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नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के लिए बिजली क्षेत्र में सधी रणनीति की जरूरत

भारत में बिजली एवं वित्तीय क्षेत्रों में सुधार के लिए बड़े कदम उठाने की आवश्यकता बता रहे हैं अजय शाह, अक्षय जेटली और के पी कृष्णन

Last Updated- August 09, 2024 | 9:19 PM IST
शाम के वक्त बिजली आपूर्ति की चुनौतियां, Challenges of power supply in the evening

कार्बन (जीवाश्म ईंधन) का युग समाप्त होने को है। अब हम इस बात पर चर्चा कर सकते हैं कि भारत में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल कब बंद होगा। परंतु वर्ष 2070 तक विशुद्ध शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य प्राप्त करना है तो वर्ष 2050 तक कार्बन रहित ऊर्जा तंत्र मजबूती से खड़ा करना होगा। एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न इस सोच के साथ जुड़ा है कि आगे परिस्थितियां कैसी रहने वाली हैं। वैज्ञानिकों ने पूरी दुनिया में अक्षय ऊर्जा, ऊर्जा भंडारण और ऊर्जा सक्षमता जैसे चमत्कारिक उपलब्धियां जन मानस को दी ही हैं। अब असली मसला इन्हें बढ़ावा देने का है।

कभी-कभी बिजली क्षेत्र के विशालकाय आकार से हमारा ध्यान हट जाता है। आइए, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) की पूंजीगत व्यय की सूची में दी गई उन परियोजनाओं पर नजर डालते हैं, जिनका क्रियान्वयन हो रहा है। इनकी समीक्षा के बाद पता चलता है कि इस समय बिजली से इतर सभी निजी परियोजनों का जितना कुल मूल्य है, उतना तो अकेले बिजली उत्पादन क्षेत्र का ही है। जीवाश्म ईंधन को छोड़कर नवीकरणीय (अक्षय) ऊर्जा अपनाने की दिशा में कदम बढ़ाने की मुहिम (उदाहरण के लिए इलेक्ट्रिक वाहन) को समर्थन देने और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि में योगदान देने के लिए भारतीय बिजली उद्योग को काफी तेजी से प्रगति करनी होगी।

निजी क्षेत्र समझ चुका है कि जीवाश्म ईंधन समस्याएं पैदा कर रहा है और इसका इस्तेमाल धीरे-धीरे घटता जाएगा। सबसे बड़ी भारतीय कंपनियों को इसका भान हो चुका है, इसलिए उन्होंने अपनी रणनीति भी बदल ली है। जैसे ही जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचता दिखेगा, उसमें श्रम, पूंजी एवं उद्यम सभी की दिलचस्पी कम होती जाएगी। भारत में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल तो घटता जा रहा है मगर अक्षय ऊर्जा का ढांचा पूरी तरह तैयार नहीं हो पाया है। इस क्षेत्र में भारत तीन प्रकार के पूर्वग्रह या आत्मसंतुष्टि के भाव से ग्रस्त है।

पहली, जो कुछ जरूरी है, उसे सरकार गैर-जिम्मेदाराना तरीके से कोयले का अंधाधुंध इस्तेमाल कर बना लेगी। बिजली की जरूरी मांग पूरी करने के लिए लोक निधि एवं प्रबंधन तंत्र पर्याप्त नहीं होंगे फिर भी एनटीपीसी ताप विद्युत संयंत्रों पर भारीभरकम निवेश करेगी। जब दुनिया के महत्त्वपूर्ण देश भारत पर कार्बन उत्सर्जन कम करने का दबाव डालना शुरू करेंगे तो लागत बढ़ती जाएगी।

भारत जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरे के मुहाने पर खड़ा है और इस लिहाज से दुनिया भर में होने वाले सालाना उत्सर्जन का दसवां हिस्सा उत्सर्जित करना हमारे हित में नहीं है। एक अन्य सोच भी अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में हमारी प्रगति को प्रभावित कर रही है। हमारे दिमाग में यह बात घर कर गई है कि हम अच्छा कर रहे हैं और निजी क्षेत्र पर्याप्त मात्रा में अक्षय ऊर्जा का स्रोत तैयार कर रहा है।

निजी क्षेत्र सरकारी कंपनियों को बिजली बेचने से परहेज करता है, इसलिए अक्षय ऊर्जा गतिविधियां व्यावसायिक एवं औद्योगिक खरीदारों पर अधिक केंद्रित हैं। उन तक बिजली पहुंचाना व्यावहारिक है। अक्षय ऊर्जा के लिए वर्तमान ऊर्जा ढांचे पर गहराई से विचार करना होगा।

अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में जिस लचीलेपन की जरूरत है वह तैयार करने और पारेषण एवं वितरण को नई दिशा देने के लिए बड़े निवेश की जरूरत है। ये कठिनाइयां आंकड़ों में भी झलक रही हैं। भारत में सालाना अक्षय ऊर्जा परियोजनाएं मौजूदा समस्याओं की तुलना में तेजी से तैयार नहीं हो पा रही हैं। भारत में कुल बिजली उत्पादन में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़कर लगभग 20 प्रतिशत हो गई है, मगर दूसरे देशों से तुलना करें तो यह कम ठहरती है। इसे सालाना 3 प्रतिशत की दर से वृद्धि करनी होगी जबकि मौजूदा दर लगभग 30 आधार अंक प्रति वर्ष है।

यह धारणा भी हमें आगे नहीं बढ़ने दे रही है कि ‘हम पिछले कई वर्षों से तमाम बाधाओं के बीच आगे बढ़ रहे हैं और आगे भी कोई न कोई रास्ता निकल जाएगा’। अधिकारी पिछले 20 वर्षों से आगे कदम बढ़ाने के एक साथ कई उपाय करते रहे हैं। हम समस्या सुलझाने में उनकी रचनात्मक सोच की प्रशंसा की जा सकती है, मगर अब कई दिशाओं से दबाव बढ़ने लगा है और आगे ऐसा करते रहना बहुत मुश्किल हो जाएगा। जो नहीं हो सकता वह नहीं ही होता है। आर्थिक वृद्धि सुस्त होने के कारण बिजली की मांग अधिक नहीं बढ़ पाई है मगर हम सभी को यह उम्मीद करनी चाहिए कि इस स्थिति में तेजी से बदलाव होगा।

दिन में धूप तेज होती है और बिजली की जरूरत पूरी हो जाती है मगर मगर शाम के समय पुरानी व्यवस्था घुटने टेकने लगती है। तो फिर क्या उपाय किया जा सकता है? रणनीतिक तौर पर सोचें तो दो समस्याएं नजर आ रही हैं। सबसे पहले बिजली क्षेत्र में बदलाव की जरूरत है ताकि बिजली का पर्याप्त उत्पादन हो सके। साथ ही अक्षय ऊर्जा उत्पादन की हिस्सेदारी सालाना 3 प्रतिशत अंक दर से बढ़ाई जाए। बिजली क्षेत्र में सुधार के लिए बड़ी मात्रा में पूंजी की भी आवश्यकता होगी। यह जरूरत पूरी करने के लिए वित्तीय क्षेत्र में बदलाव की जरूरत होगी।

बिजली और वित्त दोनों ही मामलों में यथास्थिति ठीक नहीं मानी जा सकती और हमारे सामने कई बड़े लक्ष्य आ गए हैं जिन्हें साधना है। बिजली नीति पर क्या रणनीति अपनाई जा सकती है? पुरानी बिजली व्यवस्था में केंद्रीय स्तर पर नियंत्रण अधिक है। तकनीक, उत्पादन एवं मूल्य पर सरकार का नियंत्रण है। मगर यह ढर्रा अब पुराना पड़ चुका है। बिजली नीति के केंद्र में मौजूद समस्या इस प्रणाली से मूल्य-प्रणाली की तरफ बढ़ने से जुड़ी है। मूल्य प्रणाली में निजी कंपनियां कीमतों पर विचार करती हैं और यह तय करती हैं कि उत्पादन, भंडारण, पारेषण या वितरण में कहां और कब निवेश किया जाए।

उदाहरण के लिए जब आपूर्ति एवं मांग के हिसाब से कीमत कम-ज्यादा होती हैं और दोपहर में बिजली सस्ती तथा शाम को महंगी रहती है तो इससे कंपनियां अपने हित साधने की कोशिश करती हैं। वे भंडारण कंपनियां तैयार करने लगती हैं, जो दोपहर में बैटरी चार्ज करेंगी और शाम में बिजली बेचेंगी। ये सभी निर्णय निजी स्तर पर मूल्य प्रणाली द्वारा निर्धारित होने चाहिए न कि अधिकारियों द्वारा।

जलवायु के लिए वित्त जुटाने की आगे क्या रणनीति हो सकती है? ऊर्जा प्रणाली दोबारा विकसित करने के लिए विशाल संसाधनों की जरूरत है और जलवायु परिवर्तन से जुड़े कई अन्य खंडों में भी निवेश करना होगा। इनके लिए पूंजी वैश्विक पूंजी बाजार से आसानी से उपलब्ध हो पाएगी। मगर इस पहल को भारतीय अर्थव्यवस्था में अंजाम तक पहुंचाना एक चुनौती है। इसके लिए वित्तीय क्षेत्र में सुधार के वास्ते बहुत काम करने होंगे।

बुनियादी क्षेत्र में निवेश की पहली लहर (1996-2011) अब गुजर चुकी है क्योंकि इसमें वित्तीय प्रणाली से पूंजी येन केन प्रकारेण हासिल कर ली जाती थी। यह तरीका अब काम नहीं करेगा। इसका एक कारण यह है कि कई लोग नुकसान उठा चुके हैं और दूसरा कारण यह है कि इसमें बड़े स्तर पर प्रयासों की जरूरत होती है। अब एक वास्तविक बाजार-आधारित वित्तीय प्रणाली की जरूरत है जहां बड़े निवेश अपने हितों से प्रेरित इकाइयों के माध्यम से किए जाते हैं। वित्तीय क्षेत्र की नीति मूल्य-प्रणाली पर आधारित होना चाहिए। इस प्रणाली में ऐसी इकाइयां परिसंपत्ति कीमतों पर विचार कर अपने पोर्टफोलियो का निर्माण करती हैं।

सुधारकों की एक पीढ़ी ने भारतीय वित्तीय प्रणाली में सुधार किए हैं जिनमें सीमा पार गतिविधि के लिए सीमित उदारीकरण भी शामिल है। अब इस कार्य को आगे बढ़ाने की अति आवश्यकता है।

जलवायु के लिए वित्त कार्यक्रम में भी कार्बन उत्सर्जन व्यापार के लिए वित्तीय बाजारों की जानकारियों का लाभ उठाया जाता है। इसके अलावा इस कार्यक्रम में सूक्ष्म-विवेकपूर्ण (माइक्रो-प्रूडेंशियल) नियमन में ऐसे बदलाव करना भी शामिल हैं, जिनसे तटीय रियल एस्टेट या जीवाश्म ईंधन जैसी परिसंपत्तियों से जुड़े खतरों को आसानी से भांपा जा सकें।

(शाह एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं, जेटली ट्राईलीगल में पार्टनर एवं ट्रस्टब्रिज के संस्थापक हैं तथा कृष्णन प्रशासनिक अधिकारी रह चुके हैं)

First Published - August 9, 2024 | 9:17 PM IST

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