सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) जैसी संस्थाएं वर्षों से बार-बार इस बात पर जोर दे रही हैं कि भूमिगत जल (ग्राउंड वॉटर) का इस्तेमाल करने के बदले कंपनियां किसी तरह का भुगतान नहीं करतीं।
यानी कंपनियां मुफ्त में ही ग्राउंड वॉटर का प्रयोग कर रही हैं। एक ऐसा देश जो पानी की समस्या से बेतरह परेशान है, वहां इस तरह की चीज गलत तो है ही, साथ ही एक मुद्दा कंपनियों द्वारा पानी के बेतरतीब इस्तेमाल से भी जुड़ा है।
देश के थर्मल पावर प्लांट प्रति 1,000 यूनिट बिजली पैदा करने पर 80 क्यूबिक मीटर पानी का इस्तेमाल करते हैं, जबकि विकसित देशों में यह आंकड़ा महज 10 क्यूबिक मीटर है। इसी तरह, कपड़ा कंपनियों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला पानी ग्लोबल मानकों के मुकाबले दोगुना है।
पल्प और पेपर यूनिटें ग्लोबल प्रैक्टिस के मुकाबले तिगुना पानी खर्च करती हैं। यह फेहरिस्त काफी लंबी है।यदि उद्योग जगत द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पानी की मात्रा देश में कुल खर्च होने वाले पानी के मुकाबले काफी कम होती, तो मामला इतना संजीदा नहीं होता। पर सीएसई के मुताबिक, उद्योग जगत द्वारा देश में उपलब्ध पानी के 35 फीसदी हिस्से का इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि सरकारी आंकड़े कहते हैं कि कुल उपलब्ध पानी के महज 6 से 8 फीसदी हिस्से का इस्तेमाल ही इंडस्ट्री द्वारा किया जाता है।हालात ऐसे हैं कि पानी के उपयोग के बदले इंडस्ट्री से चार्ज लिए जाएं। इंडस्ट्री को बचाने के लिए यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि चूंकि कृषि क्षेत्र द्वारा पानी के इस्तेमाल बदले इस क्षेत्र से नाम मात्र का चार्ज लिया जाता है, लिहाजा इंडस्ट्री के साथ भी यही सलूक होना चाहिए। दरअसल, किसानों द्वारा पानी के इस्तेमाल की सही मात्रा के हिसाब से उनसे भी पैसे लिए जाने चाहिए। अर्थशास्त्री कह चुके हैं कि किसानों से लिया जाने वाला मौजूदा वॉटर चार्ज इतना भी नहीं है कि इससे देश के सिंचाई तंत्र का रखरखाव तक सही तरीके से किया जा सके। पर यह भी सच है कि ज्यादातर किसानों की माली हालत अच्छी नहीं होती, लिहाजा उनके लिए सब्सिडी जैसी चीज का भी इंतजाम किया जाना चाहिए।पर उद्योग जगत के पक्ष में इस तरह का तर्क बेतुका कहा जाएगा। खासतौर पर ताजा पानी की प्रति व्यक्ति घटती उपलब्धता (जो 1951 में 5,177 क्यूबिक मीटर थी और 2001 में 1,820 क्यूबिक मीटर हो गई है और 2025 में शायद 1,340 क्यूबिक मीटर हो जाएगी) को देखते हुए यह सही वक्त है जब राज्यों को इन पहलुओं में सुधार की ओर ध्यान देना चाहिए। इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार की उस पहल को मिसाल के तौर पर लिया जा सकता है, जिसके तहत राज्य में सॉफ्ट ड्रिंक का निर्माण करने वाली कंपनियों द्वारा ग्राउंड वॉटर के इस्तेमाल को रेग्युलेट करने के लिए कदम बढ़ाया गया है। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले दिनों में राज्य सरकार इन कंपनियों से पानी के इस्तेमाल के बदले शुल्क वसूले।
सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) जैसी संस्थाएं वर्षों से बार-बार इस बात पर जोर दे रही हैं कि भूमिगत जल (ग्राउंड वॉटर) का इस्तेमाल करने के बदले कंपनियां किसी तरह का भुगतान नहीं करतीं। यानी कंपनियां मुफ्त में ही ग्राउंड वॉटर का प्रयोग कर रही हैं। एक ऐसा देश जो पानी की समस्या से बेतरह परेशान है, वहां इस तरह की चीज गलत तो है ही, साथ ही एक मुद्दा कंपनियों द्वारा पानी के बेतरतीब इस्तेमाल से भी जुड़ा है।देश के थर्मल पावर प्लांट प्रति 1,000 यूनिट बिजली पैदा करने पर 80 क्यूबिक मीटर पानी का इस्तेमाल करते हैं, जबकि विकसित देशों में यह आंकड़ा महज 10 क्यूबिक मीटर है। इसी तरह, कपड़ा कंपनियों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला पानी ग्लोबल मानकों के मुकाबले दोगुना है। पल्प और पेपर यूनिटें ग्लोबल प्रैक्टिस के मुकाबले तिगुना पानी खर्च करती हैं। यह फेहरिस्त काफी लंबी है।यदि उद्योग जगत द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पानी की मात्रा देश में कुल खर्च होने वाले पानी के मुकाबले काफी कम होती, तो मामला इतना संजीदा नहीं होता। पर सीएसई के मुताबिक, उद्योग जगत द्वारा देश में उपलब्ध पानी के 35 फीसदी हिस्से का इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि सरकारी आंकड़े कहते हैं कि कुल उपलब्ध पानी के महज 6 से 8 फीसदी हिस्से का इस्तेमाल ही इंडस्ट्री द्वारा किया जाता है।हालात ऐसे हैं कि पानी के उपयोग के बदले इंडस्ट्री से चार्ज लिए जाएं। इंडस्ट्री को बचाने के लिए यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि चूंकि कृषि क्षेत्र द्वारा पानी के इस्तेमाल बदले इस क्षेत्र से नाम मात्र का चार्ज लिया जाता है, लिहाजा इंडस्ट्री के साथ भी यही सलूक होना चाहिए। दरअसल, किसानों द्वारा पानी के इस्तेमाल की सही मात्रा के हिसाब से उनसे भी पैसे लिए जाने चाहिए। अर्थशास्त्री कह चुके हैं कि किसानों से लिया जाने वाला मौजूदा वॉटर चार्ज इतना भी नहीं है कि इससे देश के सिंचाई तंत्र का रखरखाव तक सही तरीके से किया जा सके। पर यह भी सच है कि ज्यादातर किसानों की माली हालत अच्छी नहीं होती, लिहाजा उनके लिए सब्सिडी जैसी चीज का भी इंतजाम किया जाना चाहिए।पर उद्योग जगत के पक्ष में इस तरह का तर्क बेतुका कहा जाएगा। खासतौर पर ताजा पानी की प्रति व्यक्ति घटती उपलब्धता (जो 1951 में 5,177 क्यूबिक मीटर थी और 2001 में 1,820 क्यूबिक मीटर हो गई है और 2025 में शायद 1,340 क्यूबिक मीटर हो जाएगी) को देखते हुए यह सही वक्त है जब राज्यों को इन पहलुओं में सुधार की ओर ध्यान देना चाहिए। इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार की उस पहल को मिसाल के तौर पर लिया जा सकता है, जिसके तहत राज्य में सॉफ्ट ड्रिंक का निर्माण करने वाली कंपनियों द्वारा ग्राउंड वॉटर के इस्तेमाल को रेग्युलेट करने के लिए कदम बढ़ाया गया है। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले दिनों में राज्य सरकार इन कंपनियों से पानी के इस्तेमाल के बदले शुल्क वसूले।