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वित्तीय संकट पर खौफ कायम करने का फितूर

Last Updated- December 05, 2022 | 4:52 PM IST

मुश्किल और बड़े लक्ष्यों को हासिल करने के दौरान हमें किसी भी टीम के भीतर या बाहर तीन तरह की प्रतिक्रिया देखने को मिलती है।


चाहे वह क्रिकेट में बड़ा स्कोर खड़ा करने का मामला हो या दुर्गम या रेतीले रास्तों को पार करने का मुश्किल भरा सफर या फिर ऊंची चोटियां फतह करने की बात, यह बात सभी मामलों में लागू होती है। ये तीन प्रतिक्रियाएं इस प्रकार हैं। पहला यह कि कुछ लोग सारी उम्मीदों को छोड़ देते हैं और निराशा में डूब जाते हैं।


 कुछ लोग उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ते और बुरी से बुरी हालत के लिए खुद को तैयार रखते हैं। तीसरी श्रेणी के लोग नतीजों की परवाह किए गए बगैर अपना काम करते रहते हैं। क्रिकेट की भाषा में इसे ओवर बाय ओवर या बॉल बाय बॉल खेलना कहा जाता है।


पश्चिमी देशों में जारी वित्तीय संकट भी कुछ इसी तरह का मामला है और इस पर ऊपर लिखित तीनों तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। ज्यादातर लोग पहले विकल्प के रास्ते पर चल रहे हैं। ये लोग इस संकट पर सबसे ज्यादा हो-हल्ला मचा रहे हैं और इस वजह से सबसे ज्यादा लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने में सफल रहे हैं। ऐसे लोग खुद के काफी जहीन होने का दावा करते हैं।


 हकीकत यह है कि इनमें से कुछ लोग दूसरों की मुश्किलों से मजा लेने में जुटे हैं, जबकि बाकी लालचवश ऐसा कर रहे हैं। हालांकि दूसरी कैटिगरी में शामिल लोगों (उम्मीद का दामन नहीं छोड़ने वालों) की भी कमी नहीं है, लेकिन जैसे-जैसे संकट बढ़ रहा है, ऐसे लोगों की तादाद घटती जा रही है। ऐसी परिस्थितियों में तीसरी तरह के लोग काफी महत्वपूर्ण हैं। ये वक्त की नजाकत को समझते हुए काम में जुटे रहते हैं और साथ ही कभी हार भी नहीं मानते।


दुनियाभर के केंद्रीय बैंकों को इसी कैटिगरी में शुमार किया जा सकता है। ये बैंक वित्तीय संकट पर एकसाथ चल रहे ‘जीवंत चित्रण’ से बेपरवाह संकट के समाधान की दिशा में लगातार काम करने में जुटे हैं। अगर आप मेरी बातों पर यकीन करें, तो उन्होंने अपने इस अभियान में बड़ी सफलता भी प्राप्त की है। ये बैंक वित्तीय संकट के और बुरी हालत में पहुंचने से रोकने में सफल रहे हैं यानी उन्होंने स्थिति को त्रासदीपूर्ण होने नहीं दिया।


यह सर्वविदित तथ्य है कि आपदा प्रबंधन से जुड़े संगठनों का सबसे पहला काम दहशत का माहौल पैदा होने से रोकना है, क्योंकि यह असली समस्या से ज्यादा नुकसानदेह साबित होता है। मेरी राय में केंद्रीय बैंक माहौल को शांत बनाए रखने में सफल हुए हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि हमें इस समस्या पर चिंता छोड़ देनी चाहिए, लेकिन भय का माहौल बनाना ठीक नहीं है।


 अगर आप यह दावा कर रहे हैं कि भय व्याप्त है तो आप उसी शख्स की तरह है, जो सिर्फ आग-आग चिल्लाता है। किसी भी वित्तीय संकट में डर यह होता है कि आपकी बकाया रकम ( शेयरों पर रिटर्न या अन्य स्त्रोतों से) डूब जाएगी। अगर इस डर को कम नहीं किया जाता है तो आप दहशत में आ जाते हैं और कर्जों का भुगतान सुनिश्चित करने का एक ही रास्ता है। वह यह कि देनदारों के भुगतान के लिए पर्याप्त नकद राशि उपलब्ध कराई जाए। सभी वित्तीय संकटों के अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह इस दिशा में यह सबसे कारगर कदम है।


वित्तीय संकट के इस दौर में दहशत को रोकने के लिए बाजार में धन का प्रवाह काफी जरूरी है। एशिया में पैदा हुए वित्तीय संकट के दौरान भी इसे महसूस किया जा चुका है। ठीक उसी प्रकार, जिस तरह दिल का दौरा पड़ने वाले शख्स को ज्यादा से ज्यादा ऑक्सिजन की जरूरत पड़ती है। 1998 में उत्पन्न हुए एशियाई संकट में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने एशिया में धन का प्रवाह रोक दिया और इस वजह से हालात और बदतर हो गए। सौभाग्यवश, इस बार ऐसा नहीं हुआ। अगर हम इसे नस्लीय रंग भी देते हैं तो भी यह सभी के लिए बेहतर है। हमें नस्लीय पहलू पर ज्यादा तवज्जो देने की जरूरत नहीं है।


इस संकट के हमेशा से दो पहलू थे। सबसे बड़ा खतरा वित्तीय स्थिरता से जुड़ा था। माना जा रहा था कि अंतरराष्ट्रीय भुगतान सिस्टम चौपट हो जाएगा, जैसा कि कुछ हद तक बैंकों के साथ हुआ भी। दूसरा खतरा अपेक्षाकृत कम भयंकर था। इसके तहत क्रेडिट साइकल के ठहरने की आशंका थी। अब ग्लोबल फाइनेंशल सिस्टम की स्थिरता सुरक्षित है। इसके बगैर भुगतान सिस्टम पूरी तरह चौपट हो जाता और यह वित्तीय त्रासदी होती। अब बाजार में विश्वास बहाली के लिए कदम उठाने की जरूरत है।


इसके बाद धीरे-धीरे क्रेडिट में भी हो बढ़ोतरी की शुरुआत हो जाएगी। इस प्रक्रिया में सड़े अंडों (वित्तीय कंपनियां) को बास्केट से उसी तरह निकालने की जरूरत है, जैसे कोई सर्जन आपके बेकार अंगों को शरीर से हटा देता है। हालांकि इसके लिए भी विशेषज्ञों की जरूरत है। जो लोग यह कहते हैं कि यह काम बाजार पर छोड़ देना चाहिए, वे ठीक वैसे ही क्रिकेट कप्तान की तरह हैं जो अपने पिंच हिटरों पर बहुत ज्यादा भरोसा करते हैं।


 पिंच हिटर सिर्फ 5 फीसदी मामलों में सफल होते हैं। 95 फीसदी मामलों में सफलता के लिए तकनीकी काबिलियत और फैसले लेने की क्षमता का होना जरूरी है। इस आधार यह कहा जा सकता है कि आप भले ही केंद्रीय बैंकों से घृणा करें, लेकिन अनुभव और फैसले लेने का हक इन बैंकों के पास ही होता है।


कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि केंद्रीय बैंक ने दहशत का मंजर नहीं बनने दिया और अब बाजार में भरोसा लौटाने में वक्त लगेगा। मेरी राय में ‘वित्तीय मरीज’ जून के अंत तक आईसीयू से निकलकर जनरल वॉर्ड में पहुंच जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि इस समय तक बाजार में क्रेडिट का प्रवाह शुरू हो जाएगा। हालांकि शुरू में इसकी रफ्तार थोड़ी धीमी होगी।


इसके बाद इस साल के अंत तक बाजार में रिकवरी का दौर शुरू हो जाएगा। इसके अक्टूबर के आखिरी या नवंबर के पहले हफ्ते में शुरू होने की संभावना है। आप पूछ सकते हैं कि इसका संकट का सबसे बड़ा सबक क्या है? कोई भी वित्तीय सिस्टम कितना भी बेहतर क्यों न हो, ठगों और चालबाजों से हमेशा सावधान रहना चाहिए। किसी पर भी आंख मूंदकर भरोसा करना खतरनाक साबित हो सकता है।

First Published - March 21, 2008 | 11:19 PM IST

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