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कहीं गुम गई करघे की खटखट

Last Updated- December 10, 2022 | 9:22 PM IST

बनारस की तंग गलियों वाले मोहल्ले बजरडीहा के कई पुराने बाशिंदे जो बुनकर का काम किया करते थे, उनकी हालत इन दिनों खस्ता है।
कुछ ऐसा ही हाल मदनपुरा इलाके के बुनकरों का भी है। मंदी की मार कुछ इस तरह पड़ी है कि दिन रात आने वाले करघे की खटपट कहीं गायब हो गई है।
शिव की नगरी बनारस में इन दो मोहल्लों में कभी 10,000 से ज्यादा करघे थे और कुंजगली, नीचीबाग और गोलघर में बुनकर माल लेकर खुद आते थे। ये सट्टी पर माल बेचा करते थे।
सिल्क निर्यातक रजत सिनर्जी का कहना है कि सट्टी कारीगर और खरीदार के बीच सीधा संवाद स्थापित होने का बड़ा जरिया था। यहां सट्टी लगवाने वाला दुकानदार सौदा तय होने पर 3.25 फीसदी कमीशन ले लेता था। आज गोलघर के सबसे बड़ी सट्टी वाले कारोबारी ब्रजमोहन दास का काम ठप जैसा ही है। कमोबेश यही हाल बाकी सट्टी लगवाने वालों का भी है।
नीचीबाग के हैंडलूम साड़ी बेचने वाले राजेश गुप्ता हाल पूछने पर दार्शनिक सा जवाब देते हैं और कहते हैं कि बाजार की चला-चली की बेला है। वह कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि इस तरह धंधा कितने दिनों तक चलेगा।
मदनपुरा मोहल्ले में जब बिजनेस स्टैंडर्ड ने बुनकरों से संवाद स्थापित करना चाहा तो पता चला कि कई सारे बुनकर दशाश्वमेध घाट के ठीक पहले मंडी में अंडा बेचकर गुजारा कर रहे हैं। तो कुछ लोग घाट पर आने वालों को भेलपूरी बेच कर पेट पाल रहे हैं।
बुनकर स्वालेह मियां भी कुछ इसी तरह का विचार व्यक्त करते हैं। उन्होंने कहा कि धंधा खत्मे की ओर है। उनका कहना है कि हैंडलूम का मुश्किल काम रुकवा बूटी करने वाले कारीगर को 100 रुपये रोज की मजदूरी पाना आसान नहीं है। इससे ठीक उलट ईंट ढोने वाला अकुशल मजदूर दिन भर में 130 रुपये घर ले जाता है। ऐसे हालात में करघे पर कारीगर क्यों रुकेगा।

First Published - March 25, 2009 | 1:57 PM IST

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