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हरित ऊर्जा का भंडारण बढ़ाने की जरूरत

भारत में अक्षय ऊर्जा की क्षमता बढ़कर लगभग 43 प्रतिशत हो गई है और 2030 तक 50 प्रतिशत तक पहुंच जाने का अनुमान है।

Last Updated- April 08, 2025 | 10:43 PM IST
Green Energy
प्रतीकात्मक तस्वीर

बिजली उत्पादन में नवीकरणीय या अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ने के साथ ही जीवाश्म ईंधन से इस ऊर्जा के स्रोतों जैसे सौर, पवन और जलविद्युत की तरफ कदम बढ़ाने में भी चुनौती बढ़ती जा रही हैं। भारत में अक्षय ऊर्जा की क्षमता बढ़कर लगभग 43 प्रतिशत हो गई है और 2030 तक 50 प्रतिशत तक पहुंच जाने का अनुमान है। हमारा अंतिम लक्ष्य जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता खत्म कर पूरी तरह अक्षय ऊर्जा पर चले जाना है।

मगर अक्षय ऊर्जा के स्रोत हमेशा उपलब्ध नहीं रहते हैं इसलिए 24 घंटे बिना रुकावट बिजली के लिए ऊर्जा के भंडार पहले से तैयार रखने होंगे। ऊर्जा भंडारण के कई साधन हैं मगर ग्रिड स्तर पर सबसे अधिक भरोसेमंद एवं महत्त्वपूर्ण है बैटरी ऊर्जा भंडारण प्रणाली और पंप जलविद्युत भंडारण(पीएचईएस)। बैटरी भंडारण में सौर और पवन ऊर्जा इकट्ठी कर जरूरत पड़ने पर इस्तेमाल की जाती है मगर इससे ग्रिड को कुछ घंटों तक ही बिजली मिल सकती है। बैटरी तैयार करने के लिए लीथियम जैसे दुर्लभ तत्वों की जरूरत भी पड़ती है, जिन्हें खोजना, खनन करना, निकालना, रीसाइकल करना और निपटाना चुनौती भरा होता है। समस्या यह भी है कि बैटरी देसी हों या आयातित, ज्यादा नहीं टिकतीं और कुछ साल में उन्हें बदलना ही पड़ता है।

पिछले कई दशकों से नदी का जल पंप कर पनबिजली भंडारण (पीएचईएस) की तकनीक भरोसेमंद तरीका रही है। मगर इसे और बढ़ाने के लिए भूमि अधिग्रहण, नदी के बहाव में खलल और कृषि तथा किसानों पर असर जैसे जोखिम हैं, जिनका सामाजिक विरोध हो सकता है। इनसे भी बड़ा जोखिम अनिश्चितता है, जो जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली बाढ़ और सूखे से हो सकती है।

अक्षय ऊर्जा में भंडारण प्रणाली इतनी ज्यादा अहम है कि बहुपक्षीय बैंकों एवं परोपकारी संस्थाओं ने भंडारण के लिए दुनिया भर में साझेदारी शुरू कर दी हैं। विभिन्न देशों की सरकारें लीथियम और दूसरे दुर्लभ तत्व अपने यहां तलाशकर या उनके लिए विदेश में साझेदारी कर भंडारण को बढ़ावा देने में मदद कर रही हैं।

हाल ही में भंडारण का अधिक नियंत्रित साधन ईजाद हुआ है, जिसमें पंप की गई पनबिजली को नदी से दूर इकट्ठा किया जाता है। इसे क्लोज्ड लूप पीएचईएस भी कहते हैं। इसमें अलग-अलग मगर पर्याप्त ऊंचाई पर दो जलाशय बनाए जाते हैं।  इस प्रणाली में दो अलग-अलग ऊंची जगहों पर दो जलाशयों की जरूरत होती है और अधिक ऊंचाई पर स्थित जलाशय में पर्याप्त पानी भरा जाता है। जब पानी उसमें से गिरता है तो वह पनचक्की (टरबाइन) को घुमा सकता है और खाली समय में दूसरे ऊर्जा स्रोतों के जरिये वापस जलाशय में चढ़ा दिया जाता है। इस तरह वही पानी दोनों जलाशयों के बीच बार-बार घूमता रहता है, बिजली बनाता रहता है और उतना ही पानी उसमें मिलाना पड़ता है, जो भाप बनकर उड़ता है। यह प्रणाली पूरी तरह नियंत्रित होती है और मौसम या बारिश की अनिश्चितताओं पर निर्भर नहीं करती। इसलिए पूरे साल इस पर भरोसा किया जा सकता है।

यह प्रणाली सुरक्षित है, आसान है, सस्ती है और सूखे या बाढ़ की चिंता के बगैर बनाई जा सकती है क्योंकि वही पानी इसमें चढ़ता-गिरता रहता है। अभी पनबिजली बनाने से पर्यावरण को होने वाला नुकसान भी इससे बंद हो जाएगा। साथ ही इसमें विदेशी खनिज नहीं बल्कि देसी संसाधन और स्थानीय श्रम ही लगते हैं। इसमें विस्थापन या पुनर्वास भी नहीं के बराबर होता है, इसलिए यह नदी पर बनी पनबिजली परियोजना से आधे खर्च में बन जाती है। यह नियंत्रण एवं सुरक्षा के साथ चल सकती है। ऑस्ट्रेलियन नैशनल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने उपग्रह से मिली जानकारी का विश्लेषण कर बताया है कि पूरी दुनिया में कई जगह यह तकनीक काम कर सकती है। इसके लिए एक जलाशय समुद्र या नदी के करीब हो सकता है। दूसरा जलाशय बंद पड़ी खान, झील या मैदानी इलाके में हो सकता है। बस, दोनों अलग-अलग ऊंचाई पर होने चाहिए।

उपग्रह से मिली जानकारी बताती है कि दुनिया भर में इस प्रणाली के लिए अकूत संभावनाएं हैं मगर हर स्थान की जमीनी पड़ताल करनी पड़ेगी। इस मामले में सबसे सक्रिय चीन है, जो इस तकनीक से 71 गीगावाट बिजली बनाने का लक्ष्य लेकर चल रही है। इसमें 14 गीगावाट क्षमता तो तैयार हो भी चुकी है। अमेरिका के पास 27 गीगावाट और जापान के पास 23 गीगावाट क्षमता है। भारत में 900 मेगावाट की पहली परियोजना पुरुलिया में 2008 में ही शुरू हो गई थी, जिसे वेस्ट बंगाल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी डिस्ट्रिब्यूशन कंपनी चलाती है। इस तकनीक ने हाल ही में रफ्तार पकड़ी है। इसके लिए जोश इतना ज्यादा है कि जोखिम से अक्सर दूर रहने वाले निजी क्षेत्र ने भी 92 गीगावाट क्षमता के 75 प्रस्ताव जमा कर दिए हैं और उनकी शर्तें मंजूर कर भी दी गई हैं। इनमें से 60 गीगावाट क्षमता की 44 योजनाओं के लिए सर्वेक्षण एवं जांच पूरी हो चुकी है। ये परियोजनाएं पूरी हो गईं तो भारत इस तकनीक में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश बन सकता है। भंडारण की अहमियत और जरूरत को समझते हुए केंद्र तथा राज्य सरकारें भंडारण क्षमता बढ़ाने के पुरजोर प्रयास कर रही हैं। फिलहाल नई अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के साथ 20 प्रतिशत भंडारण क्षमता भी रखने के सुझाव दिए जा रहे हैं। निजी और सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए बिजली मंत्रालय ने हाल ही में परियोजना के प्रस्ताव में केंद्र या राज्य सरकार की मंजूरी की शर्त खत्म कर दी है।

अक्षय ऊर्जा उत्पादन अगर पहला कदम है तो 24 घंटे बिजली आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए दूसरा कदम भंडारण तकनीक ही हैं। अभी तक सबसे अधिक बढ़ावा बैटरी भंडारण को ही मिला है और उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) के जरिये सरकार विदेश से कच्चा माल लाने के मौके तलाशने में मदद कर रही है। फोटोवोल्टाइक (पीवी) सोलर को आज के स्तर तक पहुंचने में 25 साल लग गए। नदी से दूर पंप पनबिजली भंडारण तकनीक को भी स्वीकृति धीरे-धीरे ही मिलेगी। बैटरी क्षेत्र की तरह ही मदद देकर उसे भी रफ्तार दी जा सकती है। इसे परिपक्व होने के लिए दस साल और प्रोत्साहन देने होंगे। यह बैटरी की तरह मॉड्यूलर तकनीक नहीं है मगर देसी सामग्री और हुनर के साथ बड़े पैमाने पर ऊर्जा भंडारण का मौका देती है।

भारत की आर्थिक वृद्धि एवं सतत विकास के लिए निर्बाध एवं विश्वसनीय बिजली आपूर्ति जरूरी है। इसके लिए भंडारण सुविधाओं के साथ अक्षय ऊर्जा को बढ़ाना होगा।

(ज्योति पारिख इंटीग्रेटेड रिसर्च ऐंड एक्शन फॉर डेवलपमेंट में कार्यकारी निदेशक हैं और किरीट उसी संस्था के चेयरमैन हैं)

First Published - April 8, 2025 | 10:29 PM IST

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