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‘भारत की ट्रैजडी, दूरदर्शिता की कमी’

Last Updated- December 05, 2022 | 5:12 PM IST

क्या आप आज गुडग़ांव को एक जंगल के तौर पर सोच सकते हैं? नहीं न, लेकिन आज से तीन दशक पहले तक वह जंगल ही हुआ करता था।


फिर एक इंसान आया, जिसने इस इलाके की तस्वीर और तकदीर ही बदल डाली। वह शख्स है, देश की सबसे बड़ी रीयल एस्टेट कंपनी डीएलएफ लिमिटेड का चैयरमैन कुशल पाल सिंह यानी के.पी. सिंह। लेकिन आज उनके उसी गुड़गांव की शक्ल बदनुमी हो चुकी है। यह शहर आज हर तरफ से संकट में घिरा है। पानी की समस्या हो या बिजली की या परिवहन का या फिर नालियों की दिक्कत, यह लोगों का कम और मुश्किलों का शहर ज्यादा बन चुका है।


आखिर कमी कहां रह गई गुड़गांव के विकास में?  और क्या यह सिर्फ गुड़गांव की ही समस्या है? क्यों आज देश का कोई भी शहर अंतरराष्ट्रीय स्तर का नहीं बन पाया है? इन सवालों का क्या जवाब है? बिजनेस स्टैंडर्ड की वंदना गोम्बर ने सिंह से इन्हीं सवालों पर चर्चा करने के लिए मुलाकात की। यह रहा देश के सबसे बड़ी रीयल एस्टेट कंपनी के इस सबसे बड़े अधिकारी का जवाब :


गलतियों का कारवां


हमारे मुल्क के टॉउन प्लानरों के बीच दूरदर्शिता का घोर अभाव रहा है। भारत के साथ यही ट्रैजडी रही है। किसी भी शहर की प्लानिंग हमेशा एक डेवलपर की नजर से करनी चाहिए। इस काम में किसी नौकरशाह या टॉउन प्लानरों के नजरिए का शामिल रहना ठीक नहीं है। आखिर लोग-बाग आज भी ल्यूटंस दिल्ली या चंडीगढ़ की तारीफ क्यों करते हैं। यह नतीजा है टॉउन प्लानरों-डेवलपरों की बड़ी सोच का।


आप जब भी किसी शहर के लिए किसी चीज की कल्पना करते हैं, तो आप बस 40 या 50 साल के लिए नही सोच सकते। आपको अगले दो-तीन सौ सालों के लिए सोचना होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि जब शहर फैलता है, तो उसके बुनियादी ढांचे को उस विकास का बोझ उठाना ही पड़ता। अब दिल्ली-गुड़गांव एक्सप्रेस वे पर लगने वाले जाम को ही ले लीजिए। यह किस बात की ओर इशारा करता है?


इशारा साफ है कि प्लानिंग करने वाले परिस्थितियों को नहीं समझ पाए। गुड़गांव की अपनी सड़कों पर भी अक्सर जाम लगा रहता है। यह तो आलम है, जब इस इलाके का बस 25-30  फीसदी ही विकास हुआ है। ज्यादातर विकास अब भी कुछ खास इलाकों में सिमटा हुआ है। जरा सोचिए, बाकी के इलाकों का विकास कितनी भीड़ अपने साथ लेकर आएगा।


कंपनियों से कैसी नाराजगी


आज देश के विकास के हरेक पहलू में प्राइवेट कंपनियों की साफ दखल है, सिर्फ एक रीयल एस्टेट सेक्टर को छोड़कर। 1950 के दशक में ही शहरी विकास सेक्टर का राष्ट्रीयकरण करके इसे प्राइवेट कंपनियों के लिए नो इंट्री जोन बना दिया गया। इसके पीछे सोच काफी अच्छी थी। सरकार को जल्दबाजी में किए गए असंतुलित विकास की चिंता थी। सरकार ने कीमतों को आम आदमी की पहुंच में रखने और संतुलित व सोच-समझकर किए गए विकास के लिए यह कदम उठाया।


दुर्भाग्य से हुआ इसके ठीक उलट। सोच-समझ कर विकास नहीं हुआ और रीयल एस्टेट बाजार में कीमतें आज आसमान छू रही हैं। इसकी वजह यह है कि प्रोफेशन डेवलपरों की कमी को पूरा किया गैरकानूनी रूप से इधर-उधर मकान बनाने वाले बिल्डरों ने। आज मुल्क के किसी भी शहर की मिसाल ले लीजिए। आपको वहां ऐसा विकास तो मिलेगा ही, जिसे सरकारी उनमति नहीं मिली है। यह बिल्डिंगें सारे नियम कायदों को ताक पर रख कर बनाई गई हैं।


इन बिल्डरों की पहुंच सत्ता के गलियारों तक है। इसका नतीजा आज हमें देश के शहरों का बिगड़ा रूप है। अगर आप एक गलती करते हैं और उस गलती के कारण बिल्डिंग्स बन जाती हैं, तो आप उन्हें रातों-रात नहीं गिरा सकते। वजह है, उनके साथ जुड़ी हुई मजबूत भावनाएं इसकी वजह है।


वहीं, अगर बिल्डिंग्स बन चुकी हैं, तो आप सड़कों को कैसे चौड़ा करेंगे? नए बुनियादी ढांचे के बारे में सोच भी कैसे पाएंगे आप? यह आज केवल कानूनी समस्या भर बनकर नहीं रह गई है, इसने तो अब राजनैतिक समस्या की शक्ल अख्तियार कर ली है। शहरी विकास में की गई गलतियों की सजा हमारी और आपकी कई पुस्तों को चुकानी पड़ती है। 


सरकार सिर्फ राज करे


मेरे मुताबिक सरकार और पब्लिक सेक्टर का काम केवल रेगुलेटर, प्रोत्साहक और कानून लागू करने वाली संस्था का होना चाहिए। आज तो वह डेवलपर भी बने बैठे हैं। इसीलिए तो विकास के नाम पर हर तरफ रायता फैल गया है।


प्लानिंग आज हकीकत से कोसों दूर हैं। सरकार को करना यह चाहिए कि वह कहां विकास करना है, इसके बारे में बता दे और सारा काम प्राइवेट सेक्टर के हवाले कर देना चाहिए। साथ ही, जो प्लानिंग हुई है, उसमें किसी प्रकार के छेड़छाड़ की इजाजत नहीं मिली चाहिए। फिर चाहे वह बदलाव केवल इंजों का ही क्यों न हो।


बड़ा है, तो बेहतर है


अगर आगे बढ़ना है, तो इस मंत्र को गांठ बांध लीजिए। साथ ही, जरूरत है लोगों की सोच को भी बदलने की। हमें कमियों के बारे सोचने और छोटा सोचने की आदते से जल्द से जल्द छुटकारा पाना होगा। इस बारे में सेज एक सही कदम है, लेकिन इसमें भी हमें किसी भी प्रकार की सीमा को हटाना चाहिए। मेरी मानें तो सरकार को और भी ज्यादा जमीन लेने में कंपनियों की मदद करनी है।


मिसाल के तौर पर चीन को ही ले लीजिए। उनके सेज पर नजर तो डालें। शहरी विकास के बारे में भी सरकार को विकास के लिए सेज मॉडल को अपनाना चाहिए। जरा प्राइवेट डेवलपरों को सरकार द्वारा तय इलाके का विकास करने तो दीजिए। उन्हें हाइयर फ्लोर एरिया रेसियो के आधार प्लानिंग तो करने दीजिए। अहम बात यह है कि जमीन का पूरा उपयोग हो। 


अगर मैं मंत्री होता तो…


अगर मैं रीयल एस्टेट मंत्री होता तो सबसे मौजूदा डेवलपमेंट एजेंसियों (जैसे डीडीए, जीडीए, एलडीए आदि) के पूरे सेटअप को ही बदल देता। उनका काम केवल नियमन के दायरे तक होना चाहिए। उनका काम बिल्डर या डेवलपर का नहीं होना चाहिए। विकास का काम तो कुछ खास डेवलपरों के कंधों पर सौंप देना चाहिए। उन डेवलपरों का चुनाव बोली के आधार पर किया जा सकता है।


यह उनकी जिम्मेदारी होगी कि वह सरकारी मानकों के आधार उस इलाके का पूरा विकास करें। मैं तो स्लम डेवलपमेंट के एक रिफाइनड वर्जन के आधार पर मुंबई का विकास कर सकता हूं। उस मॉडल में यह जरूरी हो कि गैर कानूनी निर्माण करते हुए पाए जाने पर किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है।

First Published - March 28, 2008 | 12:24 AM IST

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