यूक्रेन पर रूसी हमला और रूस के विरुद्ध पश्चिमी देशों द्वारा कसे गए आर्थिक शिकंजे ने ‘ऊर्जा को हथियार’ बनाने के खेल को खासा उजागर कर दिया है। यही कारण रहा कि 15 जून को ब्रसेल्स में अमेरिका-यूरोपीय संघ शिखर वार्ता, 23 जून को यूरोपीय संघ परिषद, 26 जून को जर्मनी में जी-7 और 28 जून को मैड्रिड में नाटो जैसे जो भी प्रमुख शिखर सम्मेलन हुए, उनमें ऊर्जा सुरक्षा का मुद्दा छाया रहा।
फिलहाल रूसी गैस की किल्लत की भरपाई के लिए यूरोपीय देश पूरी दुनिया में उपलब्ध जीवाश्म ईंधनों की खाक छान रहे हैं, उसके चलते यूरोपीय संघ अमेरिका-यूरोपीय संघ परिषद की फरवरी में हुई बैठक में हरित एजेंडे को पूरा करने को लेकर संघर्षरत है। उनमें सहमति बनी थी कि, ‘तात्कालिक जरूरतों पर अत्यधिक जोर हमें समग्र लक्ष्य से विचलित करने का जोखिम बढ़ाता है। वैसे भी विश्वसनीय, किफायती और सुरक्षित ऊर्जा व्यापक रूप से अक्षय ऊर्जा स्रोतों पर आधारित बिना कार्बन वाले ऊर्जा ढांचे से ही संभव है।’ ‘नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की नींव रखने’ की बात कहने वाले अमेरिका और यूरोपीय संघ ने यह भी उल्लेख किया था कि ‘कुछ नियमों को आधुनिक बनाने या उन्हें नवीनता देना जरूरी है।’‘पृथ्वी के संरक्षण’ और ‘हरित वृद्धि को प्रोत्साहन’ देने का भी जिक्र हुआ।
उपरोक्त नियमों के अद्यतन स्वरूप को लेकर तो कोई स्पष्टता नहीं थी, लेकिन जर्मनी में हुए जी-7 शिखर सम्मेलन में शामिल नेताओं ने आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) की एक रिपोर्ट का अवश्य संज्ञान लिया। यह रिपोर्ट कच्चे माल की आपूर्ति की सुरक्षा को लेकर आगाह करने वाली थी कि हरित ऊर्जा अपनाने के लिए महत्त्वपूर्ण खनिजों के उपयोग में ऊंची छलांग की जरूरत होगी, जिनमें से कई ऐसे हैं, जो भू-आर्थिकी दृष्टिकोण में तेल से भी कहीं अधिक संकेंद्रित हैं। यदि बैटरी के लिए आवश्यक खनिजों की जरूरत का कोई अन्य उन्नत विकल्प विकसित नहीं होता तो 2040 तक इलेक्ट्रिक वाहनों और बिजली क्षेत्र में बैटरी स्टोरेज के लिए लीथियम की मांग 40 गुना और कोबाल्ट की 30 गुना अधिक बढ़ जाएगी। प्लेटिनम समूह की धातुओं का उत्पादन भी 150 गुना अधिक बढ़ाना होगा। अभी लीथियम, बिजमथ, कोबाल्ट, निकल और रेयर अर्थ सहित कई प्रमुख खनिजों का अधिकांश उत्पादन केवल तीन देशों में केंद्रित है।
इस परिदृश्य के उलट खनिज सुरक्षा साझेदारी का गठन अंतरराष्ट्रीय महत्व का घटनाक्रम है। अमेरिका के अनुसार, ‘यह महत्त्वपूर्ण खनिजों की आपूर्ति श्रृंखलाओं को सशक्त बनाने का महत्त्वाकांक्षी उपक्रम है।’ अमेरिका, कनाडा, जापान, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, फिनलैंड, नॉर्वे, स्वीडन, कोरिया, ऑस्ट्रेलिया जैसे 11 देशो के साथ यूरोपीय आयोग इसमें साझेदार के रूप में जुड़े हैं। एक विश्लेषक ने इसे ‘मैटलिक नाटो’ की संज्ञा दी है। इनमें से कुछ देश भूगर्भीय संपदा में संपन्न और खनन के माहिर खिलाड़ी हैं, कुछ देशों को खनिजों के परिशोधन, प्रसंस्करण और व्यापार में महारत है और कुछ धातुओं के विकल्प तलाशने के लिए शोध एवं विकास के क्षेत्र में अग्रणी हैं। इस साझेदारी का ऐलान 14 जून को राजनीतिक रूप से बहुत साधारण तरीके से किया गया। हालांकि इसकी घोषणा टोरंटो में एक प्रमुख खनन कॉन्फ्रेंस के दौरान ही हुई।
चीन को इस मोर्चे पर पहल करने के कारण लाभ-बढ़त की स्थिति प्राप्त है, क्योंकि उसने सौर एवं पवन ऊर्जा की आपूर्ति श्रृंखला से जुड़ी सभी कड़ियों में भारी-भरकम निवेश किया है और उसकी यही योजना सभी प्रकार की हरित ऊर्जा के लिए है। चीनी केंद्रीय बैंक पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना द्वारा गठित चाइना सोसाइटी फॉर फाइनैंस ऐंड बैंकिंग की हरित वित्त समिति की दिसंबर 2021 में आई रिपोर्ट में दावा किया गया कि चीन द्वारा कार्बन न्युट्रैलिटी फाइनैंसिंग में 2050 तक 75 ट्रिलियन (लाख करोड़) डॉलर निवेश करने का अनुमान है। शून्य कार्बन बिजली से जुड़े इस अतिमहत्त्वाकांक्षी मसौदे में हाइड्रोजन फ्यूल सेल्स और कार्बन कैप्चर जैसे तमाम विकल्प शामिल हैं, जिन्हें सिरे चढ़ाने के लिए हर साल चीन के सकल घरेलू उत्पाद के 10 प्रतिशत के बराबर निवेश की आवश्यकता होगी। पता नहीं कि यह हासिल हो पाएगा या नहीं, लेकिन इससे चीन के लक्ष्यों की भनक जरूर लगती है कि वह विश्व की भावी ऊर्जा की कमान के लिए किस कदर प्रयासरत है।
इस दिशा में चीन 2000 के दशक की शुरुआत में ही काम करने लगा था, जब उसने पश्चिमी तकनीक का उपयोग करते हुए पहला सोलर फोटोवोल्टेक (पीवी) बनाया था। फिर उसने पीवी को एक रणनीतिक क्षेत्र का दर्जा देकर उसे सब्सिडी दी और उत्पादन को उस जगह ले गया जहां कोई देश उसकी बराबरी न कर पाए। वर्ष 2001 में चीनी सोलर पीवी विनिर्माताओं की वैश्विक बाजार में बमुश्किल एक प्रतिशत हिस्सेदारी थी। वहीं 2022 तक अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी को यह चेताना पड़ा कि पॉलिसिलिकॉन से लेकर इनगॉस, वेफर्स, सेल्स और मॉड्यूल्स का 80 प्रतिशत वैश्विक उत्पादन चीन में केंद्रित हो गया है। चीन के इस वर्चस्व में एक प्रमुख कारक उद्योग का एकीकरण है, जो पॉलिसिलिकन के उलझे खनन एवं प्रसंस्करण व्यापार से शुरू हुआ, जिसका अधिकांश हिस्सा उस शिनच्यांग प्रांत में है, जो इस समय अमेरिकी प्रतिबंधों के निशाने पर है। रेयर अर्थ यानी कुछ दुर्लभ तत्त्वों का समूह असल में स्थायी मैग्नेट और अक्षय ऊर्जा (के साथ-साथ रक्षा, स्वास्थ्य और इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योगों के लिए भी) में अन्य अनुप्रयोगों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह परिदृश्य चीनी प्रभुत्व का कहीं व्यापक मामला दर्शाता है। वर्तमान में वैश्विक रेयर अर्थ खनन के 50 प्रतिशत पर चीन का दबदबा है। हालांकि उसमें कुछ गड़बड़ियां भी हैं, लेकिन चीन अपने विरोधियों के खिलाफ रेयर अर्थ को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की मंशा दिखा चुका है और वह इसके माध्यम से धमकाने से भी नहीं हिचकता। अमेरिकी ऊर्जा विभाग का अनुमान है कि एक साल तक निर्यात पर प्रतिबंध चीन से बाहर मैग्नेट के उत्पादन को 40 प्रतिशत तक गिरा सकता है।
नाटो ने मैड्रिड में प्रमुख तकनीक एवं औद्योगिक क्षेत्रों में नियंत्रण और प्रमुख तत्त्वों की आपूर्ति श्रृंखला पर दबदबे के चीनी प्रयासों की काट के लिए नई रणनीतिक संकल्पना पेश की। इसमें जापान, कोरिया और ऑस्ट्रेलिया को आमंत्रित किया गया, जिससे यही लगता है कि संगठन अपनी योजनाओं में एशिया पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। सुरक्षा एवं आर्थिक मोर्चों पर पश्चिम के नए एकता भाव को लेकर चीन का चिंतित होना स्वभाविक है। कम्युनिस्ट पार्टी के स्वामित्व वाले ग्लोबल टाइम्स ने रेयर अर्थ को लेकर टिप्पणी की है कि, ‘इस मामले में प्रत्येक स्तर पर चीन ने इतनी प्रगति कर ली है कि उसके वर्चस्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला।’ हालांकि अमेरिका-नाटो द्वारा सामान्य आर्थिक एवं विज्ञान-तकनीक सहयोग के मामले में चीन से कड़ियां तोड़ना उसे एक खतरनाक संकेत भी लगता है। वह लिखता है कि अपने रणनीतिक प्रतिस्पर्धियों से सीधे संघर्ष के लिए तत्पर रहा जाए।
बहरहाल, वैश्विक खनन उद्योग इस पहलू को लेकर सतर्क है कि ऊर्जा संक्रमण की दिशा में अपेक्षित पैमाने पर उत्पादन वृद्धि में निरंतरता रहेगी या नहीं। एक प्रश्न यह भी है कि क्या आकर्षक ऊर्जा व्यापार में वाणिज्यिक प्रतिद्वंद्विता किसी प्रभावी बहुपक्षीय सहयोग के लिए गुंजाइश बनाएगी। फिर भी खनिज सुरक्षा साझेदारी में ऊर्जा के लिए आवश्यक कच्ची सामग्री में भावी निवेश, तकनीकी विकास और व्यापार को प्रभावित करने की क्षमता तो है ही। भारत भी खनिज सुधारों की योजना और ऑस्ट्रेलिया से साझेदारी कर रहा है, ताकि चीन पर निर्भरता कम की जा सके। ऐसे में नई साझेदारी कितनी गहरी होगी, इस पर नजर बनाए रखना खासा उपयोगी होगा।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं)