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मूल्य कमी भुगतान योजना की प्रगति की जांच

Last Updated- December 11, 2022 | 10:40 PM IST

तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को निरस्त करने के बाद अब न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए कानूनी गारंटी ही चर्चा के केंद्र में है इसीलिए विरोध करने वाले किसानों की मांग पूरी करने के लिए विभिन्न विकल्पों की पेशकश की जा रही है। विभिन्न टिप्पणियों में जिन योजनाओं का बार-बार जिक्र किया गया है उनमें से एक है मूल्य कमी भुगतान योजना (पीडीपीएस)। यह कुछ साल पहले मध्यप्रदेश सरकार द्वारा शुरू की गई भावांतर भुगतान योजना (बीबीवाई) की तर्ज पर ही है। इसमें किसानों को फसलों की खरीद के बिना न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर बेचने की भरपाई करनी थी। पीडीपीएस, सितंबर 2018 में शुरू की गई प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम-आशा) योजना का ही एक हिस्सा है। इस योजना में तीन पहलू शामिल हैं, पहली, मूल्य समर्थन योजना (पीएसएस), दूसरा, पीडीपीएस और तीसरा निजी खरीद और स्टॉकिस्ट योजना (पीपीपीएस) का पायलट परीक्षण शामिल है और यह तिलहन, दलहन और मोटे अनाज के लिए है।

पीएम-आशा
पीएम-आशा के तहत राज्य सरकार के अनुरोध पर खरीद की जाती है और राज्य में फसल की खरीद, कुल उत्पादन के 25 प्रतिशत हिस्से तक सीमित है। अगर किसी जिंस का इस्तेमाल सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) या किसी अन्य राज्य कल्याण योजना के लिए किया जाता है तो इसका विस्तार 40 प्रतिशत तक किया जा सकता है। कोई भी राज्य इस तरह की खरीद पर मंडी कर, जैसे कोई कर नहीं लगा सकता था। पीएम-आशा के सभी तीनों घटकों पर केंद्र का खर्च राज्य के तिलहन और दालों के कुल उत्पादन के 25 प्रतिशत तक सीमित है। राज्य को अपने संसाधनों से ही फंड का इंतजाम करना होगा अगर यह अनिवार्य 25 प्रतिशत से अधिक की खरीद करना चाहता है। यहां तक कि भावंतर (पीडीपीएस) के मामले में जहां किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य और पूर्व निर्धारित मॉडल दर के बीच भुगतान में अंतर मिला और दिशानिर्देशों में कहा गया है कि किसानों को इस तरह का भुगतान, फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य के 25 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।
पीएम-आशा का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दिशानिर्देश यह है कि किसानों को एक तय समयावधि के भीतर उनके पारिश्रमिक का भुगतान करना होगा चाहे वे पीडीपीएस, पीएसएस या निजी क्षेत्र के पायलट परीक्षण के तहत हो उन्हें एक तय समयावधि के भीतर उनके पारिश्रमिक का भुगतान करना होगा। उदाहरण के तौर, पीडीपीएस के संदर्भ में किसानों को अधिसूचित मंडियों में उपज की बिक्री के एक महीने के भीतर (अपने संबंधित बैंक खातों में) भुगतान करना होगा। पीएसएस के मामले में खरीद कीमत किसानों को उनकी उपज मिलने के तीन दिन के भीतर पहुंचना चाहिए।

पीएम-आशा की प्रगति
केंद्र ने अगस्त 2021 को संसद के पिछले सत्र में दिए गए जवाब में कहा था कि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा दिए गए प्रस्तावों के आधार पर करीब 92 लाख टन दलहन, तिलहन और गरी पीएम-आशा के तहत आते हैं जिनमें से 17 लाख टन तिलहन पीडीपीएस के दायरे में आया है। हालांकि, तीन घटकों में से केवल पहला पीएसएस है जिसमें तेजी आई है। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने हाल ही में एक रिपोर्ट में बताया था कि पीएम-आशा के लागू होने के बाद पीएसएस ने नाफेड द्वारा दलहन और तिलहन की खरीद के मामले में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है। हालांकि पीडीपीएस और पीपीएसएस ने ज्यादा प्रगति नहीं की है।
आयोग ने सिफारिश की थी कि तिलहन और दलहन के खरीद मुद्दों का समाधान करके पीडीपीएस और पीपीएस को मजबूत किया जा सकता है क्योंकि सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा इन फसलों की खरीद संभव नहीं है। इसकी वजह यह है कि गेहूं और धान के मुकाबले इनके लिए विपरीत नियमित निपटान तंत्र और बाजार के बुनियादी ढांचे का न होना है।
मध्य प्रदेश का प्रयोग
वर्ष 2017 में शुरू हुई मध्य प्रदेश की भावांतर योजना को पीडीपीएस के साथ भारत के पहले बड़े पैमाने के प्रयोग के रूप में पेश किया गया था और यह शुरू से ही विवादों से घिरी थी। मध्य प्रदेश मॉडल में, पंजीकृत किसानों को कीमतें न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे आने के लिए मुआवजा दिया गया था लेकिन भुगतान पहले से तय ‘मॉडल दर’ तक सीमित था। यह मॉडल दर भुगतान का व्यापक आधार बनाने के लिए आसपास की मंडियों में प्रचलित औसत मूल्य था। किसानों को अपनी भूमि का ब्योरा देना था और साथ ही फसल की बुआई की गई थी और भुगतान के लिए बेंचमार्क के रूप में एक निश्चित संख्या में कुछ वर्षों की औसत उपज ली गई थी। इनका सत्यापन सक्षम अधिकारी ने किया था। अगर वास्तविक मूल्य प्राप्तियां, मॉडल दर से नीचे थी तब किसानों को मुआवजे के रूप में न्यूनतम समर्थन मूल्य और मॉडल दर के बीच के अंतर की कीमत मिली। हालांकि, अगर अंतर मॉडल दर से अधिक था तब भुगतान वास्तविक अंतर तक सीमित रहेगा।
गणना की विधि जटिल होने के साथ-साथ पंजीकरण की प्रक्रिया और इसमें कई कागजी कार्रवाई भी शामिल थी। अप्रैल 2018 में तीर्थ चटर्जी और पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन के साथ कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी द्वारा लिखे गए एक इक्रियर वर्किंग पेपर के अनुसार खरीफ  सीजन 2017 में मध्य प्रदेश में भावांतर के तहत कुल 97 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में से इस योजना के तहत लगभग 43 लाख हेक्टेयर या लगभग 45 प्रतिशत जमीन दर्ज की गई थी। अखबार ने कहा था, ‘यह स्पष्ट है कि बड़ी संख्या में किसानों ने पोर्टल पर अपना पंजीकरण नहीं कराया और उन्हें अपनी उपज को उन कीमतों पर बेचना पड़ा जो घोषित एमएसपी से कम थीं।’ आरोप यह था कि किसानों ने वास्तविक मूल्य और न्यूनतम समर्थन मूल्य के बीच अंतर बढ़ाने के लिए कीमतों को कम रखने के लिए कारोबारियों के साथ सांठगांठ की ताकि भुगतान को दोनों के बीच साझा किया जा सके। आरटीआई प्रतिक्रियाओं के आधार पर जून 2018 में प्रकाशित स्क्रॉल डॉट इन की एक रिपोर्ट से पता चला है कि मध्य प्रदेश के किसानों को इस योजना में हेरफेर के कारण लगभग 200 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ जो कुछ मामलों में व्यापारियों द्वारा एक ही कारोबारी से कई बार एक ही फसल खरीदने के लिए योजना में बदलाव की वजह से हुआ था।

First Published - December 23, 2021 | 11:05 PM IST

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