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Foreign Policy: पड़ोसियों को प्राथमिकता देने की नीति की सीमा

Last Updated- May 29, 2023 | 11:00 PM IST
Shutter Stock

नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ 31 मई को भारत आएंगे। उनकी यह यात्रा बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली नेपाल यात्रा के लगभग नौ वर्ष बाद हो रही है। मोदी जून 2014 में नेपाल गए थे और उन्होंने वहां के लोगों का दिल जीत लिया था (उस वक्त गोरखा रेजिमेंट के एक पूर्व सैन्य अ​धिकारी ने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा था- ‘आप लोग खुशकिस्मत हैं कि मोदी आपके प्रधानमंत्री हैं। काश हमारे पास भी उनके जैसा नेता होता।’)।

उस वक्त नेपाल के पूर्व विदेश और वित्त मंत्री भेख बहादुर थापा ने द न्यूयॉर्क टाइम्स से कहा था, ‘मोदी हमें एक अच्छा अवसर दे रहे हैं। इसके परिणाम ​हासिल होंगे या नहीं यह तो वक्त ही बताएगा। ’

मोदी ने संसद में जो भाषण दिया था उसकी विशेष सराहना हुई थी। उन्होंने कहा था, ‘मेरा काम न तो नेपाल में आपके काम को लेकर कोई निर्देश देना है और न ही कोई हस्तक्षेप करना है क्योंकि नेपाल एक संप्रभु राष्ट्र है।’

उनकी यात्रा के कुछ ही दिन बाद भारत और नेपाल ने ऐतिहासिक बिजली खरीद समझौते पर हस्ताक्षर किए। यह मोदी सरकार की 2014 में घो​षित नीति के तहत था जिसके मुताबिक पड़ोसी देशों को प्राथमिकता दी जानी थी। इस नीति के तहत पड़ोसी देशों की चिंताओं और जरूरतों का वैसे ही ध्यान रखना था जैसे कि भारत की अपनी बातों का रखा जाता है।

तब से अब तक नेपाल में कई सरकारें और प्रधानमंत्री बदले और काफी कुछ घटित हुआ। इस बीच कम से कम एक प्रधानमंत्री ऐसे भी रहे जिन्हें नई दिल्ली आने का मौका नहीं मिला। 2015 में नेपाल के नए संविधान में मधे​शियों (भारतीय मूल के नेपाली नागरिकों) को सांस्कृतिक और भाषाई सुरक्षा देने से इनकार किया गया, नेपाल-भारत की सीमा में बदलाव और नेपाल द्वारा उत्तराखंड के कुछ हिस्सों पर दावा किया गया, भारत का विदेश मंत्रालय यह कहने पर विवश हुआ कि नेपाल के बदले हुए मानचित्र में भारतीय भूभाग का कुछ हिस्सा शामिल है और इस एकपक्षीय कार्रवाई के पीछे कोई ऐतिहासिक तथ्य या प्रमाण नहीं है। नेपाल से आग्रह किया गया कि वह भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करे।

इस बीच एक नया मुद्दा सामने हैं: भारत की नई सैन्य भर्ती योजना, अग्निपथ जिसके तहत नेपाली नागरिकों की भर्ती में कमी आएगी। नेपाल को लग रहा है कि यह सन 1947 की भारत, नेपाल और ब्रिटेन के बीच हुई सं​धि का उल्लंघन है।

विदेश मंत्रालय के वक्तव्य के मुताबिक, ‘सहयोग के सभी क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्ते काफी मजबूत हुए हैं। यह यात्रा इस बात को रेखांकित करती है कि दोनों पक्ष द्विपक्षीय रिश्तों को और गति प्रदान करने को कितनी अहमियत देते हैं।’

नेपाल के मीडिया ने कहा कि यात्रा केवल आधिकारिक यात्रा है, न कि राजकीय यात्रा। इसका अर्थ यह हुआ कि इस दौरान कोई समारोह जैसा आयोजन नहीं होगा। परंतु इस यात्रा से एक भूराजनीतिक संदर्भ भी जुड़ा हुआ है। भारत में यह धारणा है कि नेपाल ने भारत की कीमत पर चीन को बहुत अ​धिक पहुंच उपलब्ध कराई है।

पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देने की नीति की घोषणा के नौ वर्ष बाद भी पड़ोस में ऐसी चिंताएं बरकरार हैं। ये चिंताएं न केवल पड़ोसियों की हैं ब​ल्कि भारत भी चिंतित है।

इंडिया इंटरनैशनल सेंटर के हीरक जयंती समारोह में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने हाल ही में कहा था, ‘भारत की विदेश नीति में, हम पड़ोसियों को प्राथमिकता देने की बात करते हैं, यह केवल नारा नहीं है। यह एक दूसरे के साथ खड़े होने को रेखांकित करती हुई महत्त्वपूर्ण बात है।’

उन्होंने कहा कि यह क्षेत्र बहुत कठिन समय से गुजर रहा है और अगर हम अपने पड़ोस में नजर डालें तो हमारे अनेक पड़ोसी तमाम मुद्दों से जूझ रहे हैं। इनमें से कई समस्याएं तो ऐसी हैं जो उनकी खड़ी की हुई भी नहीं हैं।

भारत का मानना है कि नौ वर्षों में उसने अपने पड़ोसियों तक ऐसी पहुंच कायम की है जैसी इससे पहले कभी नहीं की गई। वैक्सीन मैत्री रूपी मानवीय पहल ने कोविड-19 महामारी के दौरान पड़ोसी देशों की बहुत मदद की। नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका और मालदीव को तोहफे के रूप में टीकों की भारी खुराक भेजी गई। जब श्रीलंका वित्तीय संकट से जूझ रहा था तब भी भारत ने अहम मदद की।

जयशंकर ने इस वर्ष के आरंभ में कोलंबो में अपनी एक आ​धिकारिक यात्रा के दौरान कहा था, ‘भारत ने तय किया कि वह दूसरों की प्रतीक्षा नहीं करेगा और जो सही लगेगा वह करेगा। हमने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष को वित्तीय आश्व​स्ति प्रदान की ताकि श्रीलंका की आगे की राह आसान हो सके।’

बांग्लादेश को लोकोमोटिव के तोहफे और आंतरिक संचार के लिए अधोसंरचना तैयार करने में उसकी मदद ने भारत को आवामी लीग सरकार के साथ रिश्ते गहरे करने में मदद की है और साथ ही अमेरिका जैसी अन्य श​क्तियों को भी देश में लोकतंत्र की ​स्थिति को लेकर अपना रुख तय करने दिया।

भूटान में भारत के राजदूत रहे वी पी हरन कहते हैं कि भूटान और भारत के रिश्तों में अवश्य जटिलता आई है। ऐसा चीन के साथ दोनों देशों के सीमा विवाद और भूटान के आंतरिक बदलावों की वजह से हुआ है।

मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज ऐंड एनालिसिस में रिसर्च फेलो स्मृति एस पटनायक का कहना है कि पड़ोसियों को प्राथमिकता देने की इस नीति में चीन अभी भी सबसे बड़ी समस्या बना हुआ है। वह कहती हैं, ‘हालांकि श्रीलंका का चीनी कर्ज बहुत अधिक नहीं है लेकिन चीन द्वारा निर्मित कई परियोजनाओं से अपे​क्षित प्रतिफल हासिल नहीं हो सका। इससे देश की वित्तीय ​स्थिति दबाव में आ गई। यह बात मालदीव पर भी लागू होती है।’

बहरहाल, पड़ोसी प्रथम की नीति ने भारत-पाकिस्तान के रिश्ते में कोई नतीजा नहीं दिया है। जब तक वहां चुनाव नहीं हो जाते हैं तब तक भारत का सबसे करीबी पड़ोसी सबसे दूर बना रहेगा।

First Published - May 29, 2023 | 11:00 PM IST

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