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आर्थिक नफा-नुकसान न हो लोक नीतियों का आधार

गरीब केवल एक बड़ी अर्थव्यवस्था नहीं चाहते हैं बल्कि एक उचित एवं पारदर्शी अर्थव्यवस्था भी चाहते हैं। वे समान अवसर चाहते हैं।

Last Updated- June 24, 2024 | 9:28 PM IST
Economic change and poor-rich countries

जलवायु परिवर्तन और समाज में युवा एवं बुजुर्गों की आबादी में असंतुलन दो बड़ी समस्याएं बन कर उभरी हैं। विस्तार से बता रहे हैं अरुण मायरा

आधुनिक अर्थशास्त्र मानव मूल्यों और आर्थिक मूल्यांकन के बीच प्रतिस्पर्द्धा बनकर रह गया है। यह स्थिति दो वैचारिक समस्याओं के कारण उत्पन्न हुई है। इनमें एक है उपयोगितावादी सिद्धांत और दूसरा है मानव जीवन का आकलन करने वाली असंभवता। आर्थिक लागत-लाभ मूल्यांकन ने मानव मूल्यों को दूषित कर दिया है और यह लोक नीतियों एवं कानूनी प्रक्रियाओं में गुणात्मक गिरावट का कारण रहा है।

उपयोगितावादी सिद्धांत के अनुसार एक अच्छी नीति अधिकतम लोगों के लिए लाभकारी होती है, मगर कुछ लोगों के लिए यह नुकसान का कारण भी बनती है। उपयोगितावादी नीतियां राजनीतिक रूप से लोकप्रिय होती हैं क्योंकि अधिकांश लोग इन्हें पसंद करते हैं।

उपयोगितावादी सिद्धांत वंचित लोगों के अधिकारों की रक्षा नहीं करती हैं और ऐसे लोगों की आवश्यकताएं आर्थिक वृद्धि के नाम पर कुचल दी जाती हैं। राजनीतिक एवं आर्थिक बहुसंख्यवाद स्वाभाविक साझेदार होते हैं। ज्यादातर लोग इस बात पर राजी हो गए कि जो लोग आर्थिक विकास की प्रक्रिया में पीछे छूट गए हैं उनकी आवश्यकताओं पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया जाए तो कोई हर्ज नहीं।

बहुसंख्यकवाद सिद्धांत चुनावी राजनीति के लिए अच्छा हो सकता है परंतु, यह लोकतंत्र का दायरा सीमित कर देता है। बहुसंख्य लोकतंत्र में न केवल बहुसंख्यक संपन्न रहते हैं बल्कि उन्हें यह भी समझा दिया जाता है कि वे स्वाभाविक रूप से भी बेहतर व्यक्ति होते हैं।

समाज में विभिन्न समुदायों को हुए कुल लाभ की गणना और नुकसान की थाह लेने के लिए नफा एवं नुकसान का सही आंकड़ा अनिवार्य रूप से होना चाहिए। बिन्यामिन एपेलबाम ने ‘द इकनॉमिस्ट्स आवरः हाऊ द फॉल्स प्रोफेट्स ऑफ फ्री मार्केट्स फ्रैक्चर्ड आवर’ सोसाइटी में लिखा है कि लागत-लाभ विश्लेषण के इस्तेमाल ने पिछली शताब्दी में अर्थशास्त्रियों को नीति निर्धारण की जगह पर विराजमान कर दिया।

अर्थशास्त्री राजनीतिक नेताओं को नियमन के प्रभाव का मूल्यांकन करने और तार्किक निर्णय लेने में लागत-लाभ का विश्लेषण करने के लिए तैयार करने में सफल रहे। 1960 के दशक में अमेरिकी सरकार ने वियतनाम युद्ध में बरबाद हुए जीवन के मूल्यों के आगे अपनी शस्त्र प्रणाली की लागत का आकलन किया। वर्ष 1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति ने सरकार को पर्यावरण सुरक्षा से संबंधित आर्थिक लागत एवं लाभों का जायजा लेने के लिए कहा।

अर्थशास्त्र में सभी मात्राओं को अनिवार्य रूप से मौद्रिक मूल्य में परिवर्तित किया जाना चाहिए ताकि वे एक ही समीकरण में फिट बैठ जाएं। अर्थशास्त्र में सभी मानव समान महत्त्व के नहीं होते हैं। जो लोग अधिक आय अर्जित करते हैं और अधिक उपभोग करते हैं और अंततः आर्थिक वृद्धि में अधिक योगदान देते हैं वे अधिक मूल्यवान माने जाते हैं।

जब अमेरिका में एक न्यायालय ने वर्ष 1984 में भोपाल गैस त्रासदी में जान गंवाने वाले 15,000 लोगों के लिए मुआवजा राशि तय की तो उसने कहा कि भारतीय लोगों के जीवन का महत्त्व अमेरिकी लोगों के जीवन के महत्त्व का महज एक हिस्सा है क्योंकि वहां लोग बहुत कम कमाते हैं।

बुजुर्ग लोग युवाओं की तुलना में आर्थिक रूप से कम उत्पादक माने जाते हैं क्योंकि उनके जीवनकाल की बची शेष अवधि कम होती है। ऐसे लोगों का महत्त्व युवा लोगों की तुलना में कम होता है क्योंकि युवा अधिक लंबे समय तक अर्थव्यवस्था में योगदान दे पाते हैं। आर्थिक हालात में सुधार और चिकित्सा विज्ञान में प्रगति और जन्म दर में गिरावट से पूरी दुनिया में जीवन प्रत्याशा बढ़ गई है।

कुछ युवा लोगों को अधिक बुजुर्ग लोगों का ख्याल रखना चाहिए। बुजुर्ग लोगों की उम्र बढ़ने के साथ ही उनके अधिक देखभाल की जरूरत पड़ती है और इसके लिए जरूरी आर्थिक संसाधनों का इंतजाम युवा करते हैं।

बुजुर्ग लोगों को दीर्घ अवधि तक पेंशन देने के लिए सरकार को युवा लोगों पर अधिक कर लगाना पड़ता है। आर्थिक संदर्भ में बुजुर्ग लोग समाज पर बोझ समझे जाते हैं मगर इस पर विचार नहीं किया जाता कि ऐसे लोग समाज में कई ऐसे योगदान देते हैं जिन्हें रुपये-पैसे में नहीं तौला जा सकता।

भारत के उच्चतम न्यायालय ने हाल में घोषणा की थी कि मानव समाज को जलवायु परिवर्तन के खिलाफ सुरक्षा पाने का अधिकार है। न्यायालय ने विलुप्तप्राय प्रजाति के पक्षियों के अधिकारों से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान यह कहा था। यह मामला पर्यावरणविदों ने जलवायु परिवर्तन से बचाव के लिए अक्षय ऊर्जा ढांचा लगाने वाली कंपनियों के खिलाफ उठाया था।

पर्यावरण अपरदन एवं जलवायु परिवर्तन कई रूपों (वायु प्रदूषण, चरम तापमान, सूखा, बाढ़ आदि) में मनुष्य के जीवन को प्रभावित करते हैं। इसके कई कारण भी हैं। इनमें प्रमुख है आर्थिक विकास के लिए मानव द्वारा द्वारा प्रकृति का दोहन। उदाहरण के लिए खनन, औद्योगिक कृषि, और बड़े संयंत्र की स्थापना के क्रम में प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया जाता है।

जब कारण एवं प्रभाव दोनों ही अनगिनत हैं तो जिम्मेदारी तय करना संभव नहीं हो पाता है। न ही लागत-लाभ की गणितीय रूप से गणना हो सकती है। उदाहरण के लिए पापुआ न्यू गिनी में किसी बुजुर्ग महिला के जीवन का मूल्य अमेरिका के कोलोराडो में एक धनी परिवार में पैदा हुए शिशु की तुलना में कितना महत्त्वपूर्ण है?

सरकारी कामकाज प्रणाली में शक्ति

कानून समानता की गारंटी नहीं दे सकता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा को आत्मसात किया था। संयुक्त राष्ट्र ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना की ताकि दुनिया के सभी देशों के लोगों को समान दर्जा मिल सके। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव लागू कराने के लिए शक्तिशाली देशों की भागीदारी से सुरक्षा परिषद का भी गठन किया गया।

मगर संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के 75 वर्ष बाद भी गाजा में निर्दोष बच्चे उन देशों के हथियारों से मारे जा रहे हैं जो दूसरे देशों की तुलना में स्वयं को अधिक संभ्रांत समझते हैं। संभवतः उन्होंने अपने उच्च तकनीक वाले लक्ष्य वेधन में ‘अचूक’ बमों के साथ आम लोगों की परिणामिक मौत का आर्थिक लागत-लाभ विश्लेषण किया है।

बाजार की मांग-आपूर्ति पर आधारित आर्थिक प्रणाली में विश्वास करने वाला कोई व्यक्ति की नजर में इन पेचीदा समस्याओं का समाधान यह है कि भविष्य को बाजार के हवाले कर दिया जाए।

उनका कहना है कि सरकार एवं नियमन बाजार की सुंदरता एवं स्वतंत्रता की राह में आड़े आते हैं। मगर इस सुंदरता के पीछे शक्ति का कुरूप चेहरा नजर आता है। सरकारी तंत्र में बैठे शक्तिशाली संस्थाओं से शक्ति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और देश के भीतर शक्तिहीन लोगों तक पहुंचनी चाहिए। यह मानव की टिकाऊ प्रगति और दुनिया को अधिक उचित स्थान बनाने के लिए बेहद जरूरी है।

यह विचारधारा लोकतांत्रिक समाज के कामकाज पर हावी हो रही है कि लोगों द्वारा समाज का संचालन आर्थिक रूप से लाभकारी नहीं है। इस विचारधारा के अनुसार विशेषज्ञों द्वारा तैयार नीतियों के साथ बाजार की अधिकतम और सरकार की न्यूनतम भागीदारी होनी चाहिए।

जिनके पास शक्ति है वे ऐसा कानून बनाते हैं जो उनकी शक्ति बढ़ा देती है। वे ऐसे संस्थानों पर नियंत्रण रखते हैं जो कानून लागू करते हैं, यहां तक कि उनकी विचारधारा से सहमति रखने वाले न्यायालयों पर भी उनका नियंत्रण हो जाता है।

लोक नीतियों का आधार मानव मूल्य होना चाहिए, न कि आर्थिक नफा-नुकसान। सभी के लिए समानता (गोरा-काला, अमीर-गरीब, युवा-बुजुर्ग) की शर्त यह है कि प्रत्येक जीवन को समान महत्त्व और उचित समान दिया जाए। बुजुर्ग और गरीब लोगों की महत्ता अर्थशास्त्रियों के समीकरणों में केवल संख्या तक सिमट कर नहीं रह जानी चाहिए।

गरीब केवल एक बड़ी अर्थव्यवस्था नहीं चाहते हैं बल्कि एक उचित एवं पारदर्शी अर्थव्यवस्था भी चाहते हैं। वे समान अवसर चाहते हैं। उनकी आवाज अनिवार्य रूप से सुनी जानी चाहिए और उसे अर्थव्यवस्था एवं समाज के संचालन में समान आदर मिलना चाहिए।

(लेखक हेल्पएज इंटरनैशनल के चेयरमैन हैं)

First Published - June 24, 2024 | 9:25 PM IST

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