियादी वजहों का समाधान करना होगा। इस संबंध में अगली सरकार एक समिति बना सकती है जिसमें सभी राजनीतिक दलों के सदस्य हों। यह समिति राजनीतिक फंडिंग के सभी पहलुओं का अध्ययन करे और उसके बाद अपने सुझाव दे, जिन पर अमल से पहले इसके बारे संसद में गहन चर्चा होनी चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की पृष्ठभूमि में किसी भी वैकल्पिक प्रणाली का शुरुआती बिंदु पारदर्शिता होनी चाहिए। अगर राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे के लिए अपारदर्शी व्यवस्था अपनाई गई तो इसका कई तरह का बुरा असर हो सकता है, जिनमें नीतियों पर दबदबा शामिल है। इसके अलावा, चूंकि विचार काले धन के असर को समाप्त करने का है, इसलिए नई प्रणाली में नकद चंदे की व्यवस्था खत्म होनी चाहिए। भुगतान समाधान में तो भारत दुनिया का अगुआ बन चुका है, यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस काफी लोकप्रिय हुआ है, ऐसे में इसमें कोई समस्या नहीं आनी चाहिए।

समिति को इस पर भी विचार करना होगा कि निर्वाचन आयोग को किस तरह से मजबूत बनाया जाए ताकि यह राजनीतिक दलों की आय और खर्च पर सख्ती से निगरानी रख सके। अक्सर यह सुझाव दिया जाता है कि चुनाव या राजनीतिक दल सरकारी खर्च पर चलें ताकि काले धन और धनबल का असर रोका जा सके और सबको बराबरी का मौका मिले। लेकिन यह तभी कारगर हो सकता है, जब राजनीतिक दलों को मिलने वाले धन की समुचित निगरानी हो और पार्टियों की किसी अन्य स्रोत से धन उगाही पर रोक लगाई जाए।

एक विकल्प यह भी हो सकता है कि एक ऐसा राष्ट्रीय कोष बनाया जाए जिसमें सभी नागरिक और कंपनियां योगदान करें। इस तरह से जुटाए गए कोष को सभी राजनीतिक दलों में इस तरह से वितरित किया जा सकता है कि सबको बराबरी का मौका मिले। इससे बदला लेने का डर भी खत्म हो जाएगा जिसे कि अक्सर राजनीतिक फंडिग में पारदर्शिता न होने के बहाने के रूप में पेश किया जाता है।

समिति यह भी देख सकती है कि राजनीतिक दल पैसा खर्च किस तरह से करते हैं। उदाहरण के लिए, चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के लिए खर्च की सीमा तो तय की गई है, लेकिन राजनीतिक दलों के लिए नहीं, जो कि एक प्रतिस्पर्धी लोकतंत्र में संतुलन को प्रभावित कर सकता है। यह कहना सही होगा कि राजनीतिक दलों के वित्त का मामला जटिल है और इसका कोई आसान समाधान नहीं है। हालांकि, अब जब अदालत के एक आदेश से मौजूदा प्रणाली रद्द हो गई है और नई लोक सभा का गठन होने जा रहा है, भारत के सामने यह अवसर है कि वह जहां तक संभव है चीजों को दुरुस्त कर सके।

First Published - May 29, 2024 | 10:04 PM IST

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