बड़े शहरों के शोर-शराबे से दूर एक छोटे से गांव कोटकोड में माहौल एकदम बदला हुआ सा है। कोटकोड, छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके के कांकड जिले में एक स्थित ऐसा गांव है जहां बंदूक से निकली गोली की आवाज जानी-पहचानी हो गई है।
नक्सलवादियों ने इस गांव के करीब ही एक बड़ा ट्रेनिंग कैंप लगाया हुआ है। यहां के लोगों के दिन की शुरुआत आतंक के साये में होती है। कांकड जिला मुख्यालय से तकरीबन 60 किलोमीटर दूर कोटकोड गांव आजाद भारत में एक अलग तरह का उदाहरण है।
एक ओर देश के कई हिस्सों में बुनियादी ढांचे का विकास तेजी पकड़ रहा है, वहीं यह आदिवासी बहुल गांव कई चीजों के लिए जूझ रहा है। गांव में रहने वाले एक बुजुर्ग दीप सिंह (सुरक्षा कारणों से नाम बदल दिया गया है) कहते हैं, ‘करीब 20 साल पहले गांव में कोलतार की सड़क थी जिस पर बसे वगैरह भी चला करती थीं।
लेकिन नक्सलियों ने सड़क को नुकसान पहुंचा दिया और अब इस पर बैलगाड़ी भी मुश्किल से चल पाती है।’ इस गांव की आबादी 200 लोगों की है। गांव में बिजली नहीं है। लेकिन इस सबके बावजूद भी कोटकोड में जिंदगी अपने ढर्रे पर है। यहां के लोग धान की खेती करते हैं। लेकिन इनकी उत्पादकता काफी कम है।
दीप सिंह बताते हैं कि गांव वालों को चीनी, नमक, मिर्च पाउडर जैसी वस्तुएं बाजार, हाट से खरीदनी पड़ती हैं। इनको खरीदने के लिए वे प्राकृतिक उत्पादों को बेचते हैं। इन गांव वालों का यह दूसरा व्यवसाय है जिसमें वे जंगलों से कई काम की वस्तुएं इकट्ठा करते हैं और फिर उनको बेच देते हैं। गांव वाले कहते हैं, ‘इस बात का अंदेशा लगा रहता है कि पता नहीं कब फायरिंग शुरू हो जाएगी।
जब भी हम लोग काम पर होते हैं तो नक्सली और सुरक्षाकर्मी भी अपने मिशन पर लगे रहते हैं।’ युवाओं के पास केवल नक्सलियों की लाल सेना में शामिल होना ही एकमात्र नौकरी का विकल्प है। इस इलाके में कई बार नक्सल विरोधी अभियानों की कमान संभालने वाले पुलिस अधिकारी ए ओंगर कहते हैं, ‘बचपन से ही उनको नक्सलवाद का पाठ पढ़ाया जाता है और जब वे बड़े हो जाते हैं तो वे उनमें शामिल हो जाते हैं। ‘ गांव वाले पहले 7-8 बजे सोने के लिए चले जाते थे लेकिन अब दहशत उन्हें सोने नहीं देती है।