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आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के दौर में सत्य की खोज

एक समय जो काम हमारे शिक्षक, परिजन और किताबें करती थीं, उसके लिए अब हम इंटरनेट और एआई पर निर्भर हो गए हैं। इसके साथ ही चुनौतियां भी बढ़ी हैं। बता रहे हैं अजित बालकृष्णन

Last Updated- March 12, 2024 | 9:55 PM IST
आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के दौर में सत्य की खोज, Truth in the AI era
इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती

आज भी मुझे अपने स्कूल के दिन याद हैं जब मेरे सहपाठियों और मेरे बीच इस बात को लेकर बहस हो गई थी कि ‘शून्य’ का आविष्कार किसने किया था? उनमें से कुछ ने कहा कि शून्य का आविष्कार ‘ईश्वर’ ने किया तो कुछ अन्य ने कहा कि शून्य तो हमेशा से मौजूद था और उसे तलाशने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। बहस करने के बाद जब हम सब अपने गणित के शिक्षक के पास गए तो उन्होंने कहा ‘ल्यूसिड’ (एक ग्रीक गणितज्ञ और रेखागणित के विशेषज्ञ) ने। हम खामोश हो गए।

गणित के हमारे कठोर स्वभाव के अध्यापक जिनका हम सब सम्मान करते थे और मुझे भय था कि अगर हम उनके खिलाफ गए तो वह हमें फेल कर सकते थे और उस स्कूल में अगर हम गणित में फेल होते तो शायद हमें अगली कक्षा में नहीं जाने दिया जाता। हमारे स्कूल के शिक्षकों ने भी उनकी बात की पुष्टि की। मुझे 25 वर्ष बाद समझ में आया कि ल्यूसिड का शून्य के आविष्कार से कोई लेना देना नहीं था और उसे शायद किसी प्राचीन भारतीय शायद आर्यभट्ट या ब्रह्मगुप्त ने खोजा था।

आज जब मैं यह लिख रहा हूं तब चैटजीपीटी, गूगल के जेमिनी, परप्लेक्सिटी तथा कई आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) के कई अन्य टूल के बीच यह होड़ है कि सबसे अधिक ‘सही’ उत्तर कौन देता है। मैं सोचता हूं कि पिछले कुछ दशकों में इस भूमिका का दावा करने वाले कौन थे? मेरे लिए अपने स्कूली शिक्षकों के अलावा घर पर मेरी मां, मेरे चाचा और बुआ या मौसियां थीं। जब हम बड़े होने लगे तो हमारे क्रिकेट कोच हमें सच बताते थे, स्कूल पुस्तकालय में इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका और तमाम उपाय थे जो हमें सच बताते थे।

ऐसा प्रतीत होता है कि तमाम अन्य इंसानों की तरह मुझे भी हमेशा से एक मध्यस्थ की तलाश थी जिसकी मदद से मैं यह निष्कर्ष निकाल पाता कि क्या गलत है और क्या सही? हाल के वर्षों में गूगल जैसे इंटरनेट सर्च इंजन यह दावा करते रहे हैं कि वे मेरी मां, स्कूल और कॉलेज के शिक्षकों, तथा इन्साइक्लोपीडिया की भूमिका निभा सकते हैं।
अब ऐसा लग रहा है कि चैट एआई की लड़ाई का विजेता इसका नया दावेदार होगा।

अगर हम यह पता लगा सकें कि हम चैटजीपीटी से किस तरह के प्रश्न करें तो शायद हम इंसानों के बारे में कुछ और सीख सकें। ऐसा प्रतीत होता है कि सवालों में सबसे शीर्ष पर फैक्ट चेकिंग वाले सवाल हैं यानी तथ्यों की पड़ताल करने वाले प्रश्न। उदाहरण के लिए ‘अमेरिका का 16वां राष्ट्रपति कौन था?’ अथवा ‘कलकत्ता नई दिल्ली से कितनी दूर है?’

दूसरा सबसे लोकप्रिय प्रश्न मौसम की जानकारी से जुड़ा होता है: ‘बेंगलूरु में आज कैसा मौसम होगा?’ तीसरा सबसे लोकप्रिय प्रश्न भाषा से संबंधित होता है: ‘एपिसेंटर का अर्थ क्या होता है?’ चौथा सवाल तकनीक से संबंधित होता है, ‘मैं पायथन कोड में किस प्रकार सुधार कर सकता हूं?’ आखिर में बात करें तो पांचवां सबसे लोकप्रिय प्रश्न ऐतिहासिक घटनाओं और व्यक्तियों के बारे में होता है मसलन, ‘सी वी रमन कौन थे?’ ये सारे सवाल उन सवालों से ज्यादा अलग नहीं हैं जो मैं अपने शिक्षकों, मां, पिता, चाचाओं और बुआ या मौसियों से पूछा करता था।

ऐसा लगता है कि फरवरी 2024 में ही 18 करोड़ से अधिक लोगों ने चैटजीपीटी से भारत से जुड़ा प्रश्न किया यानी करीब नौ फीसदी लोगों ने। अमेरिका के बारे में सवाल पूछने वाले 10 फीसदी थे। 30 से 44 साल की आयु के लोग इसका इस्तेमाल करने वालों में सबसे आगे हैं। उनके बाद 18 से 29 आयु वर्ग के लोग आते हैं। क्या इसका अर्थ यह है कि नई पीढ़ी चैटजीपीटी या ऐसे अन्य एआई टूल से सच जानते हुए बड़ी हो रही है? यह एक संवेदनशील और जटिल सवाल खड़ा करती है: क्या चैटजीपीटी, जेमिनी और अन्य एआई टूल को नियामकीय निगरानी की आवश्यकता है? एक देश के रूप में हम खुद को इन पर प्रतिबंध लगाने वाले चीन, रूस, ईरान या अन्य देशों जैसा बनने से रोक सकते हैं लेकिन भारत की यह कार्यशैली नहीं है।

यानी उस सवाल का उत्तर देने से पहले हमें सच की स्थापना की अपनी मौजूदा व्यवस्था पर नजर डालना आवश्यक है। उदाहरण के लिए किसी कंपनी के वित्तीय वक्तव्य सच्चे हैं या नहीं, यह स्थापित करने के लिए हमारे पास एक प्रणाली है जहां चार्टर्ड अकाउंटेंट यानी सनदी लेखाकारों का एक समूह उसे प्रमाणित करता है। अगर किसी विवाहित दंपती में से एक सदस्य विवाह विच्छेद करना चाहे तो उसे अदालत के समक्ष पेश होकर अपने दावे की सच्चाई साबित करनी होती है। अगर आप भारत में कोई दवा बेचना चाहते हैं तो आपको उसे दवा नियंत्रक से प्रमाणित करना होता है।

देश में कोई फिल्म जारी करने से पहले हमें केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की मंजूरी की आवश्यकता होती है। इंटरनेट के लिए भारत में नियम हैं जहां सरकारी संस्थाएं इंटरनेट साइटों से कुछ तरह की सामग्री हटाने को कह सकती हैं। एक अहम नियमन जिसने इंटरनेट को कानूनी मुकदमों से भर जाने से रोका वह है इंटरनेट पर सामग्री तैयार करने वालों और मध्यवर्तियों के बीच भेद करना।

इंटरनेट साइटों को मध्यवर्ती करार दिया गया और ये सामग्री के प्रकाशित होने के लिए उपाय पेश करती हैं और इस बात की वास्तविक जिम्मेदारी लेते हैं कि लोग उनका इस्तेमाल किस प्रकार करेंगे। इसके लिए भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम में धारा 79 शामिल की गई जिसके बारे में कई पर्यवेक्षक कहते हैं कि इसकी वजह से इंटरनेट संभव हो सका। मैं यहां यह स्पष्टीकरण देना चाहता हूं कि मैंने एक सरकारी समिति के सदस्य के रूप में खुद यह बात लिखी थी।

इसमें दो राय नहीं कि चैटजीपीटी जैसे उपाय भारत में कुछ विरोध की वजह बन सकते हैं और ऐसी सामग्री को आधिकारिक रूप से हटाया जा सकता है। बड़ा सवाल यह है कि क्या चैटजीपीटी जैसे सामग्री तैयार करने वाले उपाय लोगों के विचार को गलत या पूर्वग्रह से ग्रस्त दिशा में ले जा सकते हैं, खासतौर पर युवाओं को?

सबसे अहम बात यह है कि क्या चैटजीपीटी जैसी संस्थाओं को भारतीय आईटी अधिनियम के तहत मध्यवर्ती का दर्जा दिया जाना चाहिए जबकि वे खुद ही कहते हैं कि वे मूल सामग्री उत्पन्न करते हैं? कौन सा नया कानून सच को बचाएगा जबकि इसके साथ ही वह इस क्षेत्र में नवाचार को हतोत्साहित नहीं करेगा?

(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)

First Published - March 12, 2024 | 9:50 PM IST

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