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दम तोड़ने लगा है सब-प्राइम का ‘सांप’?

Last Updated- December 05, 2022 | 5:30 PM IST

अमेरिकी सब-प्राइम मॉर्गेज मार्केट में चल रहा संकट हाल ही में एक दफा फिर से सुर्खियों में आया। इस बार मामला अमेरिका के पांचवें बड़े इन्वेस्टमेंट बैंक बेयर स्टनर्स से जुड़ा था।


बेयर स्टनर्स के 2 हेज फंडों ने मॉर्गेज प्रतिभूतियों में निवेश किया था और इन दोनों फंडों की बेहद बुरी गत हुई। बेयर स्टनर्स की हालत इतनी पतली हो गई कि इसे जेपी मॉर्गन के हाथों बिकना पड़ा। इस सौदे को अमेरिकी फेडरल रिजर्व का आंशिक समर्थन भी हासिल था। क्या यह इस बात का संकेत है कि ऋण बाजार में जारी संकट के खत्म होने की शुरुआत हो गई है, जिसकी एक झलक इस रूप में देखने को मिल रही है कि बैंक एक-दूसरे को कर्ज देने के मामले में भी बेहद सख्त हो गए हैं इसके कुछ संकेत भी हैं।


मसलन, शेयर बाजार में स्थिरता की शुरुआत हो चुकी है और डॉलर भी स्थायित्व का रास्ता अख्तियार कर चुका है (हालांकि खतरे अब भी हैं)। इसी तरह, बॉन्ड इंश्योरेंस कंपनियां, जो म्युनिसिपल और दूसरे तरह के बॉन्डों के लिए हजारों अरब डॉलर की गारंटी दे चुकी हैं, की अहमियत कम हो रही है और ये अखबारों की सुर्खियां नहीं बन रही हैं। पर ब्याज दरें काफी नीची होने और मकानों की कीमतों में अपनी सर्वाधिक ऊंचाई के बाद 10 फीसदी तक की गिरावट आने के बावजूद नकारात्मक चीजें अब भी चल रही हैं।


मॉर्गेज सिक्युरिटीज की पैकेजिंग और उसकी बिक्री करने वाले इन्वेस्टमेंट बैंक के रूप में बेयर स्टनर्स की खास पहचान थी। यह अपने उन तमाम बड़े स्पर्ध्दियों के मुकाबले बेहद कम ग्लोबल था। बात गोल्डमैन सैक्स, मॉर्गन स्टनले, मेरिल लिंच और लेहमैन ब्रदर्स की हो, ये सभी इन्वेस्टमेंट बैंक बेयर स्टनर्स की तुलना में ज्यादा ग्लोबल हैं।


बेयर स्टनर्स ने लॉन्ग टर्म कैपिटल मैनेजमेंट (एलटीसीएम) पर कभी भी अपना ध्यान केंद्रित नहीं किया था और बैंक का हेज फंड (जिसे फेडरल रिजर्व का भी समर्थन हासिल था) भी महज एक दशक पुराना ही है। (शायद भगवान भी बढ़-चढ़कर बातें करने वालों को सजा देते हैं।


मिसाल के तौर पर, अलायड आयरिश बैंक (एआईबी) को ही लिया जा सकता है, जिसने खुले तौर पर यह ऐलान किया था कि जो चीजें बियरिंग्स के साथ हुई थीं, वह एआईबी के साथ नहीं होंगी, पर इस ऐलान के कुछ ही वर्षों बाद एआईबी को 70 करोड़ डॉलर का नुकसान हुआ था। इसी तरह, हाल ही में सोसियाते जेनराल के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, जिसे अपने अत्याधुनिक मॉडल और सिस्टम पर नाज था )।


एक इन्वेस्टमेंट बैंक को संकट से उबारने के मामले में वाणिज्यिक बैंकों से इतर अमेरिकी फेडरल रिजर्व की जो भूमिका रही, उस पर कइयों की त्योरियां चढ़ीं और सेंट्रल बैंकों की भूमिका और जिम्मेदारियों पर तरह-तरह के सवाल उठाए जाने लगे।


दरअसल, वाणिज्यिक बैंकों को संकट से उबारने और उन्हें विपरित परिस्थितियों में कर्ज देने जैसी भूमिकाएं तो सेंट्रल बैंकों की पहले से रही है (जैसा कि हाल ही में देखने को भी मिला है, जिसमें बैंक ऑफ इंग्लैंड को संकट में फंसे नॉर्दर्न रॉक को 30 अरब पॉन्ड की आर्थिक मदद दी थी), पर किसी इन्वेस्टमेंट बैंक को संकट से उबारने के लिए लोगों के पैसे का इस्तेमाल अब तक सेंट्रल बैंकों द्वारा किए जाने का चलन नहीं रहा है।


जेपी मॉर्गन द्वारा बेयर स्टनर्स के अधिग्रहण में 30 अरब डॉलर से भी ज्यादा पब्लिक मनी का इस्तेमाल किया गया। अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने बेयर स्टनर्स को मॉर्गेज सिक्युरिटी के रूप में ली गई परिसंपत्तियों को चुकाने के लिए कर्ज के रूप में यह रकम दी। इस मामले में मॉर्गन स्टेनले का खुद का निवेश भी काफी नम्र है। मॉर्गन स्टेनले ने बेयर स्टनर्स को महज 2 डॉलर प्रति शेयर के हिसाब से खरीदा।


उसने खरीद की कुल रकम के तौर पर 25 करोड़ डॉलर दिए, जबकि एक साल पहले बेयर स्टनर्स के शेयरों की कीमत 170 डॉलर थी और बिक्री से हफ्ते भर पहले भी
इसके शेयर 30 डॉलर की ऊंचाई पर थे। इस सौदे की प्रक्रिया कई दफा उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरी।


दूसरा मुद्दा भी बेहद महत्वपूर्ण है। इस तरह के तर्क अक्सर दिए जाते हैं कि सेंट्रल बैंकों द्वारा मुद्रा की सप्लाई पैदा किए जाने और उसमें कटौती किए जाने के मसले और बैंकिंग पर्यवेक्षण को अलग कर दिया जाना चाहिए। ब्रिटिश बैंक नॉर्दर्न रॉक और बेयर सर््टन्स से जुड़े तजुर्बे बताते हैं कि जब भी किल्लत की नौबत आती है, पैसे दिए जाने की क्षमता काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। कुछ और रोचक बातें भी हैं।


मसलन, अमेरिकी और यूरोपीय बाजारों को बेहद ‘परिपक्व’ माना जाता है (यहां तक कि भारतीय टीकाकार भी इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं)। इस तरह के फिकरे भी लगातार कसे जाते हैं कि भारत और चीन के बाजारों के कामकाज के तरीके बचकाना या अपरिपक्व हैं।


पर 90 के दशक के आखिर में आए ‘डॉट-कॉम बबल’ और हालिया सब-प्राइम मॉर्गेज संकट को देखकर पश्चिमी बाजारों की कथित परिपक्वता पर सवाल खड़े होते हैं। यह बात सोचने लायक है कि मौजूदा संकट में लाखों लोगों द्वारा मॉर्गेज डिफॉल्ट की वजह से उन्हें घर से निकाले जाने की तकलीफ उतनी ज्यादा नहीं है, जितनी बुरी हालत इस मामले में बैंकिंग तंत्र की है।

First Published - April 2, 2008 | 12:15 AM IST

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