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राजपक्षे की जीत से बड़े संवैधानिक बदलावों की जमीन तैयार

Last Updated- December 15, 2022 | 3:36 AM IST

आत्मविश्वास से भरे श्रीलंका के पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने देश के संसदीय चुनावों से एक सप्ताह पहले संवाददाताओं से कहा था, ‘जितना ज्यादा मतदान होगा, यूएनपी के लिए उतना ही बेहतर होगा।’ यूएनपी (यूनाइटेड नैशनल पार्टी) निवर्तमान संसद में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है।
श्रीलंका में 5 अगस्त को चुनाव हुआ था, जिसमें 1.2 करोड़ से अधिक लोगों यानी कुल पंजीकृत मतदाताओं में से 71 फीसदी ने मत दिया। हालांकि यह मत प्रतिशत पिछले संसदीय चुनावों के मत प्रतिशत 77 फीसदी से कम है। पिछले चुनाव में विक्रमसिंघे सत्ता में आए थे। लेकिन 5 अगस्त, 2020 को हुए चुनाव में यूएनपी कुल 225 सीटों में से केवल एक जीत पाई। विक्रमसिंघे भी अपनी सीट हार गए।
हालांकि हर कोई यही अनुमान जता रहा था कि श्री लंका पोडुजाना पेरमुना (एलएसपीपी) जीतेगी, लेकिन प्रचंड जीत का अंतर बहुत बड़ा है। इसका मतलब है कि अब राजपक्षे प्रशासन (राष्ट्रपति के रूप में गोटाभाया राजपक्षे और प्रधानमंत्री के रूप में उनके भाई महिंदा) अपनी मर्जी के हिसाब से काम कर सकता है। अब सत्ता के दो ध्रुवों को लेकर कोई भ्रम नहीं है। पिछली सरकार में राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के बीच सार्वजनिक और निजी स्तर पर तगड़ी तकरार देखने को मिली थी। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम भी देखने को मिला। पिछले साल ईस्टर रविवार को कट्टर इस्लामी आतंकियों ने जो बम धमाके किए, वह खुफिया सूचनाओं की अनदेखी और प्रशासनिक आदेशों में भ्रम की स्थिति का नतीजा थे। इससे आसानी से बचा जा सकता था। श्रीलंका की जनता ने विक्रमसिंघे को दंडित किया है, लेकिन सिरिसेना सिंहल बौद्ध विचारधारा के गढ़ में पोलोन्नारुवा से अपनी सीट जीतने में सफल रहे हैं। उन्होंने सबसे अधिक अंतर से जीत दर्ज की है। इससे हमें आने वाले समय में देश की मुख्य राजनीतिक विचारधारा के रूप में सिंहल बौद्ध के प्रभाव का पता चलता है।
यह चुनाव कई वजहों से श्रीलंका के लिए बदलावकारी साबित होने जा रहा है। पिछले संसदीय चुनाव में यूएनपी का इतना अच्छा प्रदर्शन मुख्य रूप से इसलिए रहा था क्योंकि उसने श्रीलंका के उत्तरी और पूर्वी हिस्से में शानदार प्रदर्शन किया था। इन क्षेत्रों में अल्पसंख्यकों- मुस्लिमों और तमिलों की बहुलता है। जब वर्ष 2009 में श्रीलंकाई सेना ने एक सैन्य अभियान में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) के नेता वी प्रभाकरण को मार गिराया था, उस समय महिंदा राष्ट्रपति और गोटाभाया रक्षा सचिव थे। प्रभाकरण को तमिल पहचान के संरक्षक के प्रतीक के रूप में देखा जाता था, जिसे राजपक्षे ने खत्म कर दिया। पिछले चुनाव में तमिलों ने तमिल पार्टियों और यूएनपी को मत दिया था। इससे यूएनपी को बढ़त मिली, जिससे वह सरकार बना सकी।
इस बार बदलाव हुआ है। तमिल बहुल जाफना और वान्नी प्रांतों में तमिल पार्टियों की लोकप्रियता कम हुई है और राजपक्षे की अगुआई वाली एसएलपीपी से जुड़े दल रोजगार, बुनियादी ढांचा और अन्य बिजली, सड़क पानी के वादों की बदौलत कुछ सीटें जीतने में सफल रहे हैं। इस बार चुनाव में मतदाताओं का उत्साह देखने को मिला है। जाफना में दशकों से इतना अधिक मतदान (करीब 76 फीसदी) नहीं हुआ है। इन दोनों क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से भी अधिक रहा है। यहां तक कि मुस्लिम बहुत इलाकों में भी एसएलपीपी कुछ सीट जीतने में सफल रही है।
पिछली सरकार नेतृत्व के अभाव और मतभेदों का शिकार रही, लेकिन इस सरकार को किसी भी मोर्चे पर राजनीतिक समझौता करने की जरूरत नहीं है। इस सरकार के पास प्रचंड बहुमत है। वह संविधान में बड़े संशोधन कर राष्ट्रपति की कार्यकारी शक्तियां बढ़ा सकती है, जिसका वादा राजपक्षे बंधुओं ने इस चुनाव में और पहले राष्ट्रपति चुनावों में किया था।
श्रीलंका में एक मुद्दा 19वां संशोधन भी है, जिसका मकसद राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की शक्तियों के बीच असंतुलन को दूर करना है। इस संशोधन का उद्देेश्य राष्ट्रपति की कार्यकारी शक्तियों में भारी कमी करना और उन्हें प्रधानमंत्री, संसद और अन्य लोकतांत्रिक संस्थानों में समान रूप से वितरित करना है। यह संशोधन इस धारणा पर आधारित है कि राष्ट्रपति पद के कमजोर होने से प्रशासनिक अकुशलता पैदा हुई और सुरक्षा नीतियां कमजोर हुई हैं। निस्संदेह नकारात्मक पहलू यह है कि अगर इसे उचित शक्ति संतुलन के सिद्धांत के मुताबिक नहीं बनाया गया और पारिवारिक रिश्तों को मद्देनजर रखते हुए नई प्रणाली पुरानी से भी बदतर साबित हो सकती है।
यह तय है कि नई सरकार चीन का समर्थन करेगी। इसका झुकाव उससे भी अधिक रह सकता है, जितनी पहले कल्पना की जा रही थी। इसकी वजह यह है कि कोविड-19 महामारी के नतीजतन श्रीलंका आर्थिक समस्याओं से गुजर रहा है। वर्ष 2019 के अंत में श्रीलंका पर विदेशी कर्ज उसकी जीडीपी 84 अरब डॉलर का 67 फीसदी था। सार्वजनिक क्षेत्र के इन ऋणों में से बहुत से ऋणों का इस साल के अंत में भुगतान करना होगा। यह ऐसा समय है, जब आर्थिक वृद्धि सुस्त पड़ रही है और लगातार अधिक आयात से देश का विदेशी मुद्रा भंडार बहुत सीमित हो गया है।
राजनीतिक अर्थशास्त्री अहिलन कादिरगमार ने स्थानीय संवाददाताओं को बताया, ‘कोविड-19 से पर्यटन क्षेत्र पूरी तरह बंद है। विदेेशों से धन भेजने में कमी आ रही है और निर्यात प्रभावित हो रहा है’ फिच रेटिंग्स ने कहा, ‘श्रीलंका की बाहरी तरलता स्थिति देश की ऋण लेने की साख के लिए कमजोरी बनी रहेगी। नीति निर्माता 5 अगस्त को चुनाव के बाद अपने आर्थिक एजेंडा को ज्यादा स्पष्ट तरीके से पेश कर सकेंगे, लेकिन अतिरिक्त विदेशी वित्तीय सहायता प्राप्त करने में अड़चनें बनी रहेंगी।’ इसका मतलब है कि आर्थिक प्राथमिकताएं विदेशी नीति को प्रभावित करेंगी। भारत के लिए इससे समस्याएं पैदा हो सकती हैं क्योंकि उसका श्रीलंका को ऋण इस समय अत्यधिक कम है।

First Published - August 9, 2020 | 11:13 PM IST

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