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स्थिरता के साथ कैसे हासिल हो वृद्धि?

वर्ष 2025 में ऐसी वृहद नीतियों की आवश्यकता होगी जो घरेलू मांग को सहारा तो दें मगर वृहद वित्तीय स्थिरता के सामने मौजूद जोखिमों से समझौता बिल्कुल नहीं करें। बता रही हैं 

Last Updated- December 25, 2024 | 11:04 PM IST
Economy: Steps towards normalization अर्थव्यवस्था: सामान्यीकरण की ओर कदम

भारतीय अर्थव्यवस्था के लिहाज से देखें तो वर्ष 2024 को ‘मजबूत शुरुआत और कमजोर अंत’ वाला वर्ष कहा जा सकता है। वर्ष की शुरुआत तो बेहतरीन रही, जब सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वास्तविक वृद्धि दर करीब आठ फीसदी थी और मुद्रास्फीति में कमी आ रही थी। मगर आखिर के कुछ महीनों में जीडीपी वृद्धि दर उम्मीद से अधिक घटने, खाद्य मुद्रास्फीति बढ़ने और रुपये का अवमूल्यन होने से नीतिगत संतुलन बिगड़ गया। आइए देखते हैं कि 2025 में क्या सामने आ सकता है?

चुनौती भरा वैश्विक वातावरण: अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की नीतियों के कारण बहुत अनिश्चितता है। माना जा रहा है कि नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप शुल्क तेजी से बढ़ाएंगे। इससे अमेरिका में महंगाई बढ़ेगी और फेडरल रिजर्व मार्च में एक बार कटौती करने के बाद पूरे 2025 में दरें जस की तस रखेगा। चीन और अधिक राजकोषीय प्रोत्साहन दे सकता है लेकिन इससे टिकाऊ वृद्धि शायद ही हो क्योंकि अर्थव्यवस्था सामान्य मंदी के दौर से नहीं गुजर रही है। इन वजहों से वैश्विक जीडीपी वृद्धि दर 2025 में घटकर 2.9 फीसदी रह सकती है, जो 2024 में 3.2 फीसदी थी। भारत के लिए इसका अर्थ होगा – वृद्धि के लिए निर्यात पर निर्भरता कम होना और देश के भीतर मांग बढ़ना।

वृद्धि में सुस्ती: कई लोग मानते हैं कि जीडीपी वृद्धि में चकित करने वाली कमी आना और वित्त वर्ष 25 की दूसरी तिमाही में इसका 5.4 फीसदी रह जाना एकबारगी घटना है और सरकारी व्यय तथा ग्रामीण सुधार के बल पर अर्थव्यवस्था आने वाली तिमाहियों में 6.5 से 7 फीसदी की वृद्धि हासिल कर सकती है। यह मुश्किल लगता है। महामारी के बाद भारत ने वृद्धि की राह पर जो फर्राटा भरा था, उसकी कई वजहें थीं जैसे काफी समय से दबी हुई मांग निकला, खुदरा ऋण की मांग बढ़ना, सार्वजनिक पूंजीगत व्यय पर जोर और निर्यात में तेजी आना। इनमें से कई वजहें अब खत्म हो रही हैं।

शहरी खपत कमजोर पड़ने का खटका है क्योंकि महामारी के बाद उत्पन्न मांग धीरे-धीरे कमजोर हो रही है, मौद्रिक नीति सख्त है और नॉमिनल आय वृद्धि भी धीमी है। रिजर्व बैंक की सख्ती के कारण ऋण वृद्धि की रफ्तार घटी है और क्रेडिट कार्ड का बकाया तथा पर्सनल लोन चुकाने में चूक यानी डीफॉल्ट के मामले बढ़े हैं। संभव है बैंक जोखिम से बचना चाहें। ऐसे में उपभोक्ता वस्तुओं के लिए ऋण की मांग में कमी आएगी। माइक्रोफाइनैंस कंपनियों पर सख्ती के कारण लोग एक कर्ज चुकाने के लिए चार नए कर्ज नहीं ले सकेंगे। कुल मिलाकर ऋण की शर्तें सख्त हैं और परिवारों पर कर्ज का चक्र 2025 में खपत मांग पर असर डालेगा।

चीन की अतिरिक्त क्षमता भी भारत के लिए खतरा है। पश्चिम से शुल्क लगने पर चीन नए बाजारों में निर्यात करने की कोशिश करेगा, जिनमें भारत भी शामिल होगा। भारत पहले ही चीन से आ रहे सस्ते आयात से जूझ रहा है, जो सस्ती उपभोक्ता वस्तुओं, धातु तथा रसायन, हरित तकनीक वाले उत्पादों से लेकर महंगे उत्पादों तक फैला हुआ है। इसके कई आर्थिक प्रभाव हो रहे हैं, जिनमें बिगड़ता व्यापार संतुलन, कंपनियों का घटता मुनाफा मार्जिन और देश में कम उत्पादन शामिल हैं। अनिश्चितता भरे वैश्विक वातावरण, कमजोर देसी मांग, महंगे कर्ज और चीन से आते आयात का प्रभाव निजी पूंजीगत व्यय पर पड़ सकता है।

बेशक कुछ सकारात्मक प्रभाव भी हैं। मॉनसून अच्छा रहने से ग्रामीण मांग बढ़ सकती है, सरकार की पूंजीगत व्यय योजनाएं भी तेजी से आगे बढ़ सकती हैं। सेवा निर्यात में इजाफा हो रहा है और व्यापार में आ रहे बदलाव से भारत को फायदा भी मिल सकता है। कुल मिलाकर हमें यही लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी के चक्र में प्रवेश कर गई है। लगता है कि जीडीपी वृद्धि 2025 में घटकर 5.8 फीसदी रह जाएगी, जो 2024 में 6.5 फीसदी थी।

मुद्रास्फीति चुनौती नहीं: देश और दुनिया की बात करें तो मांग और जिंस के कारण मुद्रास्फीति कम ही रहेगी। खाद्य कीमतों के कारण बढ़ी महंगाई कम होनी चाहिए क्योंकि उत्पादन जमकर हुआ है। उत्पादन का अंतर घटने और वेतन में औसत वृद्धि के कारण मुख्य मुद्रास्फीति में कमी आनी चाहिए। मुद्रास्फीति में वृद्धि का जोखिम रुपये में और गिरावट आने तथा मौसम में अप्रत्याशित बदलाव के कारण खाद्य कीमतें बढ़ने से ही सकता है। भारतीय रिजर्व बैंक का अनुमान है कि रुपया पांच फीसदी गिरा तो समग्र खुदरा मुद्रास्फीति 0.35 फीसदी बढ़ जाएगी।

मुद्रा अवमूल्यन का जोखिम: वस्तु निर्यात को धीमी पड़ती वैश्विक अर्थव्यवस्था की चुनौती झेलनी पड़ सकती है। किंतु मजबूत सेवा व्यापार, विदेश से भारी मात्रा में धन आने और तेल कीमतें ठहरी रहने के कारण चालू खाते का घाटा जीडीपी के 1.5 फीसदी पर रह सकता है, जिसे संभाला जा सकता है। परंतु फेड की सख्ती और दुनिया भर में नीतिगत अनिश्चितता के कारण विदेशी पूंजी प्रवाह सुस्त रह सकता है।

इस वृहद परिदृश्य का नीति पर क्या असर होगा? पहला, रुझान से धीमी वृद्धि के कारण देसी मांग को स्थिर करने के लिए उचित नीतिगत हस्तक्षेप की बात उठती है। मगर वृहद वित्तीय स्थिरता की खातिर हमें नीतियों का सही संतुलन रखना होगा।

दूसरा, खजाने को मजबूत करने की दिशा में भरोसेमंद कदम निवेशकों को आश्वस्त करेंगे। वित्त वर्ष 27 से घाटे के बजाय ऋण को लक्ष्य करने का इरादा पक्का है, इसलिए नीति निर्माताओं को स्पष्ट कर देना चाहिए कि इसके बाद भी राजकोषीय अनुशासन बनाए रखा जाएगा। चूंकि निकट भविष्य में निजी पूंजीगत व्यय बढ़ने की संभावना नहीं है, इसलिए इन कदमों के साथ ही सरकारी पूंजीगत व्यय भी बरकरार रखा जाए और जल्द क्रियान्वयन लिए राज्यों की क्षमता में कमी भी दूर की जाए।

तीसरा, रिजर्व बैंक को मुद्रा नीति दुरुस्त करनी चाहिए। रुपये का अवमूल्यन रोकने के लिए उसने अभी तक जमकर हस्तक्षेप किया है। मगर इससे बैंकिंग प्रणाली की तरलता कम हो रही है, जो बढ़ते व्यापार घाटे के बीच नुकसानदेह साबित हो रही है। रिजर्व बैंक रुपये को कुछ गिरने दे क्योंकि इससे स्थिरता आएगी और आयात कम होगा। इससे कुछ मुद्रास्फीति दिख सकती है मगर ऐसा नहीं किया तो वृद्धि धीमी होगी।

चौथा, कई लोग मानते हैं कि दरों में कटौती से मुद्रा और कमजोर हो जाएगी। मगर भारत व्यापक पैमाने पर वृद्धि पूंजी को आकर्षित करता है और वृद्धि टिकाऊ नहीं हुई तो बाहरी क्षेत्र पर दबाव जारी रह सकता है। रिजर्व बैंक को तरलता बढ़ाने के मामले में भी अधिक सक्रिय रहना चाहिए।

पांचवां, नए नियामकीय दिशानिर्देशों जैसे तरलता कवरेज अनुपात मानक के मसौदे का क्रियान्वयन चरणबद्ध तरीके से होना चाहिए। ऋण वृद्धि सुस्त पड़ रही है, इसलियए वृहद दूरदर्शी नीतियां चक्र पर निर्भर नहीं होनी चाहिए।

छठा, मध्यम अवधि के नजरिये से देखें तो आपूर्ति श्रृंखला को नए स्थानों पर ले जाने का काम ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भी जारी रहेगा। अगर अमेरिका वियतनाम और मेक्सिको जैसे तीसरे देश के रास्ते व्यापार की चीन की कोशिशों पर लगाम कसता है तो भारत के लिए एक और अवसर बन सकता है। मगर भारत को आयातित मध्यवर्ती वस्तुओं पर अपनी निर्भरता कम करनी होगी और देश के भीतर मूल्यवर्द्धन बढ़ाना होगा। इसके लिए स्थानीय आपूर्ति श्रृंखला तैयार करनी होगी। आगे की राह उथलपुथल भरी हो सकती है लेकिन सहज हालात रहें तो कौशल कभी नहीं निखरता।

(लेखिका नोमूरा में मुख्य अर्थशास्त्री हैं)

First Published - December 25, 2024 | 10:55 PM IST

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