नए मामलों की सुनवाई की बात करें तो कोरोनावायरस महामारी के कारण अचानक लॉकडाउन लगाए जाने के पहले यानी मार्च तक सर्वोच्च न्यायालय की 16 अदालतों में एक दिन में औसतन 800 मामलों की सुनवाई हुआ करती थी। अब केवल पांच वर्चुअल कोर्ट या ऑनलाइन अदालतों में बमुश्किल 100 महत्त्वपूर्ण मसलों की सुनवाई हो रही है। अन्य अदालतों की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है।
स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र जहां कोरोनावायरस के कारण उपजी नई परिस्थितियों से तालमेल बिठाने का प्रयास कर रहे हैं और कुछ हद तक सफल भी रहे हैं, वहीं शीर्ष न्यायपालिका में शामिल नीति निर्माता पिछले चार महीनों से अंधेरे में राह टटोल रहे हैं। इस बीच ग्रीष्मकालीन अवकाश भी हुआ। ऑनलाइन अदालत की व्यवस्था में फिलहाल कई खामियां हैं और भारतीय बार काउंसिल तथा कई बार एसोसिएशन से संबद्ध तमाम विधिक पेशेवर उसकी आलोचना कर रहे हैं। उनका आरोप है इसमें तमाम तकनीकी खामियां हैं, यह अस्पष्ट है और खुली अदालतों तथा बुनियादी ढांचे के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। उनका कहना है कि यह अमीरों तथा तकनीक सक्षम विधिक फर्म के प्रति पक्षधर है और इस पेशे में असमानता ला सकती है। इसने ऐसे कई अधिवक्ताओं को कंगाल बना दिया जो कुछ बार एसोसिएशन से अच्छी खासी रकम पाते रहे हैं। जानकारी के मुताबिक उनमें से कई कानून का पेशा छोड़कर अपने गांव घर की और लौट रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ जो डिजिटलीकरण की प्रक्रिया का मार्गदर्शन कर रहे हैं, ने लोगों को समझाया कि वीडियो कॉन्फ्रेसिंग से होने वाली सुनवाई कोई रामबाण नहीं है। उन्होंने यह स्वीकार किया कि वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से सुनवाई की सहायता इसलिए लेनी पड़ी क्योंकि कोविड-19 महामारी अचानक आई और दूसरा कोई विकल्प नहीं था। सर्वोच्च न्यायालय ने ऑनलाइन सुनवाई को लेकर दिशानिर्देश जारी किए हैं। इसमें तमाम अन्य कदमों के अलावा मामले दर्ज करने की प्रक्रिया को सरल बनाना भी शामिल है। इसमें भी समय लगेगा।
देश की विभिन्न अदालतों में 3.5 करोड़ मामले लंबित हैं। 65,000 मामले तो सर्वोच्च न्यायालय में ही लंबित हैं। ऐसे में बहुत पहले ही जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए थे। परंतु इस दिशा में पिछले एक दशक से कोई खास प्रगति नहीं हुई है। फौजदारी अदालतों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की शुरुआत सन 2003 के आसपास हुई थी लेकिन सन 2014 में ही यह प्रचलन में आया, वह भी केवल कुछ अहम मामलों में। अदालतों को अब तत्काल विशेष ई-बेंच गठित करना चाहिए जो उन पुराने मामलों को निपटाने का काम करें जो अप्रासंगिक हो चुके हैं और जिनके पक्षकार आशा छोड़ चुके हों। सन 2017 में अपने एक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने खुद इसका सुझाव दिया था।
आरंभिक कठिनाइयों के बावजूद वादियों को न्याय के डिजिटलीकरण का स्वागत करना चाहिए। कोरोनावायरस महामारी समाप्त होने के बावजूद वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की व्यवस्था बरकरार रहने वाली है। वीडियो कॉन्फ्रेंसिग न्यायिक व्यवस्था को स्थायी रूप से बदल देगी। एक बात तो यह कि इस व्यवस्था में अधिवक्ताओं की लंबी-लंबी दलीलें समाप्त हो जाएंगी जिनके लिए वे लाखों रुपये प्रति घंटे की दर से शुल्क लेते हैं। ऑनलाइन सुनवाई और उसका प्रसारण अधिवक्ताओं को मजबूर करेगा कि वे दलील पेश करते समय नाटकीयता कम बरतें। फैसले भी छोटे हो सकते हैं। नई ऑनलाइन व्यवस्था में जटिल प्रक्रियाएं कम होंगी और हर वर्ष अदालतों में इस्तेमाल होने वाले करीब 110 करोड़ कागजों की बचत होगी। इससे व्यवस्था किफायती, तेज और लोकतांत्रिक होगी क्योंकि तकनीक के समक्ष सभी पक्ष और यहां तक कि न्यायाधीश भी समान होंगे। वादियों को दूर-दूर स्थित भीड़ भरी अदालतों और पंचाटों तक नहीं जाना होगा।
सरकार को भी लाभ होगा क्योंकि राजनीतिक दबाव में उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों के नए पीठ गठित करने की जरूरत न रह जाएगी। कृत्रिम मेधा के कारण और अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति की जरूरतों में भी कमी आ सकती है क्योंकि कृत्रिम मेधा उनके कुछ काम को बिना भय या पक्षपात के बेहतर ढंग से अंजाम दे सकती है।
अधीनस्थ अदालतों और पंचाटों में फिलहाल टेबल-कुर्सी जैसी बुनियादी चीजों की भी कमी है। उन्हें नई व्यवस्था से तालमेल बिठाने में दिक्कत आएगी। उन्हें मूल दस्तावेज, तमाम गवाहों और जेल में बंद आरोपितों से निपटना होता है। वीडियो प्रक्रिया के जरिये न्यायाधीशों के लिए गवाहों के मस्तिष्क को पढऩा मुश्किल हो सकता है जो वहां मौजूद न हों। अधिवक्ताओं के लिए भी न्यायाधीशों के मन को समझना और अपनी दलील उसके मुताबिक तैयार करना मुश्किल होगा। उनका प्रतिपरीक्षण काफी नाटकीय होता है जिसका अतिरंजित स्वरूप हमें फिल्मों और उपन्यासों में देखने को मिलता है।
हाल के महीनों में व्याप्त संकट के चलते हाल के महीनों में नए मामलोंं में काफी कमी आई है। परंतु एक बार वायरस का प्रकोप समाप्त होने पर सभी अदालतों में मामलों में इजाफा होगा। वादी या तो हालात सामान्य होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं या फिर अपना अधिकार त्याग रहे हैं। इस बीच जो लोग व्यवस्था में भरोसा गंवा चुके हैं वे अदालतों के बाहर या सड़कों पर उन्हें निपटाने का प्रयास करेंगे। पुलिस द्वारा न्याय करने के मामले बढ़ेंगे।
चेक बांउस होने के मामलों में भारी इजाफा होगा और ऋण वसूली का काम बाहरी लोगों से आउटसोर्स किया जा सकेगा। यदि वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और कृत्रिम मेधा का रास्ता जल्दी साफ नहीं किया गया तो सियाह धंधों की चमक बढऩी शुरू हो सकती है।