पर्यावरण कार्यकर्ता सुंदर लाल बहुगुणा टिहरी बांध के जलाशय के पास बार-बार आते रहते हैं। उन्हें आज भी उस आनंद की अनुभूति है जो खत्म हो चुके टिहरी कस्बे में भागीरथी घाट पर नहाने से मिलती थी।
उत्तराखंड के इस ऐतिहासिक कस्बे के नष्ट हो जाने के बाद भी बहुगुणा इससे बहुत दूर जाना नहीं चाहते हैं। उन्हें टिहरी अक्सर अपनी याद दिलाता रहता है। खैर सब तो अतीत की बातें हैं। अब बांध बन कर तैयार है और राष्ट्रीय संपत्ति है। उत्तराखंड गंगा और यमुना जैसी सैकड़ों छोटी-बड़ी नदियों का उद्गम स्थल है।
ये नदियां इस पहाड़ी राज्य की जीवन रेखा हैं और हर साल हजारों की संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। अब सरकार नदियों की क्षमता का दोहन बिजली पैदा करने के लिए करना चाहती है। राज्य में जीएमआर, जीवीके, रिलायंस एनर्जी, लैंको, एचटीपीसी और एनएचपीसी जैसी कंपनियां पन बिजली परियोजनाओं पर काम कर रही हैं। अब राज्य के दूसरे हिस्सों में भी टिहरी की कहानी दोहराई जा रही है। राज्य में पिथौरागढ़ से लेकर उत्तरकाशी तक जल विद्युत परियोजनाओं ने लोगों के जीवन को दूभर कर दिया है। इन परियोजनाओं की बाढ़ को रोकने के लिए राज्य में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं।
दूसरी ओर जी डी अग्रवाल और अन्य पर्यावरण कार्यकर्ता भागीरथी को सुंरगों में जाने से बचाने के लिए जी जान से जुटे हुए हैं। ऐसा पहली बार नहीं है जब पर्यावरणविद् भागीरथी पर जल विद्युत परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं। अग्रवाल से पहले बहुगुणा 2400 मेगावाट क्षमता वाले टिहरी बाध के विरोध में व्यापक प्रदर्शन कर चुके हैं। उत्तराखंड में टिहरी ही एक अकेला मामला हो ऐसा नहीं है। धौलीगंगा में दो साल पहले एनएचपीसी की 280 मेगावाट क्षमता वाली परियोजना के लिए ऐलागढ़ गांव को डूबना पड़ा और 24 परिवार विस्थापित हुए।
ऐलागढ़ से 50 किलोमीटर दूर केन्द्र सरकार 6000 मेगावाट की पंचेश्वर जलविद्युत परियोजना का निर्माण करने की योजना बना रही है। भारत-नेपाल सीमा पर काली नदी पर बनने वाली यह परियोजना टिहरी के मुकाबले तीन गुनी है। पंचेश्वर के करीब रहने वाले लोग परियोजना का विरोध कर रहे हैं। पंचेश्वर बांध के बनने से करीब 80,000 लोगों के विस्थापित होने की आशंका है। इस बांधों का निर्माण समय की मांग है लेकिन यह भी विडंबना ही कही जाएगी कि उत्तराखंड के लोगों को विकास की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।