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Manipur Violence: मणिपुर संकट को लेकर क्या हो प्रतिक्रिया ?

मणिपुर ऐसी अराजकता में फंसा हुआ है जैसी देश के अन्य हिस्सों में दशकों से नहीं दिखी है।

Last Updated- June 18, 2023 | 11:46 PM IST

मणिपुर ऐसी अराजकता का शिकार हो गया जो देश के किसी अन्य हिस्से में दशकों से देखने को नहीं मिली है। अगर आप यह परखना चाहते हैं कि देश के सामने आज सबसे बड़ा तात्कालिक आंतरिक या बाहरी सुरक्षा खतरा क्या है तो कृपया उसकी तलाश टेलीविजन समाचार चैनलों पर न कीजिए। क्योंकि तब आप भ्रमित हो सकते हैं और आपको लग सकता है कि यह पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों की हिंसा है। अगर एक देशभक्त भारतीय के रूप में आपको जरूरी लगे तो थोड़ा और पूर्व में देखिए और भारत के नक्शे पर मणिपुर को तलाशिए।

मणिपुर ऐसी अराजकता में फंसा हुआ है जैसी देश के अन्य हिस्सों में दशकों से नहीं दिखी है। यहां तक कि मुझ जैसा व्यक्ति जिसने चार दशकों तक देश में कई जगह अशांति और आतंकवाद देखा हो उसके लिए भी मणिपुर की तस्वीरें असाधारण हैं।

पहले भी एक समुदाय दूसरे समुदाय के खिलाफ लड़ा है और अतीत में भी राज्य सरकारों ने अपना नियंत्रण और प्रतिष्ठा गंवाई है। यहां तक कि कई बार ताकतवर केंद्र सरकार भी हालात संभालने में मुश्किलों से दो चार हुई। लेकिन लगातार छह सप्ताह तक और वह भी 2023 में?

सन 1950 (नगालैंड), 1960 (मिजोरम) और सन 1980 के दशक (पंजाब और असम) में उत्पन्न चुनौतियां अलग थीं लेकिन सन 2023 में केंद्र और राज्य में भारतीय जनता पार्टी ने जिस प्रकार का राजनीतिक नियंत्रण बना रखा है और जिस तरह का संचार, लॉजिस्टिक्स, सैन्य और अर्द्धसैनिक शक्ति उपलब्ध है तब यह सब क्यों?

अतीत वर्तमान को दिशा दिखाने वाला नहीं होता है, खासकर तब जबकि बात राज्य की शक्ति के प्रयोग की हो। बुनियादी बात यह है कि सन 1980 के दशक के आरंभिक वर्षों में जब वहां नगा, मिजो और मणिपुरी विद्रोह सक्रिय थे और असम में अराजकता का माहौल था, तब एक पत्रकार के रूप में मैंने नगालैंड में मोकॉकचंग में टेलीग्राफ के कार्यालय में मोर्स मशीन से दो रिपोर्ट भेजी थीं। उस समय संचार बहुत कमजोर या लगभग अनुपस्थित था और इस बात ने इस अशांत क्षेत्र में सरकार के काम को काफी कठिन बना दिया था।

पत्रकारों के लिए तो काम करना लगभग असंभव था। आज ऐसी कोई वजह नहीं है। क्या मणिपुर के आज के हालात की तुलना अतीत के किसी समय से हो सकती है? हम कुछ घटनाओं पर नजर डालकर यह परीक्षण कर सकते हैं कि सरकार ने उस वक्त कैसे प्रतिक्रिया दी थी। पूर्वोत्तर में तथा देश के अन्य हिस्सों में ऐसी घटनाएं पहले भी हुई हैं जहां एक समुदाय ने दूसरे समुदाय को निशाना बनाया हो।

असम में बांग्ला भाषियों और ज्यादा विशिष्ट होकर बात करें तो बांग्ला भाषी मुस्लिमों को बहुत हिंसात्मक अंदाज में निशाना बनाया गया। परंतु सरकार ने तत्परता से कार्रवाई की और कड़े कदम उठाकर अपनी प्रभुता स्थापित की।

त्रिपुरा में हमने देखा कि आदिवासी अल्पसंख्यकों (आबादी के 25 फीसदी से भी कम) ने बहुसंख्यक बंगालियों की चुन-चुनकर हत्याएं कीं। इनमें सबसे पहली और सबसे कुख्यात घटना थी 8 जून, 1980 को अगरतला के निकट मंडाई नरसंहार जिसमें 400 से 600 के बीच ग्रामीण मारे गए थे। उससे भी बहुत तेजी से निपटा गया था।

आखिर में हम जम्मू कश्मीर तथा पंजाब पर नजर डालते हैं। सन 1990 में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री थे तब कुछ महीनों के लिए केंद्र और राज्य दोनों ने इस हिस्से पर नियंत्रण गंवा दिया था। इसके बावजूद सरकार ने हमेशा वापसी की। उस समय भी वहां मौजूदा मणिपुर जैसे हालात नहीं बने। पुलिस शस्त्रागार से हजारों की तादाद में हथियार बिना प्रतिरोध के लुटे नहीं।

मणिपुर में लुटेरे इतने बेफिक्र हैं कि वे अपने आधार कार्ड छोड़कर जा रहे हैं ताकि कोई जांच होने पर ड्यूटी पर मौजूद पुलिस जवान ‘मदद’ कर सकें। पूर्वोत्तर में शायद सबसे गंभीर खतरा तब उत्पन्न हुआ था जब इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने कुछ ही सप्ताह बीते थे। तब उन्हें ताकतवर नहीं माना जाता था। भारत केवल 19 महीनों के अंतराल में पंडित नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के रूप में दो प्रधानमंत्रियों की मौत देख चुका था।

मिजो विद्रोहियों ने ‘संप्रभु मिजोरम’ की घोषणा कर दी थी जबकि उस वक्त वह असम का एक जिला था जिसका नाम लुशाई हिल्स था। मिजो विद्रोही डिप्टी कमिश्नर कार्यालय और असम राइफल्स बटालियन के स्थानीय मुख्यालय पर कब्जा करने ही वाले थे। इंदिरा गांधी ने भारतीय वायु सेना को हवाई हमले और बमबारी करने का आदेश दिया। आज भी उस कदम को विवादास्पद माना जाता है।

परंतु इसने विद्रोह को इस हद तक दबा दिया कि सेना का पहला दस्ता 200 किलोमीटर दूर मैदानी इलाकों से आसानी से वहां तक पहुंच सका। अब बात करते हैं सन 1980 के दशक के आरंभ के पंजाब की। हमने उदाहरणों की इस सूची में पंजाब को अंतिम स्थान इसलिए दिया कि शायद आगे की बातों की राह यहीं से निकलेगी।

आतंकियों द्वारा हत्याओं का पहला सिलसिला सन 1981-83 में भिंडरांवाले के वर्षों में देखने को मिला। कांग्रेस पार्टी केंद्र और राज्य में सत्ता में वापस आ गई थी। दरबारा सिंह उसके मुख्यमंत्री थे। पंजाब केसरी नामक प्रमुख अखबार के मालिक संपादक लाला जगत नारायण और ए एस अटवाल नामक पुलिस विभाग के डीआईजी के रूप में हिंदुओं की हत्याओं ने देश को हिला दिया था। तब इंदिरा गांधी ने क्या किया?

उन्होंने राष्ट्रपति शासन लगाकर अपनी ही पार्टी की सरकार और मुख्यमंत्री को हटा दिया। इतिहास बताता है कि इससे पंजाब की चुनौतियां समाप्त नहीं हुईं लेकिन इससे यह पता चला कि सरकार संकट और उससे निपटने में शासन की नाकामी को स्वीकार कर रही है।

अगर हर नए संकट, गलत कदम या झटके का जवाब यही है कि ऐसा पहले भी हो चुका है और खासकर कांग्रेस के शासनकाल में ऐसा हो चुका है तो हमें इतिहास में इसके उदाहरणों को भी देखना होगा। दिल्ली से महज 220 किलोमीटर दूर अपनी ही पूर्ण बहुमत की सरकार को राष्ट्रपति शासन लगाकर हटाने वाली सरकार कमजोर तो नहीं थी। उस समय इंदिरा गांधी आपातकाल के बाद शिखर पर थीं। उनके पास वह बहुमत था जो आज भाजपा के पास भी नहीं है।

हम समझ सकते हैं कि मौजूदा सरकार इंदिरा गांधी की तरह कदम उठाने से या उनसे सबक लेने से हिचकिचा क्यों रही है लेकिन ईमानदारी से देखें तो समस्या के मूल में राज्य सरकार है, वह इसका हल नहीं है।

कोई पक्ष उस पर भरोसा नहीं करता, उसके शीर्ष काम करने वाले लोग अदृश्य हैं और उसकी सबसे अहम जवाबदेही यानी कानून व्यवस्था बरकरार रखने का काम बाहर से भेजे गए सलाहकार और अधिकारी कर रहे हैं। इसके अलावा इसका निरंतर सत्ता में बने रहना दोनों पक्षों को भड़का रहा है। कुकी इसे बहुसंख्यक एजेंडे के हिस्से के रूप में देखते हैं मैतेई इसे अपना संरक्षण कर पाने में अक्षम मानते हैं जबकि उन्होंने चुनाव में उसका जमकर समर्थन किया था।

हर संकट और उससे निपटने के तरीके को लेकर अतीत में नजीर मौजूद है लेकिन कई ऐसे कारक हैं जो मणिपुर के मौजूदा संकट को असाधारण बनाते हैं। हम ऐसी तीन वजहों की बात करेंगे:

ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जहां एक समुदाय ने धर्म, जातीयता या भाषा के आधार पर दूसरे समुदाय पर हमला किया। हमने दो समुदायों को खूब लड़ते हुए भी देखा है। इतिहास में यह पहला मौका है जब दो समुदाय बड़ी तादाद में और स्वचालित हथियारों से लैस होकर लड़ रहे हैं। उनके पास लंबी दूरी तक मार करने वाली स्नाइपर राइफल तक हैं जिनसे हमारे अधिकांश सशस्त्र बल भी जलन कर सकते हैं। गृहयुद्ध भला और कैसा होता है।

यह पहला मौका है जब अराजकता छह सप्ताह से जारी है और सरकार को समुचित राजनीतिक प्रतिक्रिया देने में नाकाम रही है। इस इलाके में और जवानों की तैनाती, वार्ताकारों की नियुक्ति शांति कायम करने के लिए समिति की स्थापना आदि सभी प्रयास नाकाम रहे हैं। ये फौरी उपाय हैं जो समस्या को हल करने में सक्षम नहीं।

एक पीड़ित समुदाय के सामूहिक पलायन के अनेक मामले हैं। उदाहरण के लिए कश्मीरी पंडित। मणिपुर से दोनों प्रमुख समुदाय भाग रहे हैं। दरअसल यह पहली बार हो रहा है कि जो भी भाग सकता है, वह भाग रहा है।

केंद्र सशक्त भी है और संविधान के अनुच्छेद 355 के अधीन हर राज्य को बाहरी और आंतरिक खतरे से बचाने की जिम्मेदारी भी उसकी है। अगर राज्य सरकार केंद्र की तमाम मदद के बावजूद नाकाम रहता है तो उसे जाना ही चाहिए। उसे कोई शर्म नहीं बची है। याद रहे इंदिरा गांधी ऐसा कर चुकी थीं।

मुश्किल से गुजर रहे मणिपुर में हालात एकदम से ठीक नहीं होंगे। यह एक लंबी प्रक्रिया का हिस्सा होगा। परंतु एक शुरुआत तो होगी और दोनों पक्ष इसे देखेंगे। इससे दोनों पक्षों की इस साझा भावना का भी निराकरण होगा कि मणिपुर जल रहा है लेकिन किसी को परवाह नहीं है।

First Published - June 18, 2023 | 11:46 PM IST

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