विदेशी मुद्रा से संबंधित डेरिवेटिव्स और उनकी अकाउंटिंग के मुद्दे पर भारतीय चार्टर्ड अकाउंटेंट इंस्टिटयूट (आईसीएआई) को काफी पहले ही नींद से जग जाना चाहिए था।
इस सिलसिलें में नया अकाउंटिंग स्टैंडर्ड पिछले साल दिसंबर में जारी हुआ था। इसे अप्रैल 2009 से स्वैच्छिक तौर पर लागू करने करने की बात है और इसके 2 साल के बाद इसे कानूनी रूप से अनिवार्य बनाया जाना है।दरअसल, यह समस्या उस वक्त उभरकर आई जब यह साफ हुआ कि कंपनियां डेरिवेटिव के मामले में काफी मोटी रकम गवां चुकी हैं।
कइयों का नुकसान तो इतना ज्यादा था कि उनके कई वर्षों की कमाई चली गई और कुछ मामलों में तो कंपनियों की कुल पूंजी ही नष्ट हो गई।इस मामले से संबंधित अकाउंटिंग के मौजूदा नियम (जो कंपनियों से इस तरह के नुकसान का पूरा ब्योरा देने को नहीं कहता) की वजह से कंपनियों ने इस समस्या को छुपाने की कोशिश की और नुकसान का पूरा ब्योरा नहीं दिया। इस वजह से शेयरधारकों तक कंपनियों की असली तस्वीर नहीं पहुंच पाई।
इसमें कोई शक नहीं था कि हालात गंभीर थे और यही वजह है कि आईसीएआई को नया दिशानिर्देश जारी करना पड़ा है। इसमें आईसीएआई ने कंपनियों से कहा है कि वे जितनी जल्दी हो सके नए अकाउंटिंग स्टैंडर्ड का पालन करें ताकि शेयरधारकों को सही तस्वीर का अंदाजा मिल सके।
समस्या यह है कि आईसीएआई का यह दिशानिर्देश वीक-एंड पर आया है, जब ज्यादातर कंपनियों का वित्त वर्ष खत्म होने में महज 1 दिन बचा था। इससे ज्यादातर कंपनियों में हाय-तौबा मच जाएगा और इस तरह का कदम निश्चित तौर पर नहीं उठाया जाना चाहिए था।
नए अकाउंटिंग दिशानिर्देश का मतलब यह कतई नहीं है कि कंपनियों द्वारा मार्च में जारी किए जाने वाला लेखाजोखा हर तरह की सचाई से पर्दा उठा देगा। कंपनियां अब भी शेयरधारकों को अंधेरे में रख सकती हैं। विदेशी मुद्रा से संबंधित ज्यादातर डेरिवेटिव प्रॉडक्ट की मैच्योरिटी डेट आने वाले दिनों में होती हैं और कंपनियां यह बात कानूनी तर्क के साथ कह सकती हैं कि जब तक वह तारीख नहीं आ जाती, यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें नुकसान हुआ है।
कुछ कंपनियां तो पहले ही वैसे बैंकों के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुकी हैं, जिन बैंकों ने उन्हें इस तरह के डेरिवेटिव प्रॉडक्ट बेचे थे। ऐसी कंपनियां कोर्ट में मामला होने की दुहाई देकर भी बच सकती हैं। कंपनियां हर संभव यह कोशिश करेंगी कि वे हर उस रास्ते का तलाश करें जिसके जरिये बचने की गुंजाइश हो, क्योंकि नए अकाउंटिंग नियमों के जरिये दिए जाने वाले डिस्क्लोजर की वजह से दूसरे बैंकरों और सप्लायरों से भी उनके रिश्ते खराब होने के खतरे हैं।