‘बिहार में जैसे हर साल बाढ़ आती है, वैसे ही विकास के वादे भी हर साल किए जाते हैं। लेकिन न तो बाढ़ आनी रुकती है और न ही विकास के वादे पूरे होते हैं।’
यह कहना है बिहार में इस वक्त बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में से एक, अररिया के निवासी शंकर रमन सिंह का। विकास का रथ नई दिल्ली से चलता तो है, लेकिन पटना आते-आते वह राजनीति के अखाड़े में बदल जाता है। केंद्र सरकार और राज्य सरकार की आपसी खींचातानी की वजह से कई बारे आम जनता का बेड़ा गर्क हुआ है।
बिहार में जद (यू) नेता शिवानंद तिवारी का कहना है, ‘यह आज की बात नहीं है। बिहार के साथ भेदभाव तो स्वतंत्रता के पहले से ही होता आया है। आजादी की 1857 में पहली जंग में बिहार ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। साथ ही, उसके बाद बिहार ने गांधीजी का भी साथ दिया था। इसलिए एक खास नीति के तहत अंग्रेजों ने इसे गरीब रखा।
दूसरी तरफ, बंदरगाहों के होने की वजह से उन्होंने बंबई, मद्रास (अब मुंबई, चेन्नई) और तटीय इलाकों पर काफी जोर दिया। इसी वजह से दक्षिण और पश्चिम भारत के इलाकों काफी विकास हुआ। बिहार की तरफ से ध्यान न देने की नीति आजादी के बाद भी जारी रही। आप देखिए, पहले पंचवर्षीय से लेकर आज तक बिहार में ऊर्जा और उद्योगों को किस तरह नजरअंदाज किया गया है।
पैसा दिया भी जाता है, तो उसके साथ दस तरह की शर्तें पहले जोड़ दी जाती हैं।’ वैसे विश्लेषकों की मानें तो बिहार की इस दुदर्शा में बिहार सरकार भी कम दोषी नहीं है। उसने भी सूबे को गरीब रखने में केंद्र सरकार का पूरा साथ दिया है। विश्लेषकों का कहना है कि, ‘आप ही बताएं मुल्क के लगभग हर अहम सूबे में सेज बनाया जा चुके हैं।
फिर बिहार ही क्यों सेज से महरूम है? दूसरी तरफ, जहां दक्षिण और पश्चिम भारत के सूबों से मक्का धड़ल्ले से निर्यात हो रहा है, वहीं बिहार के मक्के को निर्यात करने पर प्रतिबंध लगाया दिया गया है। इससे बिहार के किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ा है।’
उनके मुताबिक आलम तो यह है कि संयुक्त बिहार में विकास की आखिरी बड़ी परियोजना बोकारो स्टील प्लांट थी, जो बिहार के विभाजन के बाद आज की तारीख में झारखंड के हिस्से में जा चुका है। पिछले 10 सालों में रेलवे परियोजनाओं को छोड़ दें, तो एक भी विकास की परियोजना जमीनी स्तर तक नहीं पहुंच पाई हैं।
उल्टे कई बड़ी परियोजनाएं के लिए काम तो शुरू हुआ, लेकिन कंपनियों को अव्यवस्था और सरकार के लचर रवैये की वजह से अपना बोरिया-बिस्तर बांध कर जाना पड़ा। इसकी एक मिसाल बरौनी उवर्रक फैक्टरी है, जो काफी समय से बंद पड़ा है। कुछ सालों पहले यहां उत्पादन शुरू करने की कवायद शुरू हुई थी, लेकिन नतीजा निकला ढाक के तीन पात।
केंद्र सरकार की बिहार के प्रति असंवेदनशीलता का एक नमूना है कोल्ड स्टोरेज पर सब्सिडी को खत्म करना। इस वजह से सूबे के आलू और दूसरी फसलों को उपजाने गरीब किसानों को काफी झटका लगा। साथ ही, कटिहार के सांसद निखिल कुमार चौधरी का यह भी कहना है कि केंद्र सरकार ने अभी तक पिछले साल के बाढ़ राहत कार्यों में खर्च हुए पैसों का तो भुगतान तो किया नहीं है, वे राज्य का भला क्या करेंगे।