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राजनीतिक और आर्थिक अलगाव सही नहीं, सार्वजनिक क्षेत्र की चुनौतियों से निपटने के लिए विश्वसनीय नीति की जरूरत

राजनीतिक गुणा-गणित ने भले ही निजीकरण को धीमा कर दिया हो, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के प्रदर्शन को बेहतर बनाने वाली आर्थिक नीतियों में देर नहीं होनी चाहिए। बता रहे हैं ए के भट्टा

Last Updated- August 14, 2024 | 11:03 PM IST
Political and economic separation is not right, there is a need for a credible policy to deal with the challenges of the public sector राजनीतिक और आर्थिक अलगाव सही नहीं, सार्वजनिक क्षेत्र की चुनौतियों से निपटने के लिए विश्वसनीय नीति की जरूरत

अगर आपको इस बात का सबूत चाहिए कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र से संबंधित नीतियों में सूक्ष्म किंतु महत्त्वपूर्ण बदलाव आया है तो पिछले सप्ताह लोक सभा में पेश किया गया नया संशोधन विधेयक काफी होगा। यह सही है कि सैद्धांतिक तौर पर सरकार अपने उस पुराने निर्णय पर अटल है कि कम महत्त्व वाले क्षेत्रों के सरकारी उपक्रमों से वह निकल जाएगी और महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति कम से कम रखेगी। परंतु इस नीति को अगर त्यागा नहीं भी गया है तो फिलहाल यह रुकी हुई प्रतीत होती है।

फरवरी 2021 में मोदी सरकार ने आईडबीआई के अलावा दो सरकारी बैंकों के निजीकरण का प्रस्ताव रखा था। तब से तीन वर्ष बीत गए हैं और अब थोड़ी बहुत उम्मीद इस बात की है कि आईडीबीआई बैंक को चालू वित्त वर्ष के अंत तक निजी हाथों में बेच दिया जाएगा। इस माह के आरंभ में केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में बैंकिंग नियमन अधिनियम, भारतीय स्टेट बैंक अधिनियम और बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम में संशोधन के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई। इससे उम्मीद बढ़ी कि निजीकरण के मोर्चे पर कुछ प्रगति हो रही है।

परंतु जैसा पिछले सप्ताह के घटनाक्रम में दिखा, इन संशोधनों का प्राथमिक उद्देश्य था बैंक खातों और लॉकरों के धारकों के लिए अधिकतम चार व्यक्तियों को नामित किए जाने की अनुमति देना, सहकारी बैंकों के निदेशकों का कार्यकाल बढ़ाना और जिस लाभांश, शेयर तथा ब्याज या बॉन्ड की रकम पर दावा नहीं किया गया, उन्हें निवेशक शिक्षा एवं संरक्षण कोष में भेजने में सहायता करना।

अगर सरकार दो सरकारी बैंकों के निजीकरण पर गंभीर होती तो उसने बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण और अंतरण) अधिनियम में प्रासंगिक प्रावधानों को भी मंजूरी दी होती। बहरहाल ऐसा नहीं हुआ और मोदी सरकार के कार्यकाल में दूसरे निजीकरण की प्रतीक्षा लंबी हो गई। इस सरकार का अब तक का इकलौता बड़ा निजीकरण जनवरी 2022 में एयर इंडिया की बिक्री का है।

सरकारी उपक्रमों में सरकार की हिस्सेदारी बेचने की गति भी काफी धीमी रही है। 2017-18 और 2018-19 में विनिवेश राजस्व एक लाख करोड़ रुपये के करीब रहा। उन दोनों वर्षों में तेजी के बाद इस मोर्चे पर सरकार का प्रदर्शन निरंतर कमजोर होता रहा। महामारी के बाद खास तौर पर ऐसा हुआ। जब विनिवेश को शानदार प्रतिक्रिया मिल रही थी उस दौर में भी इससे होने वाली आय सकल घरेलू उत्पाद के 0.5 फीसदी से 0.6 फीसदी के बीच ही थी। बाद के वर्षों में तो यह और कम हुई तथा 2019-20 में जीडीपी की 0.25 फीसदी और गत वर्ष 0.11 फीसदी रह गई। विनिवेश आय में लगातार गिरावट पर आधिकारिक टिप्पणी में कहा गया है कि सरकार मूल्य निर्माण पर ध्यान केंद्रित कर रही है और सरकारी उपक्रमों में हिस्सेदारी बेचने का निर्णय सही समय पर लिया जाएगा।

क्या सरकारी उपक्रमों से मिलने वाला लाभांश इतना बढ़ गया है कि उसने सरकार का यह भरोसा दे दिया कि मूल्य निर्माण शुरू हो गया है और उनके प्रदर्शन में सुधार कम से कम गैर कर राजस्व बढ़ाएगा और उसकी वित्तीय स्थिति मजबूत करेगा? नहीं। वित्तीय क्षेत्र से बाहर के सरकारी उपक्रमों के लाभांश धीमी गति से बढ़ा है। 2023-24 यह 50,000 करोड़ रुपये पर पहुंचा था, जो दस साल पहले की तुलना में केवल दोगुना हो पाया था। जीडीपी के प्रतिशत के रूप में भी गत वर्ष लाभांश केवल 0.17 फीसदी रह गया, जबकि 2013-14 में यह 0.23 फीसदी था। यानी लाभांश तेजी से नहीं बढ़ रहा है और विनिवेश से आय घट रही है।

कोविड के पांच साल पहले सरकारी क्षेत्र के लिए पूंजीगत आवंटन महामारी के पांच वर्ष बाद की तुलना में एकदम अलग है। 2013-14 में यानी मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल के अंतिम वर्ष में 3.32 लाख करोड़ रुपये के पूंजीगत आवंटन की तुलना में 2019-20 में सरकारी उपक्रमों का कुल निवेश बढ़कर 8.52 लाख करोड़ रुपये हो गया। जीडीपी में हिस्सेदारी के संदर्भ में सरकारी उपक्रमों का आवंटन इस अवधि में 2.9 फीसदी से बढ़कर 4.2 फीसदी हो गया।

यह वृद्धि सरकारी इक्विटी निवेश तीन गुना होने के साथ-साथ सरकारी उपक्रमों की अधिक आंतरिक संसाधन जुटाने की क्षमता का परिणाम थी। इससे यह भी पता चला कि सरकारी उपक्रमों की हिस्सेदारी की रणनीतिक बिक्री और विनिवेश पर तमाम बातों के बावजूद मोदी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र को अधिक संसाधन प्रदान करने और अधिक संसाधन जुटाने की उनकी क्षमता में इजाफा करने में लगी हुई थी।

महामारी के बाद के पांच साल में सरकारी उपक्रमों का मामला काफी बदल गया। वास्तव में निश्चित रूप से 2021-22 के अंत तक सरकारी उपक्रमों द्वारा पूंजीगत खर्च घटकर 20 फीसदी तक रह गया। इस गिरावट की बड़ी वजह आंतरिक संसाधन जुटाने में या ज्यादा उधार लेने में सरकारी उपक्रमों की अक्षमता रही। गिरावट और अधिक हो सकती थी लेकिन सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र को इक्विटी डालकर सहारा दिया। तब से यह सिलसिला लगातार जारी है। बीते दो सालों में पूंजीगत आवंटन में सुधार हुआ है। 2023-23 में 8.4 लाख करोड़ रुपये के साथ गिरावट का रुख बदला। परंतु अब भी यह 10 वर्ष पहले की तुलना में कम है।

चिंता की बात यह है कि बीते कुछ सालों में सरकारी क्षेत्र के निवेश की कहानी अक्षुण्ण रही क्योंकि सरकार इक्विटी निवेश करती रही। कोविड के बाद के दौर में सरकारी क्षेत्र की आंतरिक संसाधन जुटाने या ऋण जुटाने की क्षमता प्रभावित हुई है। अगर सरकार को लगता है कि मूल्य निर्माण सरकारी क्षेत्र के लिए रणनीति है तो उसे इक्विटी डालने के अलावा भी कुछ करना होगा। इक्विटी निवेश भी भारत संचार निगम लिमिटेड, भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण और भारतीय रेल जैसे कुछेक संस्थानों तक सीमित हैं। बीते दो सालों के कुल पूंजीगत आवंटन में इन संस्थानों की हिस्सेदारी 87-90 फीसदी रही।

सरकार अनंतकाल तक सरकारी उपक्रमों में पूंजी नहीं डाल सकती। उसे प्रदर्शन के दूसरे पैमाने तय करने ही होंगे ताकि बेहतर वित्तीय नतीजे पाए जा सकें और सरकारी खजाने पर बोझ कम हो सके। राजनीतिक रूप से सरकार शायद निजीकरण की योजना पर धीमी गति से आगे बढ़ना चाहे और सरकारी उपक्रमों में और अधिक धन डालती रहे। परंतु सार्वजनिक क्षेत्र के वित्तीय प्रदर्शन की मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए विश्वसनीय और प्रभावी आर्थिक नीति की जरूरत है। राजनीति और अर्थशास्त्र का एक दूसरे से लगातार दूर बने रहना वांछित नहीं है।

First Published - August 14, 2024 | 11:03 PM IST

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