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बच्चों की बेहतरी की यह कैसी फिक्र?

Last Updated- December 05, 2022 | 5:08 PM IST

शहरी भारत में पिछले कुछ वर्षों से एक अजीब तरह की विध्वंसकारी सामाजिक परिघटना देखने को मिल रही है।


खासतौर पर सामाजिक-आर्थिक वर्ग की ए, बी और सी श्रेणी के परिवारों में यह यह परिघटना बड़े पैमाने पर देखने को मिल रही है। ऐसे परिवारों में माता-पिता अपने बच्चों के स्कूली प्रदर्शन को लेकर बेहद फिक्रमंद नजर आते हैं। चिंताजनक बात यह है कि ऐसे मां-बाप की संख्या दिन-ब-दिन तेजी से बढ़ रही है। पिछली पीढ़ियों की बात की जाए तो उस वक्त भी बोर्ड परीक्षाओं को लेकर तनाव का मंजर रहता था।


हालांकि उस वक्त तनाव लेने वाले लोगों की संख्या कम हुआ करती थी और तनाव ज्यादातर परीक्षा में बैठने वाले छात्रों को रहता था, न कि उनके पूरे परिवार को।मां-बाप की मौजूदा पीढ़ी का सूरत-ए-हाल दूसरा है। आजकल जिन परिवारों में 3 से 17 साल तक की उम्र के बच्चे रहते हैं, उन परिवारों में तनाव का स्तर बेहद ज्यादा होता है।


यदि बच्चों के अकादमिक प्रदर्शन को लेकर माता-पिताओं में फिक्रमंदी का आलम इसी रफ्तार में बरकरार रहा, जैसा कि पिछले कुछ वर्षों से होता आ रहा है, तो भारतीयों की अगली पीढ़ी पर इसका असर कितना घातक होगा, इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है।


आंकड़े बताते हैं कि देश में सामाजिक-आर्थिक लिहाज से ए, बी और सी श्रेणियों के फिलहाल 3 करोड़ ऐसे शहरी परिवार हैं, जिनसे कोई न कोई बच्चा स्कूल जाता है। आने वाले 5 वर्षों के भीतर इन परिवारों की संख्या बढ़कर 4 करोड़ हो जाएगी और इन परिवारों में कुल मिलाकर 18 करोड़ लोग शामिल होंगे। यह संख्या देश के कुल शहरी परिवारों का 40 फीसदी होगा। आंकड़े की व्यापकता से समस्या की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है।


शहरों में इसका असर अब भी जनवरी से मार्च महीनों के बीच देखा जा सकता है, जब बच्चों की परीक्षाओं का वक्त होता है। इस अवधि में सिनेमा हॉल, शॉपिंग सेंटर और यहां तक कि प्राइवेट सामाजिक कार्यक्रमों में लोगों की शिरकत काफी कम हो जाती है।


ऐसे मां-बाप की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है, जो कम से कम 12वीं कक्षा की परीक्षा खत्म होने तक अपने बच्चों का स्कूल बदले जाने से बचने के लिए अपने खुद के करियर को तिलांजलि दे रहे हैं या दो शहरों में (नौकरी किसी दूसरे शहर में करते हैं और परिवार को किसी दूसरे शहर में रखते हैं) रहते हैं। इस समस्या का दायरा पहले सिर्फ बोर्ड परीक्षाओं तक ही सीमित था, पर अब इसका दायरा तेजी से बढ़ता जा रहा है।


मिसाल के तौर पर अब ग्रेड 1 तक की परीक्षा में भी बच्चों को उम्दा प्रदर्शन करने के लिए मजबूर किया जाता है। यह बात दीगर है कि इन परीक्षाओं में हासिल होने वाले अंकों की कोई अहमियत बच्चों के करियर के लिहाज से नहीं होती। इन्हीं चीजों को देखते हुए तो कई स्कूल तो ग्रेड 5 तक की परीक्षाओं से मार्क्स सिस्टम ही खत्म करने की सोच रहे हैं।


दिक्कत सिर्फ सालाना परीक्षाओं से संबंधित नहीं है। अब तो छमाही और तिमाही परीक्षाओं और यहां तक कि वीकली या मंथली टेस्ट (पिछले कुछ सालों में कुछ ‘ब्रैंडेड’ स्कूलों ने इस तरह के टेस्ट का चलन शुरू किया है) को लेकर भी परिवारों में हायतौबा मचा रहता है। शादियों और दूसरे सामाजिक कार्यक्रमों में बच्चों को स्कूल द्वारा छुट्टी दिए जाने की बात तो धीरे-धीरे असंभव-सी होती जा रही है और इससे आने वाले वर्षों में देश का सामाजिक तानाबाना पूरी तरह बिगड़ने का खतरा मंडराने लगा है।


बात यहां भी खत्म नहीं हो रही। कुछ ज्यादा फिक्रमंद मां-बाप तो अपने बच्चों को स्कूलों के अलावा तरह-तरह की कोचिंग दिला रहे हैं और पढ़ाई से इतर की गतिविधियों के लिए उन्हें तरह-तरह की संस्थाओं में भेज रहे हैं। उनमें से ज्यादातर तो इस बात पर भी विचार करने की जरूरत महसूस नहीं कर रहे कि क्या सही मायने में उनके बच्चों को कोचिंग की जरूरत है? या फिर जिन गतिविधियों के लिए उन्हें भेजा जा रहा है, उनमें उनके बच्चों की दिलचस्पी है भी या नहीं।


इधर, देश के आर्थिक तानेबाने में जबर्दस्त तब्दीली देखी जा रही है। आने वाले दशकों में देश की तस्वीर कुछ अलग ही होगी। उस वक्त नौकरियों की अजीब तरह की विविधता नजर आएगी, क्योंकि उस वक्त समाज की प्राथमिकताएं बदल चुकी होंगी और परंपरागत व्यवस्थाएं ध्वस्त हो चुकी होंगी। देश में एक बहुआयामी अर्थव्यवस्था का विकास होगा।


इतना साफ है कि आने वाले दिनों में अच्छी तनख्वाहों और अच्छी संभावनाओं वाली नौकरियां पाने के लिए बच्चों को विज्ञान या कॉमर्स में जीनियस होने की दरकार नहीं होगी।


मिसाल के तौर पर भविष्य में जिन नौकरियों का बोलबाला होगा, वे हैं – आर्किटेक्ट, इंटीरियर डिजाइनर, वकील (दीवानी या फौजदारी मामलों से ज्यादा कॉरपोरेट मामलों की वकालत करने वाला), क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट, शेफ, फिटनेस ट्रेनर, ब्यूटिशियन, प्रॉडक्ट डिजाइनर, रेडियो और विडियो जॉकी, प्रिंट और इलेकट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार, होटलों और रेस्तरां चेन से संबंधित सर्विस क्लास के लोग, ट्रैवल और इवेंट प्लानर और ऑर्गनाइजर आदि। इनमें से किसी भी पेशे को अपनाने के लिए बच्चों को आइंस्टाइन बनाने की जरूरत नहीं।


कहने का मतलब यह कि विषयों की बेहद बारीक समझ रखे बगैर भी ये नौकरियां पाई जा सकती हैं। जरूरत इस बात की है कि बच्चों में सद्विचार, महात्वाकांक्षा और आत्मविश्वास जैसे मानवीय गुणों के विकास पर जोर दिया जाए। बेहतर यह होगा कि मां-बाप बच्चों के इन्हीं गुणों को निखारने पर ज्यादा ध्यान दें। यदि वे ऐसा करने में कामयाब होते हैं, तो बच्चे अपनी पेशेवर जिंदगी के लिए खुद-ब-खुद अच्छी तरह तैयार हो जाएंगे।


यह बात सच है कि देश में विश्वविद्यालय पढ़ाई के लिए उपलब्ध सीटों की संख्या उनकी मांग के मुकाबले काफी कम हैं। यह भी सच है कि देश की पिछली सरकारों द्वारा मानव संसाधन विकास की जिस तरह से अनदेखी की गई है, उसे देखते हुए आने वाले दिनों में समस्या और भी गंभीर होगी। ऐसे में बच्चों के दाखिले के लिए मार्क्स की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता।


हालांकि यह बात भी उतनी ही महत्वपूर्ण है कि हर मां-बाप को अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर या कॉमर्स से जुड़ी नौकरियों के लिए ही तैयार करने पर जोर नहीं देना चाहिए। दूसरे कई क्षेत्रों में आज भी स्पर्धा काफी कम है और उन क्षेत्रों का पेशेवराना अंदाज भी बाकी क्षेत्रों से किसी भी सूरत में कम नहीं है।

First Published - March 27, 2008 | 12:34 AM IST

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