जब अल्फाजों को धुनों का साथ मिलता है, तो एक गीत का जन्म होता है।
एक अच्छे गीत में शब्दों और संगीत के बीच का गजब का संतुलन होता है, इसीलिए तो उस एक गीत का असर भी काफी जबरदस्त होता है।लोगों को खींचने का काम धुन करते हैं, जबकि अल्फाज उसके असर को लंबे समय तक बरकरार रखता है।
भारतीय कला में संगीत का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है। उलटे हमारे देश में तो बोलकर सीखाने की पुरानी परंपरा है। संगीत में तो खास कर विद्या एक से दूसरी पीढ़ी तक केवल बोलकर और याद करके सिखाई जाती है। संगीत का अपने देश में नाटक से काफी मजबूत रिश्ता है।
महाराष्ट्र की नौटंकी, बंगाल का जत्रा और पंजाब का स्वांग इस बात की खास मिसालें हैं। और तो और, हमारे वेद-पुराण भी श्लोकों और चौपाइयों की शक्ल में लिखे गए हैं। साथ ही, उन्हें पढ़ा भी धुन में ही जाता है।
अगर म्यूजिक इंडस्ट्री के नजरिए से देखें तो आज हमारे मुल्क की हालत अनोखी है। हिंदुस्तान में म्यूजिक इंडस्ट्री का अपना कोई अलग मुकाम नहीं है। यह आज भी पूरी तरह से फिल्म उद्योग या सही शब्दों में कहें तो बॉलीवुड पर पूरी तरह से निर्भर है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि गीत-संगीत एक फिल्म के अहम हिस्से होते हैं। इन्हीं की वजह से तो एक फिल्म बरसों बाद भी लोगों के दिलों में जिंदा रहती है।
गाने अहसासों को जुबान देते हैं। वह डाइलॉग की जगह भी ले लेते हैं। फिल्म में ड्रामा लेकर आते हैं। कई बार तो गानों का इस्तेमाल कहानी की गलतियों को छुपाने के लिए होता है। इसीलिए अपने देश में गानों के बिना फिल्मों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वह भारतीय फिल्मों के अहम हिस्से रहे हैं और हमेशा ही बने रहेंगे।
देसी म्यूजिक कंपनियों के लिए अपने उपभोक्ताओं के दिमाग को पढ़ाना और समझना काफी रोचक प्रक्रिया है। एक तरफ तो म्यूजिक इंडस्ट्री आजकल संगीत के गिरते स्तर, ‘इंस्पिरेशन’, पुराने संगीतकारों के प्रभाव और ‘रिपैकेजिंग’ पर चर्चा जोर-शोर से मची हुई है। वहीं दूसरी तरफ, आपके पास टांय टांय. फिस्स हो जाने वाले फनकारों की फौज भी यहां तैयार हो रही है।
क्या इन आरोपों में कुछ सच्चाई भी है या फिर यह कुछ खास लोगों के मगरमच्छी आंसू हैं, जो किसी खास मकसद से ऐसा कर रहे हैं। कारण क्या है, यह बता पाना तो काफी मुश्किल है। लेकिन मैं कुछ बातें जरूर बताना चाहूंगा, जिससे मुझे लगा कि चीजों को समझने में मदद मिल सकती है।
जिस बात पर हमें सबसे सोचना है, वो यह है कि क्या हम सचमुच संगीत पसंद करने वाला मुल्क हैं? इतिहास तो इसी बात की गवाही देता है, लेकिन कहीं न कहीं तो कोई न कोई चीज बात तो गलत हुई ही है। आज संगीत को संगीत के खातिर पसंद नहीं किया जाता। यह आज की तारीख में एक विकल्प बनकर रह गया है। शायद लोग-बाग भावनाओं की कमी को इन्हीं गानों से पूरा करना चाहते हैं या फिर हकीकत से दूर भागने के लिए इनका इस्तेमाल किया जा रहा है।
यह लोगों में एक आदत की शक्ल लेती जा रही है। गाने के क्रिएटिव पहलुओं जैसे गाने की संरचना, बोल आदि पर तो आज की तारीख में काफी कम जोर दिया जाता है। ऐसा लगता है, जैसे हम किसी गाने को उसके बोल या धुन के कारण नहीं, बल्कि उसकी पैकेजिंग पर ज्यादा जोर देते है।
माफ कीजिए, पर यह कुछ उसी तरह है, जब कोई किसी चुटकुले की शुरुआत इस बात से करता है कि,’एक सरदार था…’। आपके होंठों पर खुद-ब-खुद मुस्कान तैरने लग जाती है। आपका मन उसके चुटकुले के खत्म होने से पहले ही हंसने लगता है।
कुछ ऐसा ही होता है, जब हम कोई गाना सुनते हैं। सोची-समझी भावनाएं हमारे दिलों में उभरने लगती हैं और हम उस गाने का ‘लुत्फ’ उठाने के लिए मजबूर कर देती हैं। भले ही वह गाना कितना ही बकवास क्यों न हो। शायद संगीत का हमारी जिंदगी में स्थान, उसके लिए हमारे सम्मान, समझ या चाहत पर भारी पड़ रहा है। पिछले 20-25 सालों से हमने संगीत के सीखने वाले पहलु को नजरअंदाज कर दिया है।
हमारे लिए संगीत आज तो बस भावनाओं की एक पोटली भर बनकर रह गई। हमें आज उसकी क्वालिटी की परवाह नहीं होती। इस बात की सबसे अच्छी मिसाल नाक से गाने वाली एक शख्सियत है। उनकी धुन का संगीत से कुछ लेना-देना है नहीं, फिर भी लोग-बाग उनकी धुनों को पसंद करते हैं। यह लोगों में संगीत के प्रति खत्म होती भावनाओं को दिखाता है।
जरा पिछले 50 साल के वक्त पर नजर तो दौड़िए। आपको अलग-अलग प्रकार के गाने मिलेंगी, जैसे प्रेम गीत, दर्द भरे नगमें, जश्न के गाने और डांस नंबर। आपको कभी-कभी भजन और सूफी संगीत भी सुनने को मिल जाता है। कुछ मामलों को तो मैं ‘गोल्ड चेन’ का ही नाम देना पसंद करूंगा। आप सोच रहे होंगे, यह कौन सी बला है। दरअसल, यह हम भारतीयों की मानसिक दशा को दिखलाते हैं। हम अच्छे और स्टाइलिश कपड़े पहनना पसंद करते हैं।
उसपर से हम अपनी सोने की चेन का भी ‘शो ऑफ’ करना चाहते हैं। फिर चाहे वह चेन हमारे कपड़ों पर कितनी भी बुरी क्यों न लगे। फिल्म इंडस्ट्री की भी हालत कुछ ऐसी ही हो गई है। यहां हालत से बिल्कुल जुदा गानों पर काफी जोर दिया जाता है। अक्सर होता यह है कि हीरो-हिरोइन भाग रहे होते हैं। आज वह आदिवासियों के साथ गाना गाने लगते हैं। आदिवासी भी उन लोगों को शक की निगाह से देखने के बजाए उनकी ताल में ताल मिलाने लगते हैं।
इस तरह के गानों से फिल्म की रफ्तार का सत्यानाश हो जाता है। इस तरह बिना गानों के भी फिल्मों का काम नहीं चल सकता। कुछ लोगों ने बिना गानों के फिल्में बनाने की कोशिश जरूर की थी, लेकिन भारत में यह प्रयोग कभी सफल नहीं हो सकता। हमें संगीत को आराम के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
संगीत का तो काम ही क्रिएटिविटी को बढ़ावा देना है। संगीत का काम किसी भावना को दिल की गहराइयों तक लेना जाना है, ताकि नई भावनाएं जन्म ले सकें। संगीत हमारी आत्मा के लिए नई खिड़कियां खोलता है। हमारे चिंतन में नई जान फूंकने की जिम्मेदारी भी संगीत की ही है।
(लेखक मैक्कैन एरिक्सन, एशिया पैसेफिक के कार्यकारी निदेशक और रीजनल क्रिएटिव डाइरेक्टर हैं।)