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मंडी समितियों की स्थापना का मकसद नहीं हुआ पूरा

Last Updated- December 10, 2022 | 6:33 PM IST

उत्तर प्रदेश में जिस मकसद के लिए मंडी समितियों की स्थापना की गई थी। उसको पाने में ये समितियां अब तक नाकामायाब रही हैं।
किसानों और कारोबारियों की हितैषी बनने के बजाय ये मंडियां अब केवल सरकार के लिए राजस्व कमाने का जरिया भर रह गई हैं और जिन लक्ष्यों को लेकर इनकी शुरुआत की गई थी, उससे ये भटक गई हैं।
नतीजतन, किसानों का मोहभंग होने से मंडियों में आवक घटती जा रही है, जिससे मंडियों की रौनक खत्म होती जा रही है और इस खत्म होती रौनक से कारोबारी भी कम परेशान नहीं हैं। 

दरअसल, जिन सुविधाओं को लेकर मंडी के जरिये किसानों को आकर्षित और संगठित करने की कोशिश की गई थी।
वे सभी कोशिशें जाया होती दिख रही हैं। लिहाजा, किसान ‘मंडी के पचड़े’ में फंसने की बजाय बाहर ही सौदा करने को तरजीह देने लगे हैं। मंडियों में कम आवक की वजह से कारोबारियों का काम तो सिमटता जा रहा है, लेकिन वक्त के साथ बढ़ती महंगाई और बढ़ते मंडी शुल्क की वजह से सरकार को राजस्व मिलता जा रहा है।
वैसे, इस मामले में मंडी परिषद पूरी तरह अपना बचाव करती दिख रही है। मंडी परिषद के एक प्रमुख अधिकारी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया ‘ऐसा नहीं है कि मंडियों में कारोबार कम होता जा रहा है। पिछले कुछ दिनों में कई ऐसी फसलों का रकबा कम हुआ है जिनसे तैयार उत्पाद इन मंडियों में आते हैं। ऐसे में जब उत्पादन में ही कमी आएगी तो इसका असर तो पड़ेगा।’
कभी एशिया की सबसे बड़ी गुड़ मंडी के रूप में मशहूर रही मुजफ्फरनगर की गुड़ मंडी गुड़ के इस सीजन में पीली पड़ी हुई है। वजह, जिले और आसपास के इलाकों में बनने वाला अधिकतर गुड़ मंडी के बाहर ही बिक रहा है।
मंडी के एक कारोबारी रोशन लाल कहते हैं, ‘वैसे तो गुड़ पर कोई टैक्स नहीं है, लेकिन मंडी टैक्स के तौर पर ढाई फीसदी शुल्क देना पड़ता है। ढुलाई और मजदूरी का खर्चा बचाने के लिए कोल्हू वाले मौके पर ही सौदा करना मुनासिब समझ रहे हैं।’
इसके चलते सरकारी राजस्व को भी भारी चूना लग रहा है क्योंकि गुड़ के भाव पिछले साल की तुलना में लगभग डेढ़ से दोगुने तक हो गए हैं।

हालांकि, भाव बढ़ने से सरकार को मिलने वाले राजस्व में तो कमी नहीं आई है, लेकिन जिस अनुपात में गुड़ के भाव बढ़े हैं उस अनुपात में सरकार के राजस्व में इजाफा नहीं हुआ।
यहां की मंडी के एक कारोबारी कहते हैं, ‘ज्यादातर गुड़ अवैध तरीके से बिक रहा है, लेकिन हमारी कोई सुनने वाला ही नहीं है। मंडी में पिछल साल के मुकाबले काफी कम आवक हो रही है।’
दरअसल, प्रदेश में मंडी परिषद अधिनियम चौधरी चरण सिंह के वक्त में 1962 में पारित हुआ। इसके बाद 1964 में दो मंडियों के साथ इसकी शुरुआत की गई थी। 

इसका मकसद किसानों और कारोबारियों के हितों को देखते हुए ऐसी व्यवस्था करना था जिससे न तो किसानों का शोषण हो सके और न ही कारोबारियों का नुकसान हो, बदले में इस व्यवस्था का प्रशासन चलाने के लिए एक मंडी शुल्क तय किया गया।
सरकार ने तय किया कि मंडी समितियों को किसानों और कारोबारियों की चुनी हुई संस्था ही चलाएगी जिसमें 70 फीसदी प्रतिनिधित्व किसानों और 30 फीसदी व्यापारियों का होगा। लेकिन, इन चुनावों की तो छोड़िए, आज तक इनकी मतदाता सूची भी नहीं बनी।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक और मशहूर मंडी हापुड़ के एक  कारोबारी महेश कुमार कहते हैं, ‘सरकार ने इस मामले में जो वादे किए थे, उनमें से कुछ पूरे किए लेकिन ज्यादातर अभी तक अधूरे हैं।’
दूसरे कारोबारी सुरेश सिंह कहते हैं, ‘सुबह के वक्त जब सब्जियों की आढ़त लगती है, तभी मंडी में कुछ चहल-पहल दिखती है, उसके बाद यहां पर सन्नाटा पसर जाता है।’ 

मंडी की रौनक के बारे में यहां की कृषि उत्पादन मंडी समिति के सचिव अशोक कुमार कहते हैं, ‘अगर मंडियों की रौनक उड़ती तो हमारे राजस्व में भी कमी आनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा तो नहीं हुआ है।’
अगर तस्वीर पर सही नजर डालें तो यही बात सामने आती है कि मंडियों का उस हिसाब से विकास नहीं हो पाया है, जिस तरह इसका खाका तैयार किया गया था। कई मंडियों में तो संपर्क मार्ग की हालत खस्ता है और प्रकाश की समुचित व्यवस्था तक नहीं है।
केवल हापुड़ या मुजफ्फरनगर ही नहीं, बल्कि शामली और साहिबाबाद जैसी मंडियों की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है। हापुड़ मंडी के एक कारोबारी कहते हैं, ‘मंडिया, सरकार के लिए टैक्स वसूलने की मशीन बन चुकी हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं।’

First Published - February 27, 2009 | 9:13 PM IST

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