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जमीनी हकीकत: मौजूदा दौर में कितने कारगर व्यापार नियम

वर्ष 1992 के शुरू में जब रियो शिखर सम्मेलन में कॉप को लेकर समझौता हुआ, उसी दौरान WTO अस्तित्व में आया और विभिन्न देशों के बीच मुक्त व्यापार के लिए वैश्विक नियम भी उसी समय बने।

Last Updated- February 12, 2024 | 10:21 PM IST
जमीनी हकीकत: मौजूदा दौर में कितने कारगर व्यापार नियम, Trade rules for the planet and people

वर्ष 2024 में अलग तरह के वैश्वीकरण के लिए व्यापार नियमों में बदलाव करना होगा। यह ग्लोबल साउथ यानी विकासशहल देशों की अर्थव्यवस्थाओं और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। काफी अरसा पहले जब विश्व में संभावित जलवायु संकट को लेकर बहस छिड़ी हुई थी, उसी समय नए व्यापार समझौतों के लिए बातचीत हो रही थी। 

वर्ष 1992 के शुरू में जब रियो शिखर सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप) को लेकर समझौता हुआ, उसी दौरान विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) अस्तित्व में आया और विभिन्न देशों के बीच मुक्त व्यापार के लिए वैश्विक नियम भी उसी समय बने।

यह सरल समझौता था: जब सामान ऐसे देशों में बनाया जाएगा जहां श्रम लागत कम होने के साथ-साथ काम भी पर्यावरण मानकों के अनुरूप हो तो वहां विनिर्माण लागत अपने आप ही कम आएगी। इससे न केवल विकासशील देशों की निर्यात वाली अर्थव्यवस्थाएं समृद्ध होंगी, बल्कि विकसित देशों को भी फायदा होगा, जहां उपभोक्ताओं को सस्ता सामान मिलेगा और सेवाओं में तेज वृद्धि होगी। 

वैश्विक कारोबार में व्यापक बदलाव साल 2001 में उस समय आया जब चीन विश्व व्यापार संगठन में शामिल हुआ। चीन के पास व्यापक श्रमबल था। कोई ट्रेड यूनियन नहीं और पर्यावरण मानकों को लेकर भी सख्ती नहीं। साथ ही एक शक्तिशाली, स्वतंत्र फैसले लेने वाली सरकार सत्ता में थी।

डब्ल्यूटीओ में शामिल होने के बाद वैश्विक कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जन में चीन की हिस्सेदारी 1990 में 5 प्रतिशत से बढ़कर 2019 में 21 प्रतिशत तक हो गई। कारोबार में तो वृद्धि हुई, लेकिन वैश्विक समृद्धि का युग अभी नहीं आया था। व्यापार बढ़ने का मतलब था कार्बन-डाईऑक्साइड उत्सर्जन में वृद्धि होना। बीते 20 वर्षों में वैश्वीकरण के विचार का खूब शोर रहा। 

लेकिन इस विशाल योजना के समर्थक अब मुक्त वैश्विक व्यापार के विचार से मुंह मोड़ रहे हैं, जिसका प्रारूप इस तरह का था कि राष्ट्रीय सरकारों की ओर से सब्सिडी और प्रोत्साहन को खत्म किया जाएगा। सवाल यह है कि अब जलवायु जोखिम के साथ-साथ युद्धग्रस्त विश्व में नए वैश्विक नियम किस तरह से आकार लेंगे?

आज सबसे अधिक गर्म मुद्दा चीन के प्रति अमेरिका का रुख है। इसे एक निरंकुश और अलोकतांत्रिक सत्ता के खिलाफ लड़ाई के तौर पर देखा जा रहा है। यह सत्य भी है, लेकिन वास्तविक मुद्दा भविष्य के लिए आवश्यक संसाधनों और प्रौद्योगिकियों पर नियंत्रण का है। 

इसमें हरित अर्थव्यवस्था भी शामिल है, जिसकी विश्व को सबसे अधिक जरूरत है। बैटरी की आपूर्ति श्रृंखला पर आज पूरी तरह चीन का प्रभुत्व है। यह विश्व के आधे से अधिक लीथियम, कोबाल्ट और ग्रेफाइट का प्रसंस्करण करता है। यही नहीं, चीन इस समय सौर ऊर्जा क्षेत्र का भी बादशाह बना हुआ है।

अपने इस ‘दुश्मन’ से लड़ने के लिए अमेरिका ने सब्सिडी को लेकर अपने समस्त वैचारिक आग्रहों को दूर करने का निश्चय किया। अमेरिका में निम्न-कार्बन उत्पाद बनाने वाली कंपनियों को प्रोत्साहन देने के लिए मुद्रास्फीति न्यूनीकरण अधिनियम (आईआरए) बनाया गया है। इसी प्रकार यूरोपीय संघ ने कार्बन सीमा समायोजन तंत्र (सीबीएएम) के माध्यम से यूरोप में आने वाले सामान पर कर लगाने की अपनी अलग व्यवस्था गढ़ी है।

मुद्दा यह है कि यदि पश्चिमी दुनिया चीन का प्रभुत्व खत्म करने के लक्ष्य पर आगे बढ़ेगी तो इससे हरित परिवर्तन की लागत बढ़ जाएगी और इसके लक्ष्यों को हासिल करने में और समय लगेगा। क्या यह दुर्लभ खनिजों तक पहुंच सुनिश्चित करने और श्रमबल तथा पर्यावरण मानकों की उच्च लागत के बावजूद अपना विनिर्माण उद्योग खड़ा करने जैसे लगभग असंभव लक्ष्य हासिल करने में कामयाब हो पाएगा? 

यदि ऐसा हुआ तो विश्व डी-ग्लोबलाइजेशन अथवा स्थानीयकरण की ओर लौटेगा, क्योंकि अपने प्राकृतिक संसाधनों, प्रौद्योगिकी और ज्ञान का अधिक से अधिक लाभ स्वयं लेने के लिए अधिकांश देश इसी नीति पर चल पड़ेंगे। यह भी हो सकता है कि प्रौद्योगिकी में कुछ ऐसा नया बदलाव हो जाए जो चीन के प्रभुत्व वाली आपूर्ति श्रृंखला को बेमानी कर दे।

उदाहरण के तौर पर सोडियम-आयन बैटरी को लेकर चर्चा चल रही है, जो आने वाले समय में लीथियम बैटरी का स्थान ले सकती है या उसकी आवश्यकता को कम कर सकती है। स्थानीयकरण का एक और नुकसान यह हो सकता है कि इसके कारण हरित परिवर्तन की गति प्रभावित हो जाएगी। 

उदाहरण के लिए, आईआरए कानून के माध्यम से अमेरिका इलेक्ट्रिक वाहन बनाने वाले स्थानीय उद्यमियों को प्रोत्साहन दे रहा है। अब उसने यह नियम जारी कर दिया है कि जिन इलेक्ट्रिक वाहनों में चीनी बैटरी लगी होगी, उन्हें सब्सिडी नहीं मिलेगी। यह भी कहा जा रहा है कि जो इलेक्ट्रिक वाहन चीन सरकार के साथ समझौते के तहत अथवा ऐसी कंपनियों द्वारा बनाए गए होंगे जिनका चीन अथवा वहां से नियंत्रित ऑपरेटर द्वारा निर्माण किया गया हो, वे भी आईआरए के तहत लाभ पाने के हकदार नहीं होंगे।

कच्चे खनिज अथवा बैटरी उत्पादन सेगमेंट में चीनी प्रभुत्व को पूरी तरह या आंशिक रूप से खत्म करने की दिशा में बढ़ा गया तो इससे इलेक्ट्रिक वाहन परिवर्तन की प्रक्रिया लंबी खिंचेगी अथवा यह बहुत महंगी हो जाएगी। चीन की इलेक्ट्रिक कार निर्माता कंपनी बीवाईडी ने ईलॉन मस्क की टेस्ला को पीछे छोड़ दिया है। 

फाइनैंशियल टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक 2023 की चौथी तिमाही में बीवाईडी ने रिकॉर्ड 5,26,000 बैटरी चालित इलेक्ट्रिक वाहन बेचे, जबकि इस दौरान इसी वर्ग में टेस्ला की 4,84,000 गाडि़यां बिकीं। इसलिए स्थानीयकरण और तेजी से हरित परिवर्तन जैसे दोहरे लक्ष्यों को हासिल करना आज के चीनी प्रभुत्व वाले संसार में बहुत अधिक चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

यही स्थितियां भारत में हैं। हमने स्थानीय सौर ऊर्जा उद्योग की क्षमता बढ़ाने के लिए अधिक निवेश करने का फैसला किया है। यह सही भी है। केंद्र सरकार ने सोलर सेल और मोड्यूल निर्माताओं को वित्तीय प्रोत्साहन देने की घोषणा की है। साथ ही चीनी उत्पादों पर भारी आयात शुल्क लगा दिया है। अभी यह कहना मुश्किल होगा कि इससे भारत का महत्त्वाकांक्षी अक्षय ऊर्जा कार्यक्रम प्रभावित होगा, क्योंकि ऐसा हो सकता है कि घरेलू स्तर पर उत्पादन स्थानीय मांग को पूरा करने में सक्षम न हो और यह लागत प्रतिस्पर्धी भी न बन पाए। 

दूसरी ओर, अपने स्थानीय उद्योग को खड़ा करने के स्पष्ट फायदे हैं। धीरे-धीरे मुक्त वैश्विक व्यापार के बंद होने से भारतीय उद्योग के निर्यात के समक्ष भी मुश्किलें खड़ी होंगी। कुल मिलाकर कहें तो एक नया ही खेल चल रहा है। हमें यह देखने की जरूरत है कि क्या इस बार व्यापार के नियम इस धरती और यहां रहने वाले लोगों के लिए लाभदायक होंगे अथवा उन्हें नुकसान पहुंचाएंगे।

(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट से संबद्ध हैं।) 

First Published - February 12, 2024 | 10:21 PM IST

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