राज्य सरकार और किसान फिर आपस में भिड़ गए हैं और इस बार लड़ाई का मैदान दिल्ली-हरियाणा सीमा पर बसा गांव कंझावला है।
मामला यह है कि बाहरी दिल्ली की दिल्ली-हरियाणा सीमा पर 6 गांवों से जुड़ी तकरीबन 1450 एकड़ कृषि भूमि को औद्योगिक भूमि घोषित किया जा चुका है। सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश के मुताबिक दिल्ली के गैर-औद्योगिक इलाकों से उद्योगों को यहां बसाया जाएगा। लेकिन किसान अपनी भूमि देने को तैयार नहीं हैं।
दिल्ली सरकार इसे लेकर 2005 में ही एक अधिसूचना जारी कर चुकी है, लेकिन किसान और इनके परिवार वाले इस भूमि से अलग होने को तैयार नहीं हैं। राज्य सरकार और किसानों के बीच संघर्ष का गवाह रहे सिंगुर के बाद कंझावला सरकार और किसानों के बीच एक ऐसे ही संघर्ष का मोड़ लेता जा रहा है।
हालांकि अभी इस भूमि पर उद्योग स्थापित नहीं किए गए हैं, लेकिन इस भूमि को औद्योगिक भूमि घोषित किया जा चुका है। पिछले महीने इन 6 गांवों के 150 से अधिक किसानों ने कंझावला में डिवीजनल कमिश्नर के कार्यालय का घेराव किया था।
उत्तर-पश्चिम दिल्ली के मामलों की सुनवाई करने वाली अदालतों को एक महीने के लिए बंद कर दिया गया है और इस क्षेत्र में भारी पुलिस जमावड़ा लगा हुआ है। इन इलाके की महिलाएं बाहरी लोगों पर सतर्क निगरानी रख रही हैं।
वे आपको पुलिस से बातचीत करने के लिए अंदर जाने की अनुमति तो दे देते हैं, लेकिन कुछ मिनट बाद ही कुछ महिलाएं मुंह ओढ़नी से ढके हुए आती हैं और यहां आने वाले बाहरी लोगों को चले जाने को कहती हैं। कोई भी ग्रामीणों की अनुमति के बगैर इस इलाके में अंदर नहीं जा सकता और न ही वहां ठहर सकता है।
इलाके के लोगों के बीच एक हुक्का रखा हुआ है और इन 6 गांवों के बुजुर्ग निवासियों और आसपास के इलाके से उनके समर्थक हुक्का गुड़गुड़ाते हुए कहते हैं कि शीला दीक्षित को उनकी जमीन छीनने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
इस विरोध प्रदर्शन को किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत के समर्थन वाले ‘भारत किसान यूनियन’, भूमि अधिकार संगठन ‘जन संघर्ष वाहिनी’ और मेधा पाटकर के नेतृत्व वाले ‘नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमे’ (एनएपीएम) का भी समर्थन मिल रहा है।
एनएपीएम के वकील संजय पारिख कहते हैं कि यह विवाद देश के लोगों के लिए एक ऐसा कानून बनाए जाने का अवसर साबित हो सकता है जो लोगों के अधिकारों की रक्षा करे। ग्रामीणों का कहना है कि यदि उनसे उनकी जमीन बेचने को कहा जाता है तो उन्हें बाजार मूल्य के हिसाब से भुगतान किया जाना चाहिए जो दो और तीन करोड़ रुपये प्रति एकड़ की रेंज में है।
लेकिन कीमत की तुलना में उन्हें भविष्य के लिए व्यवस्था ज्यादा महत्वपूर्ण है। विरोध कर रहे ग्रामीणों में से एक ग्रामीण राज सिंह डबास ने कहा, ‘इससे हमारे बच्चों का भविष्य दांव पर लगा हुआ है। वे हमे पैसा तो दे सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होगा कि हमारे बच्चों का भविष्य सुरक्षित है। हम यहां चलाई जाने वाली परियोजना में भागीदारी चाहते हैं। सरकार को हमें 30 साल के लिए सालाना 50,000 रुपये देने चाहिए। हम यह भी चाहते हैं कि जमीन बेचने वाले प्रत्येक व्यक्ति को एक लघु औद्योगिक इकाई आवंटित की जाए।’
पड़ोसी गांव भी इस आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं। सात एकड़ जमीन के मालिक कुशल सिंह कहते हैं, ‘ मैं मर जाऊंगा, लेकिन अपनी जमीन बाजार कीमत दर से कम कीमत पर नहीं दूंगा।’ ग्रामीण विधानसभा का घेराव पहले ही कर चुके हैं। वे दिल्ली सरकार से कई बार इस सिलसिले में बातचीत भी कर चुके हैं।
सरकार ने 1 अक्टूबर को एक गजट अधिसूचना में इस भूमि के लिए राशि 25 लाख प्रति एकड़ से बढ़ा कर 50 लाख रुपये प्रति एकड़ किए जाने की बात कही थी। राज सिंह डबास कहते हैं, ‘क्या शीला दीक्षित सरकार 75 लाख रुपये की हमारी पूर्व मांग से सहमत है? यह मामला इससे कम राशि पर नहीं सुलझेगा।
लेकिन अब ग्रामीण बाजार कीमत को छोड़ कर कोई भी कीमत स्वीकार करने को राजी नहीं हैं। इन लोगों का यह भी मानना है कि हालांकि वे अपने भविष्य को लेकर पूरी तरह सुनिश्चित नहीं हैं। इसलिए वे सालाना भुगतान के साथ-साथ संबद्ध परियोजना में भागीदारी भी चाहते हैं।’
इस महीने हुडा सरकार ने उन लोगों के लिए एक मुआवजा पैकेज का कार्यान्वयन शुरू किया है जिसमें उन्हें बाजार दर और प्लॉट के अलावा सालाना 33,000 रुपये दिए जाने की बात कही गई है। वे कहते हैं, ‘वह सब भी हमें चाहिए। दिल्ली की कांग्रेस सरकार बीएस हुडा सरकार से सीख क्यों नहीं लेती?’