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खेती बाड़ी: भेड़-बकरियों की उत्पादकता का आधुनिकीकरण

मुर्गे, भैंसे और सुअर के मांस की तुलना में कीमतें कहीं अधिक होने के बावजूद देश में मटन (भेड़ का मांस) और शेवॉन (बकरी का मांस) दोनों की खपत भी लगातार बढ़ रही है।

Last Updated- March 20, 2024 | 9:38 PM IST
भेड़-बकरियों की उत्पादकता का आधुनिकीकरण , Sheep and goats need meaty ideas

भारत भले ही भेड़-बकरी के मांस का दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है, लेकिन पशुधन से जुड़े विकास कार्यक्रमों में इन छोटे लेकिन अत्यधिक मूल्यवान जानवरों की ज्यादातर उपेक्षा की जाती है। सरकारी अनुमानों से पता चलता है कि वर्ष 2022-23 में संयुक्त अरब अमीरात, कतर, कुवैत, मालदीव और ओमान जैसे देशों को भेड़ और बकरी का लगभग 9,600 टन मांस निर्यात किया गया था, जिसकी कीमत लगभग 537.2 करोड़ रुपये (6.69 करोड़ डॉलर) है।

मुर्गे, भैंसे और सुअर के मांस की तुलना में कीमतें कहीं अधिक होने के बावजूद देश में मटन (भेड़ का मांस) और शेवॉन (बकरी का मांस) दोनों की खपत भी लगातार बढ़ रही है। वर्ष 2022-23 में 14.1 लाख टन से अधिक शेवॉन और 10.2 लाख टन मटन के आधार पर भेड़ और बकरी के मांस क्षेत्र का शुद्ध मूल्य लगभग 1.38 लाख करोड़ रुपये आंका गया था।

फिर भी, भेड़ और बकरियों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए अन्य मांस उत्पादक जानवरों के समान ध्यान नहीं दिया जाता है, जिन्हें तकनीकी रूप से ‘छोटे जुगाली करने वाले जानवर’ कहा जाता है। इनके उत्पादों की वैल्यू चेन के आधुनिकीकरण और विकास के लिए न तो अधिक सार्वजनिक और न ही निजी निवेश हुए हैं।

नतीजतन, भेड़ और बकरियों को ज्यादातर गरीब और भूमिहीन लोग मवेशी के तौर पर या खानाबदोश चरवाहे, चरागाहों और सामुदायिक तौर पर चराने लायक जमीन की तलाश में जानवरों के झुंड को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हुए पालते हैं। इन्हें ज्यादातर झाड़ीदार वनस्पति या काटे गए पेड़ों की पत्तियां खिलाई जाती हैं और इसके साथ कोई पूरक चारा भी नहीं होता है। भारत में डेरी और मुर्गी फार्मों या सुअर फार्मों की तर्ज पर भेड़ और बकरी के व्यावसायिक फार्म की कोई महत्त्वपूर्ण संख्या नहीं है। हालांकि भारत के पारिस्थितिकी तंत्र में इन जुगाली करने वाले छोटे जानवरों के कई फायदे हैं।

ये जानवर बहुत तेजी से बच्चे पैदा करते हैं और अपनी उच्च प्रजनन क्षमता (कम अंतराल में दो या अधिक बछड़ों को जन्म देने) के कारण इनके शरीर में चारा लगता भी है। ये जानवर शुष्क, अर्ध-शुष्क और पहाड़ी क्षेत्रों में विशेष रूप से उपयोगी साबित हुए हैं, जहां फसलों की खेती और डेरी से जुड़ी चीजें संभव नहीं है। इसके अलावा, ये मांस, दूध, ऊन और उनकी खाल जैसे आर्थिक महत्त्व के कई उत्पादों का महत्त्वपूर्ण माध्यम भी बनते हैं। सबसे उत्तम और सबसे अधिक मूल्य वाली ऊन, पश्मीना दुर्लभ पश्मीना नस्ल की बकरियों से मिलती है जो हिमालय की ऊंची चोटियों में रहती हैं। पश्मीना इन बकरियों के बालों के नीचे उगने वाला मुलायम फर होता है।

इसके अलावा इन जानवरों के रख-रखाव में अपेक्षाकृत कम खर्च होता है जबकि इनसे बनने वाले उत्पादों की बिक्री से होने वाला मुनाफा आमतौर पर काफी अधिक होता है और मुख्य रूप से मांग आपूर्ति से कहीं अधिक है। हालांकि, भेड़ और बकरी पालन से जुड़ा क्षेत्र अपनी पूरी आर्थिक क्षमता का दोहन करने में कई बाधाओं में उलझा हुआ है। इन जानवरों की उत्पादकता को उन्नत करने के लिए बेहतर आकलन वाले और स्पष्ट रूप से केंद्रित प्रजनन नीतियों और कार्यक्रमों का अभाव सबसे उल्लेखनीय है। इसके अलावा स्वास्थ्य कवर का अभाव, खराब बीमा कवरेज, पशु विशेष परिवहन वाहनों की अनुपलब्धता और जीवित जानवरों के लिए उचित बाजारों की कमी जैसी बाधाएं भी शामिल हैं।

आमतौर पर भेड़-बकरियों को ज्यादातर बेहद गंदी जगहों में पारंपरिक कसाई की दुकानों में काटा जाता है। इस काम के लिए आधुनिक बूचड़खाने बेहद कम हैं। मटन और बकरी के मांस को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने और खुदरा बिक्री के दौरान सुरक्षित रखरखाव के लिए बेहद जरूरी माने जाने वाले शीतलन प्रणाली और रेफ्रिजरेशन की सुविधाएं आमतौर पर नहीं होती हैं।

इसके अलावा, भारत में भेड़ और बकरी के मांस का केवल 10 प्रतिशत ही मूल्य वर्धित उत्पादों में बदला जाता है जबकि इस लिहाज से वैश्विक औसत 60 प्रतिशत से अधिक है। इसकी प्रमुख वजह आयातित मांस-प्रसंस्करण तंत्र की उच्च लागत और उपभोक्ता जागरूकता तथा प्रचार अभियानों के माध्यम से प्रसंस्कृत मांस उत्पादों के लिए उपयुक्त बाजार के विकास का अभाव है।

यह बात अक्सर नजरअंदाज की जाती है कि प्रसंस्करण के जरिये दूध देने वाली बुजुर्ग बकरियों या ऊन के लिए पाली गईं भेड़ों के मांस भी उपयोगी हैं और इनका सदुपयोग किया जा सकता है। यह मांस आमतौर पर पकाने के लिहाज से बहुत सख्त हो जाता है ऐसे में इस मांस का कीमा बनाकर या कूटकर कई लोकप्रिय व्यंजन बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है, जैसे कि कीमा (कटा हुआ मांस), कबाब, कोफ्ते (मीट बॉल्स), कटलेट आदि।

चरागाहों और चराने के खुले क्षेत्रों में लगातार कमी और बिगड़ते हालात को देखते हुए, मांस उत्पादन बढ़ाने की किसी भी रणनीति में पशुओं की संख्या बढ़ाने के बजाय उनकी उत्पादकता बढ़ाने पर ध्यान देना होगा। यह देसी भेड़ों और बकरियों में आनुवांशिक सुधार के माध्यम से किया जा सकता है, जिनका संकरण उन विदेशी पशुओं के साथ किया जा सकता है जिनमें ये वांछित लक्षण पाए जाते हैं। इसके लिए बड़े पैमाने पर कृत्रिम गर्भाधान आदर्श तरीका हो सकता है, जैसा कि डेरी पशुओं के मामले में किया गया है, लेकिन यह प्रचलन भेड़ों और बकरियों में बहुत सफल नहीं रहा है। इसलिए, अच्छी नस्ल के भेड़ों और बकरों को तैयार करना और उन्हें भेड़-बकरी पालने वाले स्थानीय समुदायों के लिए उपलब्ध कराना आवश्यक होगा।

हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय मांस अनुसंधान संस्थान ने हाल ही में एक नीति दस्तावेज पेश किया है जिसमें देश में एक आधुनिक और संगठित भेड़ और बकरे के मांस क्षेत्र विकसित करने के लिए कई सुझाव दिए गए हैं। इसमें स्टार्टअप, उत्पादक संगठनों और अन्य उद्यमियों को प्रोत्साहित करने की बात की गई है ताकि मांस आधारित वैल्यू चेन स्थापित की जा सके जिसमें जीवित जानवरों की खरीद, साफ-सुथरे माहौल में उन्हें काटे जाने, यांत्रिक प्रसंस्करण, उपयुक्त पैकेजिंग, रेफ्रिजरेटेड परिवहन और खुदरा दुकानों तक उत्पादों का सुरक्षित तरीके से वितरण शामिल हो। यह एक विवेकपूर्ण सलाह है जिस पर विचार करने की आवश्यकता है।

First Published - March 20, 2024 | 9:38 PM IST

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