आप कैसे कोई आइडिया सोच लेते हैं? तथाकथित क्रिएटिव दुनिया के बाहर के लोग मुझसे अक्सर यह सवाल करते हैं।
ईमानदारी से कहूं तो मुझे नहीं लगता कि मैंने कभी किसी आइडिया के बार में सोचा है। जहां तक मुझे याद है, आइडिया अचानक ही मेरे पास आता है।
मेरी राय में आइडिया ब्रह्मांड में विचरन करते रहते हैं और आपकी बुध्दि या संवेदना उसे ग्रहण करती है। आपकी ग्रहण करने की क्षमता जितनी तेज होगी, आप आइडिया की तरफ उतने ही आकर्षित होगी।
मेरे दिमाग में कभी भी कोई आइडिया किसी खास मनोस्थिति के तहत नहीं आया है, क्योंकि यह प्रक्रिया काफी बोरिंग और केंद्रित होती है। हमारे पास आइडिया अक्सर अनिश्चितता की हालत में आते हैं। हालांकि आप कह सकते हैं कि यह काफी अवसादपूर्ण स्थिति होती है, क्योंकि इस दौरान आप किसी खास मनोस्थिति के दौर में नहीं होते, लेकिन दूसरी तरफ यह माहौल आइडिया फ्रेंडली है।
मुझे असमंजस अच्छा लगता है। किसी चीज पर अंतिम राय बनाने से आपकी रचनात्मकता खत्म हो जाती है। मैं विकल्पों की खातिर बर्बाद होना चाहता हूं, क्योंकि इस हालत में संभावनाएं ज्यादा होती हैं। जिंदगी अपने आप में दुविधा है या दूसरे शब्दों में कहें तो दुविधा में जिंदगी। प्यार के मामले में भी कुछ ऐसा ही है।
कोई शख्स किसी को कई कारणों से प्यार कर सकता है, लेकिन इस बारे में बताने में अक्षम होने की वजह से इंसान को इसे किसी खास तर्क की कसौटी पर कसना पड़ सकता है। कई ऐसी छोटी-छोटी बातें जो आप महसूस करते हैं, वह मेरे लिए काफी अहम है। दुविधा आपकी बुध्दि या संवेदना को जिंदा रखती है और जब तक आपकी ये चीजें जिंदा रहती हैं, आप सृजन करते रहते हैं।
दूसरी तरफ किसी भी चीज पर फोकस आपको विश्लेषण पर निर्भर होने के लिए मजबूर करता है। मैं तभी फोकस करता हूं, जब मुझे किसी चीज के बारे मे जरूरी जानकारी हासिल करनी होती है। इससे मैं प्रोडक्ट और उपभोक्ता के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल कर पाता हूं, जो मेरे दिमाग की खिड़कियां खोलते हैं। ये बातें मेरे दिमाग में हमेशा घुमड़ती रहती हैं और धीरे-धीरे आइडिया आने लगते हैं।
(लेखक ऐड एजेंसी मैक्केन-एरिक्सन में दक्षिण एशिया के क्षेत्रीय क्रिएटिव डाइरेक्टर हैं)