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डेरिवेटिव में नुकसान, तो लुधियाना परेशान

Last Updated- December 05, 2022 | 9:15 PM IST

होजरी और साइकिलों के लिए उत्तरी भारत के मशहूर लुधियाना शहर में इन दिनों डेरिवेटिव कारोबार के नुकसान की ही चर्चा आम है, जिसकी वजह से शहर की कई कंपनियां परेशान हैं।


लुधियाना की एक कंपनी के वरिष्ठ कार्यकारी का कहना है कि हर बड़ी कंपनी या निर्यातक इस बोझ के तले दबा हुआ है। यह उत्पाद बैंको की ओर से ठीक वैसे ही बेचा जाता है, जैसे कि कोई एजेंट जीवन बीमा पॉलिसियां बेचता है।


विशेषज्ञों (विदेशी मुद्रा कारोबार के कंसलटेंटों और मुख्य वित्त अधिकारियों) का अनुमान है कि डेरिवेटिव उत्पादों पर होने वाला यह नुकसान लुधियाना में लगभग 200 करोड़ रुपये से लेकर 300 करोड़ रुपये का हो सकता है, जिसमें टेक्सटाइल व्यापारियों को खासा नुकसान होगा। कोई भी कंपनी इस नुकसान या इस क्षेत्र में अपने कारोबार के बारे में बात करने को तैयार नहीं है।


कुछ कंपनियों जैसे कि वर्धमान टेक्सटाइल, एस पी ओसवाल समूह का हिस्सा है, का कहना है कि कंपनी ने इस क्षेत्र में कोई कारोबार नहीं किया है। वर्धमान टेक्सटाइल के मुख्य वित्त अधिकारी, नीरज जैन का कहना है, ‘हमने एक दशक से इसमें कोई सौदा नहीं किया। मैंने अपने आयात को कवर देने के लिए लिए कुछ ऑप्शनंस का सहारा जरूर लिए है। लेकिन रुपयों में लिए गए कर्ज मुद्रा विनिमय के लिए कोई सौदा नहीं किया है।’


लुधियाना में कंपिनयों पर नजर बनाए हुए एक विदेशी मुद्रा विशेषज्ञ का कहना है कि कंपनियां बेशक इस नुकसान के आंकड़ों का खुलासा करने में सावधानियां बरत रही हैं। लेकिन 20 से 25 बड़ी और छोटी कंपनियों में यह नुकसान काफी अधिक है।


आदलत करेगी फैसला


दो टेक्सटाइल कंपनियों, नाहर इंडस्ट्रियल एंटरप्राइजेज, 1941 करोड़ रुपये वाले जवाहरलाल ओसवाल समूह (नाहर) का हिस्सा, एक्सिस बैंक के खिलाफ और गर्ग एक्रिलिक्स लिमिटेड, 600 करोड़ रुपये वाले इस्पात और टेक्सटाइल में कारोबार करने वाल गर्ग समूह का हिस्सा, आईसीआईसीआई बैंक के खिलाफ अदालत में पहुंची।


इन दोनों कंपनियों ने बैंकों की ओर से होने वाली गलत तरीके से बिक्री का आरोप लगाया है। गर्ग एक्रिलिक्स के निदेशक और गर्ग फरनेस के प्रबंध निदेशक, संजीव गर्ग का कहना है, ‘ब्याज की लागतों को कम करने के लिए बैंकों ने शुरुआत में कुछ लागत में कमी करने वाले ढांचों की हमें सलाह दी, जैसे कि मुद्रा की अदला-बदली, जिसमें हमें कुछ ब्याज की लागतों में हमें कुछ मुनाफा मिलेगा, लेकिन इसमें मुनाफे पर कोई जोखिम नहीं था।’


उन्होंने पहले मुद्रा की अदला-बदली से शुरुआत की, उसके बाद उन्होंने वन-टच ऑप्शंस और टू-टच ऑप्शंस की शुरुआत की और हर सौदे पर 16 से 20 करोड़ रुपये प्रीमियमों के रूप में देने लगे। इस सूरत में उन्होंने कंपनी को ऑप्शन राइटर के रूप में विदेशी मुद्रा के कारोबार में लगा दिया, जिसकी अनुमति उनके पास नहीं थी। उन्होंने कहा, ‘हमने कभी सोचा नहीं था कि हम सट्टेबाजी में घुस रहे हैं। हमें तो लगा था कि यह लागत कम करने का ही कोई तरीका है।’


गर्ग अकेले नहीं हैं, जो इस जोखिम की तलवार को अपने सिर पर झेल रहे हैं। लगभग सभी कंपनियों के मुख्य वित्त अधिकारी का यही कहना है कि कई छोटी कंपनियां इसमें शामिल हैं, जिसके बारे में उन्होंने कभी सुना भी नहीं होगा।


नाहर इंडस्ट्रियल एंटरप्राइजेज के प्रबंध निदेशक, कमल ओसवाल का कहना है, ‘बैंक लागत में कमी लाने के तरीकों की तरह इसकी सलाह देते हैं। लेकिन इसके अंत में पूंजी में कमी हो जाती है।’


क्यूं चुप हैं कंपनियां…


कई अन्य कारण भी हैं, जिसकी वजह से कंपनियां इस मामले में चुप्पी बनाए हुए हैं, जैसे कि वे कानूनी लड़ाई के लिए अपनी सभी दलीलें पहले ही बताना नहीं चाहतीं। एक कंपनी के मुख्य वित्त अधिकारी का कहना है, ‘हम अभी अपनी दलीलों का खुलासा नहीं करना चाहते, इन्हीं के बलबूते तो हमारा वाद-पत्र टिका हुआ है।’


उन्होंने कहा, ‘जाहिर है कि, पहले से आवश्यक शर्तों की अनुपस्थिति में सभी चीजें इसी के आस-पास घूमेंगी, कि क्या इन करारों को सट्टा कहा जा सकता है।’


क्या कहता है आरबीआई


भारतीय रिजर्व बैंकों (आरबीआई) के लिए यह अनिवार्य बना दिया है कि जो बैंक कंपनियों के साथ डेरिवेटिव सौदे करते हैं, उन्हें इस बात की पुष्टि जरूर कर लें कि कंपनी के पास जोखिम-प्रबंधन तंत्र हो, साथ ही उस कंपनी में जोखिम वहन करने की क्षमता भी होनी चाहिए। साथ ही उत्पाद कंपनी के अनुकूल होने चाहिए।


लुधियाना के कॉर्पोरेट ऑब्जर्वर का कहना है, ‘इनके वरिष्ठ विदेशी मुद्रा प्रबंधक श्हार में अभियान चला रहे थे, जिसमें वे कंपनियों को अपने नुकसान को सावधि जमा खातों से कवर करने के लिए अनुरोध कर रहे थे।’


पंजाब नैशनल बैंक और एक्सिस बैंक, दो अन्य बैंक हैं, जो यहां कारोबार करते हैं। बैंको का कहना है कि अगर आप 6 करोड़ रुपये का मार्क-टू-मार्केट नुकसान झेल रहे हैं, तब कम से कम आपको नुकसान के 10 प्रतिशत यानि 60 से 70 लाख रुपये का सावधि जमाखाता खोलना चाहिए।


हैरानी की बात है कि बैंक इस तरह के करार करते समय किसी तरह के कवर की कोई बात नहीं करते। जिन कंपनियों ने अपनी क्षमता से बढ़कर नुकसान का मुंह देखा है, उन्होंने मुकद्दमे का सहारा लिया है और आरबीआई के दिशा-निर्देशों का हवाला दिया है।


एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी का कहना है कि बैंकों ने रुपये में लिए गए कर्ज को डॉलर में लिए गए लोन में परिवर्तित कर दिया है और उसके बाद फ्रांक (स्विस) में। स्विस फ्रांक में, उनके पास अंत:स्थापित ऑप्शन है। कंपनियों का तर्क है कि कुछ मामलों में, बैंक रुपये में लिए कर्ज को परिसंपत्ति की तरह इस्तेमाल करते हैं और विदेशी मुद्रा में लेन-देन करते हैं, वह भी रुपये की देनदारी को विदेशी मुद्रा देनदारी में बदले बिना, जिसकी अनुमति नहीं है।


बैंकों का बहलावा


कंपनियों का यह भी आरोप है कि बैंक इन उत्पादों को बेचने के लिए इतने उत्साही होते हैं कि वे अपने ग्राहकों को गोवा, बाली, मकाऊ और हांगकांग जैसी जगहों पर भी ले जाते हैं, ताकि वे कंपनियों को मना कर अपने विचारों को बेच सके।


एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने आरोप लगाया, ‘वे एक जुआखाना चला रहे हैं। जब वे आपको उधार दे रहे होते हैं, तब क्या वे आपको किसी अलग जगह पर ले कर जाएंगे? यह सभी खर्चे उनके खाातों में जरूर दर्ज होंगे।’


एक अन्य मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने आरोप लगाया, ‘कुछ मामलों में, परिसंपत्ति और ऋण जोखिम में कोई ताल-मेल नहीं होता। परिसंपत्तियों को सौदा होने के बाद देखा जाता है।’ एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी का कहना है, ‘हमने अभी तक कभी भी ऐसे बैंकों के साथ कोई रिश्ता नहीं रखा, उन्होंने हमें एक चालू खाता खोलने के लिए कहा था और डेरिवेटिव में सौदा करने को कहा था। उन्होंने हमारे बैंक से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने की जहमत भी नहीं उठाई।’


कंपनियों ने उन रिपोर्टों की ओर सकेंत भी दिया है, जिनमें बताया गया है कि बैंक वित्त वर्ष 2008 के लिए सुपर-लाभ दिखा सकते हैं, जिसके पीछे कंपनियों को आकर्षक उत्पादों को बेच कर उनसे होने वाला मुनाफा अहम कारण है। 5 बैंकों (जिनका डेरिवेटिव में बहुत ज्यादा कारोबार होता ) की ओर से दिया जाने वाला कर 10 से 90 प्रतिशत तक बढ़ा है। अग्रिम कर बैंकों की मुनाफे के आंतरिक मूल्यांकन पर दिए गए हैं।


बुधवार को यस बैंक के बारे में कहा गया कि बैंक ने  31 मार्च 2008 को खत्म हुए वर्ष में 112 प्रतिशत की वृध्दि के साथ शुध्द लाभ 200.02 करोड़ रुपये दिखाया है।


बैंकों के लिए मुसीबत


एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी का कहना है कि बैंक अपने आदर्शों को बेहद चतुराई के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। लुधियाना के एक वरिष्ठ कार्यकारी का कहना है, ‘परिसंपत्ति को तो भूल जाइए, कई सौदे तो ऐसे नामों के तहत हो रहे हैं, जिन नामों से कंपनियां हैं ही नहीं।’ उदाहरण के लिए अगर किसी कंपनी का नाम कखग  लिमिटेड है, तो वह कंपनी कखग एक्पोर्टर प्राइवेट लिमिटेड के नाम से डेरिवेटिव में काम कर रही है।


कर से संबंधित एक बड़ी कंपनी में वरिष्ठ कंसलटेंट का कहना है कि बैंक बिना किसी परिसंपत्ति के और कंपनी की वित्तीय क्षमता से बाहर, इस तरह के सौदों में हिस्सा लेते हैं, वे मुसीबत में फंस सकते हैं, क्योंकि ऐसी कंपनियां आगे चल कर डीफॉल्टर में तब्दील हो जाती हैं।

First Published - April 11, 2008 | 11:07 PM IST

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