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अर्श से फर्श पर पहुंचा नकोदर का दरी कारोबार

Last Updated- December 10, 2022 | 6:51 PM IST

वैश्वीकरण ने भले ही कई उद्योगों को कारोबार में विस्तार के अवसर दिए हों और इससे कंपनियों का मुनाफा भी बढ़ा हो, पर कुटीर और लघु उद्योगों पर इसकी जबरदस्त मार पड़ी है।
खासतौर पर जालंधर के नकोदर में दरी बुनने का कारोबार नई मशीनों और तकनीकों के आने के कारण बंद होने के कगार पर पहुंच चुका है। एक समय यहां की हाथ से बुनी हुई दरियां देश भर में मशहूर हुआ करती थीं, पर मशीनीकरण ने अब इन इकाइयों पर ताले जड़ दिए हैं। जो कुछ इकाइयां चालू भी हैं उनका भी हाल बुरा है।
कुछ साल पहले नकोदर की हाथ से बनी रंगबिरंगी दरियों की मांग इतनी अधिक हुआ करती थी कि पूरे राज्य भर से लोग इन्हें खरीदने यहां आया करते थे। नकोदर को दरियों के कारण ही कारोबार की दुनिया में पहचान मिली है।
देश के बंटवारे के पहले से ही यहां का दरी उद्योग काफी मशहूर हुआ करता था और इस काम से जुड़े ज्यादातर कारीगर मुस्लिम हुआ करते थे। बंटवारे के बाद जहां कई कारीगर पाकिस्तान चले गए, वहीं कई कारीगर पाकिस्तान से भी यहां आए। सही मायने में इन कारीगरों के आने के बाद से ही यहां के दरी उद्योग में एक तरह का अनोखा बदलाव देखा गया।
पाकिस्तान के सियालकोट से आए भगतमेग समुदाय के लोगों ने बंटवारे के बाद मुख्य रूप से इस कारोबार में नई जान फूंकी। वर्ष 1984 तक तो नकोदर का दरी कारोबार पूरी तेजी के साथ आगे बढ़ रहा था, पर सबसे पहला झटका इसे तब मिला जब पंजाब आतंकवाद की गिरफ्त में आया। उसी दौरान कई कारीगर अपनी इकाइयों को यहां से हटा कर पानीपत या फिर अंबाला चले गए।
ऐसे कारीगरों ने वहीं जाकर अपनी इकाइयां दोबारा से खोलीं। चूंकि नकोदर आकर दरी खरीदने वाले ग्राहकों में राजधानी दिल्ली के लोगों की संख्या अच्छी खासी थी, इस वजह से पानीपत में इन इकाइयों के स्थानांतरित होने से ये यहीं से खरीदारी करने लगे। सैनिक शासन के दौरान भी कई कारीगरों को अपनी इकाइयां बंद करनी पड़ीं।
उद्योग को चोट पहुंचाने की रही सही कसर वैश्वीकरण ने पूरी कर दी। अत्याधुनिक मशीनों के आने से हाथ से तैयार की जाने वाली दरी का काम बुरी तरह प्रभावित हुआ। इन रंगबिरंगी दरियों का रंग ही गायब हो गया। आधुनिक टेक्सटाइल तकनीकों के आने से परंपरागत हथकरघा उद्योग गर्त में जाने लगा।
हजारों कारीगर जो कभी अपने हुनर के लिए जाने जाते थे, किसी दूसरे रोजगार की तलाश में जुट गए। पर जिन लोगों के पास वित्त और संसाधनों की कमी नहीं थी उन्होंने दरी का उत्पादन हाथ से करने के बजाय मशीनों (पावर लूम) से करना शुरू कर दिया।
कुछ उत्पादन इकाइयों का यह मानना है कि पावर लूम के इस्तेमाल से सिर्फ एकबारगी खर्च बैठता है और उसके बाद कम कारीगरों की जरूरत के कारण उत्पादन खर्च भी कम हो जाता है, पर कानूनी तौर पर यह सही नहीं है।
1985 के दरी ऐक्ट के तहत पावर लूम का इस्तेमाल दरी उत्पादन के लिए नहीं बल्कि, केवल टेक्सटाइल उत्पादन के लिए ही किया जा सकता है। उत्पादकों ने इस कानून को चुनौती दी है और यह मामला विचाराधीन है।

First Published - March 4, 2009 | 3:58 PM IST

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