नंदीग्राम और सिंगुर शब्द, उन स्थानों पर हुई घटनाओं के कारण भारतीयों की जुबान पर चढ़ गए। परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण की सरकारी कोशिशों के कारण ही ये घटनाएं हुई थीं।
कोलकाता से 150 किलोमीटर दूर स्थित नंदीग्राम के मामले में राज्य सरकार ने लगभग एक दर्जन गांवों को खाली करवाकर 22,000 एकड़ जमीन अधिग्रहीत करने का प्रयास किया था ताकि एक पेट्रोलियम, केमिकल और पेट्रोकेमिकल निवेश क्षेत्र (पीसीपीआईआर) बनाया जा सके। पीसीपीआईआर को केमिकल हब के नाम से भी जाना जाता है।
सिंगुर, जो कोलकाता से 40 किलोमीटर दूर है और देश के सबसे अधिक उर्वर क्षेत्रों में गिना जाता है, में 100 एकड़ बहुफसलीय क्षेत्र के अधिग्रहण का मामला था। इन दोनों मामलों में लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर हंगामा किया गया, खास तौर से नंदीग्राम में ऐसे बखेड़ों के कारण 14 मार्च 2007 को पुलिस को गोलियां चलानी पड़ी जिसमें 14 लोगों की जान गई थी।
यह क्षेत्र असैनिक युध्द क्षेत्र में तब्दील हो गया था और यहां शांति तभी आई जब परियोजनाओं को आगे बढ़ाये जाने का काम बंद कर दिया गया। सिंगुर में छिटपुट पुलिस फायरिंग के कारण कुछ लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। वैसे 2,000 परिवार जो जमीन देना नहीं चाहते थे लेकिन जिनकी जमीन अधिग्रहीत की गई और उन्होंने क्षतिपूर्ति राशि भी स्वीकार नहीं की, और गरीब हो गए।
दो सितंबर को प्रतिकूल स्थानीय परिस्थितियों के कारण टाटा मोटर्स का कामकाज थोड़े दिनों के लिए ठप हो गया। दोनों मामलों में भूमि-अधिग्रहण विवाद को देख कर ऐसा लगता है कि प्रतिरोध किए जाने का उद्देश्य पूरा हो गया है जो इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता था कि पश्चिम बंगाल में जमीन अधिग्रहीत करना मुश्किल है। लेकिन वास्तविक सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है।
वास्तव में, जब निजी कंपनियों द्वारा भूमि अधिग्रहण किया जा रहा था तो पश्चिम बंगाल की जनता इस प्रक्रिया से खुश दिख रही थी। जिंदल स्टील पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले में अपने 100 लाख टन के स्टील संयंत्र के लिए सफलतापूर्वक हजारों एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर रही थी।
दूसरी तरफ बिहार सीमा के निकट सालनपुर में गांव वालों ने जिस हिसाब से जमीन दी उससे 50 लाख टन क्षमता का स्टील संयंत्र लगाने वाली कंपनी भूषण स्टील काफी खुश थी। कोलकाता से 130 किलोमीटर दूर आसनसोल में वीडियोकॉन के स्टील और पावर कॉम्प्लेक्स के लिए गांव वाले जिस प्रकार जमीन देने के लिए उत्साहित थे उसे देख कर कंपनी भी रोमांचित थी।
छोटे निवेशक जैसे संथालिया समूह, जिसने 60-70 एकड़ के कई प्लॉट का अधिग्रहण किया, को भी ग्रामीणों का सहयोग मिला था। संथालिया समूह पश्चिम बंगाल में एसईजेड के लिए जमीन अधिग्रहीत कर रही थी। यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि पश्चिम बंगाल की जनता जो वामपंथियों और राज्य में इसकी सरकार के लिए श्रध्दा के लिए जानी जाती थी, वास्तव में जमीन देने के मामले में उसी सरकार पर भरोसा नहीं कर रही थी जबकि दूसरी तरफ निजी क्षेत्र के निवेशकों को खुशी-खुशी जमीन दे रही थी।
सिंगूर में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ चल रहे भारी विरोध के बावजूद निवेशक पश्चिम बंगाल में जमीन अधिग्रहण के लिए उतावले हैं। वर्तमान समय में निवेशक एक-दूसरे से अच्छा पारितोषिक (जमीन अधिग्रहण के बदले दी जाने वाली राशि) देकर भूमि अधिग्रहण करने में प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं।
उदाहरण के लिए बंगाल एइरोट्रोपोलिस प्रोजेक्ट्स लिमिटेड (बीएपीएल), राज्य के एकमात्र निजी हवाई अड्डे चांगी एयरपोर्ट के सहायक बिल्डर और कोलकाता से 160 किलोमीटर दूर स्थित दुर्गापुर के संबंधित आर्थिक क्षेत्र के विकासकर्ता, ने संकेत दिया कि वह एक एकड़ जमीन के लिए 7.5 लाख रुपये से लेकर 10 लाख रुपये देगी।
कंपनी 3500 एकड़ भूमि अधिग्रहीत करना चाहती है और इसके लिए जमीन देने वाले किसानों को 5 वर्षों तक वार्षिक भत्ता, विस्थापित परिवार के एक सदस्य को प्रशिक्षण और नौकरी तथा 6 कठ्ठा (1 कठ्ठा = 750 वर्ग फीट) तक वैकल्पिक भूमि देने जैसे अतिरिक्त आकर्षक प्रलोभन दे रही है।
अगर अतिरिक्त लाभों को छोड़ भी दिया जाए तो कंपनी द्वारा दी जाने वाली जमीन की कीमत वर्तमान मूल्य से 25-30 प्रतिशत अधिक थी। बीएपीएल इस मूल्य का भुगतान करेगी यद्यपि परियोजना की अधिकांश जमीन भूमि रिकॉर्ड में ‘कृषि योग्य भूमि’ के रुप में वर्गीकृत थी लेकिन यहां संगठित सिंचाई की सुविधा नहीं थी।
साथ ही यहां साल में केवल एक फसल उपजायी जाती थी, केवल एक गांव तामला को छोड़कर जहां 262 घर थे, और साइट हाई टेंशन ट्रांसमिशन लाइन के जाल से घिरा हुआ था। नतीजतन यह साइट प्रतिकूल साबित हो रही थी और उनकी पुनर्स्थापना पर भारी खर्च करने की जरूरत थी।
इसके विपरीत, सरकार प्रतिरोध सहन करती रही। 27 अगस्त को प्रतिरोध इतना अधिक हो गया कि पश्चिम बंगाल सरकार कटवा में राजमार्ग के 200 मीटर के दायरे में 10.14 लाख रुपये प्रति एकड़ जितनी बड़ी राशि देने पर सहमत हो गई। कोलकाता से 100 किलोमीटर उत्तर दियारा में स्थित कटवा कम विकसित है, यहां गंगा और अजय नदियां मिल कर बहती हैं।
इससे पहले कटवा में जमीन का पेशकश मूल्य 1.5 लाख रुपये प्रति एकड़ था। कटवा की जमीन, जिसकी जरूरत कोयलाचालित ताप विद्युत संयंत्र को है, का अधिग्रहण 7.80 लाख रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से किया जाएगा जो सड़क से 200 मीटर से अधिक दूर है। इस पैकेज के लिए स्थानीय खरीद समिति की अनुमति मिलनी है।
बटाईदारों को भूमि के मूल्य के 25 प्रतिशत के बराबर का हिस्सा मिलेगा और खेतों में काम करने वाले कटवा के मजदूरों को 300 दिनों की मजदूरी अग्रिम दी जाएगी जो वर्तमान दरों से कहीं अधिक है। इसके बावजूद सरकार को प्रतिरोध सहना पड़ रहा था वह भी ऐसे अविकसित क्षेत्र में जहां पेशकश की रकम के कम होने का पूरा-पूरा अनुमान था। इसलिए आज का संकट सरकारी अधिग्रहणों तक सीमित है, निजी निवेशक इससे अप्रभावित हैं। अंत में कहा जा सकता है कि यह खबर कारोबार के लिए अच्छी है। इन घटनाओं से मिलने वाला सबक: अगर आप कारोबार करना चाहते हैं तो सरकार से दूर रहें।