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सरकारी बेरुखी से खफा खेल उद्योग

Last Updated- December 10, 2022 | 1:12 AM IST

देश से होने वाले निर्यात में लगभग 450 करोड़ रुपये का योगदान देने वाला खेल उपकरण निर्माण उद्योग सरकारी बेरुखी से काफी परेशान नजर आ रहा है।
सरकार ने उद्योगों को आर्थिक संकट से उबारने के लिए पैकेज तो घोषित किए, लेकिन इनमें खेल उपकरण उद्योग को नजरअंदाज कर दिया। खेल उपकरण निर्यात संवर्द्धन परिषद् के चेयरमैन और खेल उपकरण निर्यात उद्योग की एक अग्रणी कंपनी के मालिक रघुनाथ एस राणा ने बताया कि यह उद्योग श्रमिक आधारित है। इसीलिए बाकी उद्योगों की तरह इस पर भी मंदी का असर पड़ा है।
उद्योग को पहले ही चीनी खेल उपकरण उद्योग से कड़ा मुकाबला झेलना पड़ रहा था। उस पर अब मंदी की मार से भी जूझना पड़ रहा है। मंदी के कारण इस कुटीर उद्योग को मिलने वाले निर्यात ऑर्डरों में भी गिरावट दर्ज की गई है।
हालांकि देश के सभी उद्योगों तक मंदी की ताप पहुंच चुकी है। लेकिन विदेशी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में मंदी की गाज सबसे पहले खेल सब्सिडी पर ही गिरेगी। निर्यातकों ने बताया कि प्यूमा, कूकाबूरा,स्लाजेंगर, गन और मूर ऐंड माइटर भारत से ही उत्पाद खरीदती हैं।
क्रिकेट के उपकरण बनाने वाली कंपनी संसपरेल्स ग्रीनलैंड्स का सालाना कारोबार लगभग 30 करोड़ रुपये का है। लेकिन अगले साल उन्हें कारोबार में 20 फीसदी गिरावट आने की आशंका है।
एसजी के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक के सी आनंद ने बताया,’नए निर्यात ऑर्डर नहीं मिलने से आने वाले दिनों में भी यही हालात रहने की आशंका है। इस बार हमें जो ऑर्डर मिले हैं वह पिछले साल के मुकाबले काफी कम है। इसके अलावा कई ऑर्डर रद्द भी हो गए हैं।’
सॉकर इंटरनैशनल के प्रबंध निदेशक विकास गुप्ता ने बताया, ‘नवंबर से अभी तक मिलने वाले ऑर्डरों की संख्या में 20-30 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है।’ 

उन्होंने कहा कि पहले कंपनी सालाना 25 लाख फुटबॉलों का निर्यात करती थी। लेकि न मशीन से सिली गई कम कीमत वाली चीनी फुटबॉलों से मुकाबला करने के लिए कंपनी को भी ऑटोमेशन का रास्ता अपनाना पड़ा।
गुप्ता ने बताया, ‘बैंक ऋण देने में काफी आनाकानी करते हैं। इसीलिए कारोबार के विस्तार के लिए पूंजी का इंतजाम करना काफी मुश्किल हो रहा है। ऐसे में कारोबार जारी रखना काफी मुश्किल है।’
रघुनाथ राणा ने बताया कि विनिमय दरों के कारण भी हमारे लिए नुकसान दायक साबित हो रही हैं। भारत से निर्यात किए गए खेल उपकरणों का सबसे बड़ा खरीदार ब्रिटेन है। यहां लगभग 155 करोड़ रुपये के उपकरण निर्यात किए जाते हैं। इसके बाद नंबर आता है ऑस्ट्रेलिया का।
राणा ने बताया, ‘जून-जुलाई में दिए गए ऑडरों के लिए  निर्यातक पाउंड में भुगतान करने पर जोर दे रहे हैं। उस समय पाउंड की कीमत 85 रुपये थी, जो जनवरी में काफी कम हो गई है।’ जबकि आयातित कच्चे माल का भुगतान डॉलर में किया जाता है।
पॉलीयूरीथेन, पीवीसी और लेटैक्स के दामों में 30-40 फीसदी का इजाफा हुआ है। जबकि ऑस्ट्रेलियन डॉलर की कीमत 37 रुपये से घटकर 32 रुपये हो गई है। क्रिकेट बैट बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाली लकड़ी ब्रिटिश विलो की कीमत भी 20-30 फीसदी बढ़ गई है।
इसके अलावा कश्मीर में उद्योग को बढ़ावा देने के लिए जम्मू कश्मीर सरकार ने कश्मीर विलो के राज्य से बाहर जाने पर पाबंदी लगा दी है। इससे भी उद्योग को मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है।

First Published - February 16, 2009 | 9:44 PM IST

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