facebookmetapixel
Test Post कैश हुआ आउट ऑफ फैशन! अक्टूबर में UPI से हुआ अब तक का सबसे बड़ा लेनदेनChhattisgarh Liquor Scam: पूर्व CM भूपेश बघेल के बेटे चैतन्य को ED ने किया गिरफ्तारFD में निवेश का प्लान? इन 12 बैंकों में मिल रहा 8.5% तक ब्याज; जानिए जुलाई 2025 के नए TDS नियमबाबा रामदेव की कंपनी ने बाजार में मचाई हलचल, 7 दिन में 17% चढ़ा शेयर; मिल रहे हैं 2 फ्री शेयरIndian Hotels share: Q1 में 19% बढ़ा मुनाफा, शेयर 2% चढ़ा; निवेश को लेकर ब्रोकरेज की क्या है राय?Reliance ने होम अप्लायंसेस कंपनी Kelvinator को खरीदा, सौदे की रकम का खुलासा नहींITR Filing 2025: ऑनलाइन ITR-2 फॉर्म जारी, प्री-फिल्ड डेटा के साथ उपलब्ध; जानें कौन कर सकता है फाइलWipro Share Price: Q1 रिजल्ट से बाजार खुश, लेकिन ब्रोकरेज सतर्क; क्या Wipro में निवेश सही रहेगा?Air India Plane Crash: कैप्टन ने ही बंद की फ्यूल सप्लाई? वॉयस रिकॉर्डिंग से हुआ खुलासाPharma Stock एक महीने में 34% चढ़ा, ब्रोकरेज बोले- बेचकर निकल जाएं, आ सकती है बड़ी गिरावट

जिंदगीनामा: असंगठित और संगठित क्षेत्र की कार्यसंस्कृति

भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने पर गर्व करता है मगर यहां बढ़िया दफ्तरों में काम करने वाले कर्मचारी उतने जोश में नहीं दिखते।

Last Updated- October 16, 2024 | 10:43 PM IST
Israel's construction industry urgently needs workers, a large number of workers can come from India

नालियां और सीवर ऐसी जगहें हैं, जहां दुनिया में कोई भी शायद ही काम करना चाहता हो। मगर कचरा फंसने से रुकी नालियों और सेप्टिक टैंक की सफाई करने वाले 7 लाख से ज्यादा भारतीयों के लिए ये रोजाना के कामकाज की जगह हैं, जिन्हें हाथ से मैला ढोने वाला सफाईकर्मी कहा जाता है। इस पेशे पर आधिकारिक रूप से प्रतिबंध होना चाहिए।

इन सफाईकर्मियों से बहुत कम को सफाई करने वाली मशीनें मिल पाती हैं, जिन्हें पश्चिम में सफाईकर्मी रोजाना इस्तेमाल करते हैं। पिछले पांच वर्षों में 300 से अधिक भारतीयों की मौत इस तरह की सफाई का काम करते समय डूबने से या जहरीली गैस से दम घुटने के कारण हुई है। ये मुख्यतः निचली जातियों और पिछड़े वर्गों से जुड़े थे।

उनसे कुछ बेहतर किस्मत उन 40 लाख कचरा बीनने वालों की है, जिनका दिन शहर भर का कचरा बीनने से शुरू होता है। मगर वे भी यह काम दस्तानों या मास्क के बगैर ही करते हैं। पश्चिमी देशों के सफाई कर्मचारी जल रहे कूड़े के धुएं और लीक हुई बैटरी से लेकर फेंकी गई सीरिंज या टूटे कांच तक खतरनाक सामग्री से खुद को बचाने के लिए दस्तानों और मास्क को जरूरी मानते हैं।

इसी में एकाध कड़ी ऊपर जाएं तो गिग वर्कर या अंशकालिक या अस्थायी कर्मचारियों का छोटा सा समूह मिलेगा, जिसमें किसी प्लेटफॉर्म से जुड़े कैब ड्राइवर और डिलीवरी बॉय होते हैं। इनमें से ज्यादा प्लेटफॉर्म की कीमत प्राइवेट इक्विटी/वेंचर कैपिटल और शेयर बाजार खूब आंकता है। मगर मार्च में हुए एक सर्वेक्षण से पता चला कि वहां अधिकतर लोग दिन में आठ घंटे से अधिक काम करते हैं और 20 प्रतिशत तो दिन में 12 घंटे तक काम करते हैं। इन कामगारों को सुरक्षा या कोई अन्य लाभ तक नहीं मिलता मगर काम का यह तरीका इन प्लेटफॉर्म मालिकों की कारोबारी कामयाबी के लिए जरूरी है।

फिर भी करीब 43 करोड़ सफाई कर्मचारियों, निर्माण से जुड़े श्रमिकों, घरेलू सहायकों और गिग वर्कर की बड़ी सी दुनिया को हम ‘असंगठित क्षेत्र’ कहते हैं। इन सभी में गिग वर्कर को इसलिए सबसे नसीब वाला माना जाता है क्योंकि उन्हें खतरनाक परिस्थितियों में काम नहीं करना पड़ता और शारीरिक मेहनत भी कम लगती है।

राज्यों और केंद्र सरकारों के छिटपुट प्रयासों के बावजूद इन अनौपचारिक कामगारों में से किसी को भी इलाज के लिए मदद या भविष्य निधि जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं मिलतीं। इनकी दुनिया में काम और जीवन के संतुलन तथा मानसिक स्वास्थ्य के लिए परामर्श लेने जैसी नफासत भरी बातों के लिए कोई जगह नहीं है।

विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस के मौके पर कामकाज की ऐसी स्थितियों का जिक्र इसी मकसद से किया जा रहा है कि रोजाना होने वाले ज्यादातर शोषण को आम बात मानने वाला भारतीय स्वभाव जाने-अनजाने अब ऊपरी श्रेणी के कार्यस्थलों में भी पसर रहा है। इसीलिए विषाक्त कार्यसंस्कृति की बात करें तो भारत में यह ऊपर के स्तर वाले दफ्तरों की ओर बढ़ती जा रही है।

काम के घंटों को समस्या का एक पहलू माना जाता है। दक्षिण एशिया में भारत उन देशों में शामिल है, जहां रोजाना नौ घंटे से अधिक काम होता है। हफ्ते के लिहाज से यह काम का सबसे अधिक समय है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत के आधे से अधिक कर्मचारी सप्ताह में 49 घंटे से अधिक या दिन में 10 घंटे से अधिक काम करते हैं। इस तरह भारत में भूटान के बाद दुनिया के दूसरे सबसे लंबे कामकाजी घंटे होते हैं।

इस आंकड़े से एन आर नारायणमूर्ति निराश हो सकते हैं, जो मानते हैं कि उत्पादकता बढ़ाने के लिए कर्मचारियों को हफ्ते में 70 घंटे काम करना ही चाहिए। वह शायद भूल जाते हैं कि दुनिया में दूसरा सबसे लंबा औसत कामकाजी हफ्ता होने के बाद भी भारत की उत्पादकता चीन से आधी है। हो सकता है कि इसमें दूसरे रवैयों का दोष हो?

लंबे कामकाजी घंटे कार्य संस्कृति का एक पहलू भर हैं। मिसाल के तौर पर यह पैमाना ‘ग्रेट प्लेसेज टु वर्क मॉडल’ में नहीं दिखता है जो देश के बड़े दफ्तरों में तेजी से लोकप्रिय हो गया है। इसके बजाय कंपनियों को निष्पक्षता, विश्वसनीयता, सम्मान, गौरव और प्रबंधन, कर्मचारी तथा सहकर्मियों के बीच सौहार्द से आंका जाता है।

चूंकि यह अध्ययन सर्वेक्षण पर आधारित है और इसकी कसौटी भी वस्तुनिष्ठ नहीं है, इसलिए यह पता लगाना मुश्किल है कि जो प्रतिक्रिया आई हैं, वे कितनी सही हैं। मगर दिलचस्प है कि बड़े औद्योगिक घरानों की कंपनियों के बजाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भारतीय शाखाओं और सेवा क्षेत्र की कंपनियों को काम करने की बेहतरीन जगह माना जाता है।

काम करने की शानदार जगह के तौर पर अपना प्रचार करने वाली कंपनियों को गैलप 2024 स्टेट ऑफ द ग्लोबल वर्कप्लेस रिपोर्ट आइना दिखाती है। इस रिपोर्ट में काम करने की बेहतरीन जगहों की रैंकिंग तय की जाती है और इसके लिए दुनिया भर में कर्मचारियों के मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण का जायजा लिया जाता है।

भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने पर गर्व करता है मगर यहां बढ़िया दफ्तरों में काम करने वाले कर्मचारी उतने जोश में नहीं दिखते। भारतीय कर्मचारियों का एक बड़ा हिस्सा यानी करीब 86 प्रतिशत जूझने या पीड़ित होने की बात स्वीकारता है और केवल 14 प्रतिशत कर्मचारियों को महसूस होता है कि वे सफल हो रहे हैं। यह 34 प्रतिशत के वैश्विक औसत से काफी कम है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि एक-तिहाई से अधिक कर्मचारी रोजाना गुस्सा होते हैं।

काम की जगह खराब हो तो आम तौर पर कर्मचारी या तो जरूरत भर का काम करते हैं या नौकरी छोड़ देते हैं। अनौपचारिक क्षेत्र के कुछ कर्मचारी तो ऐसा कर सकते हैं मगर जैसे-जैसे अच्छी नौकरी मिलना मुश्किल होता जाता है वैसे-वैसे ही संगठित क्षेत्र के दफ्तरों में काम करने वालों के पास यह विकल्प कम होता जाता है।

सोसायटी फॉर ह्यूमन रिसोर्सेज मैनेजमेंट द्वारा कराए गए शोध के मुताबिक अगर किसी संस्थान की सांगठनिक संस्कृति बेहतर है तो करीब 64 प्रतिशत कर्मचारियों के कंपनी में बने रहने की संभावना होती है। ऐसे में भारतीय कंपनियों को इस सीढ़ी पर ऊपर चढ़ाने के लिए सबसे निचले स्तर पर कामकाज की स्थितियों में बहुत अधिक सुधार करना होगा और यह काम सफाईकर्मियों के लिए भी करना होगा।

First Published - October 16, 2024 | 10:26 PM IST

संबंधित पोस्ट