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त्रुटिपूर्ण प्रमाणीकरण से जैविक कपास पर संकट

Last Updated- December 11, 2022 | 9:12 PM IST

क्या भारत से निर्यात की जाने वाली जैविक कपास सच में जैविक है? यह एक ऐसा सवाल है, जो जैविक कपास के प्रमाणीकरण पर लटका हुआ है। कृषि उत्पादों के निर्यात के लिए नोडल एजेंसी-कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) द्वारा हाल ही में एक प्रमुख प्रमाणीकरण एजेंसी का लाइसेंस निलंबित करने के बाद यह सवाल उठा है। यह घटनाक्रम ऐसे समय में सामने आया है, जब एक आंतरिक जांच में इस बात का खुलासा हुआ कि यह एजेंसी-टीक्यू सर्ट सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड ने उत्पादक समूहों (जो किसान उत्पादक संगठनों या एफपीओ के समान होते हैं) की गैर-जैविक कपास को जैविक कपास के रूप में प्रमाणित कर दिया था। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार भारत सालाना करीब 1,20,000 टन जैविक कपास का निर्यात करता है, जिसमें से अधिकांश को नियुक्त एजेंसियों द्वारा प्रमाणित किया जाता है। सूत्रों ने कहा कि इस एजेंसी ने देश भर के 150 से अधिक उत्पादक समूहों द्वारा उत्पादित गैर-जैविक कपास को जैविक रूप में प्रमाणित कर दिया, लेकिन बाद में इसे मानकों से कम पाया गया।
इनमें से कई उत्पादक समूह कपास का उत्पादन करने वाले प्रमुख राज्यों मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के थे।
यह मामला पिछले साल दिसंबर में उस समय सामने आया, जब नैशनल प्रोग्राम फॉर ऑर्गेनिक प्रमोशन (एनपीओपी) अंतर्गत एक आकलन समिति द्वारा की गई एक औचक जांच में पाया गया कि इस प्रमाणीकरण एजेंसी ने न केवल गैर-जैविक तरीकों से उत्पादिक कपास को जैविक रूप में मंजूरी दी थी, बल्कि बीटी कपास को भी जैविक रूप में प्रमाणित कर दिया गया था।
जांच में पाया गया कि प्रमाणित करने वाली इस एजेंसी ने जिन किसानों को उत्पादक समूहों के रूप में सूचीबद्ध किया था, उनमें से कुछ केवल कागजों पर ही मौजूद थे और वास्तविक किसान इस बात से अनभिज्ञ थे कि वे उन एफपीओ का हिस्सा हैं, जो केवल जैविक कपास वालों के लिए थे। समिति ने यह भी पाया कि जिन किसानों ने इन उत्पादों को बेचा (मंडियों), उन्हें इसे जैविक कपास के रूप में नहीं बेचा था।
एनपीओपी की इस समिति ने यह निष्कर्ष निकाला कि चूंकि इन उत्पादक समूहों द्वारा उत्पादित कपास ने निर्धारित मानक पूरे नहीं किए हैं, इसलिए इसे जैविक नहीं कहा जा सकता है। कुछ विशेषज्ञों ने कहा कि आकलन समिति ने यह भी पाया कि एजेंसी द्वारा जैविक के रूप में दावा किया गया क्षेत्र, जैविक नहीं पाया गया था। इस जांच के बाद, एपीडा ने उस प्रमाणन एजेंसी का लाइसेंस रद्द कर दिया है और उस पर भारी जुर्माना लगाया है। अलबत्ता कई विशेषज्ञों ने कहा कि मामला यहीं खत्म नहीं हो जाता है। उन्होंने कहा कि निर्यात और यहां तक ​​कि घरेलू खपत के लिए भी जैविक उत्पादों का प्रमाणीकरण लंबे समय से समस्या वाला क्षेत्र रहा है। वर्ष 2014 के बाद से गैर-जैविक उत्पादों को गलत तरीके से जैविक के रूप में वर्गीकृत करने या अनुपालन मानदंडों में विफल रहने के लिए कई प्रमाणन एजेंसियों को निलंबित या प्रतिबंधित किया जा चुका है।
विशेषज्ञों ने कहा कि जब तक न केवल उपभोक्ताओं को, बल्कि भोले-भाले किसानों को भी गुमराह करने वाले उत्पादक समूहों या एफपीओ को पकड़ा नहीं जाता और उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाती, तब तक प्रमाणन एजेंसी को दंडित करने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा।व्यापार नीति विश्लेषक एस चंद्रशेखरन ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि हाल ही में कई गैर-अनुपालनों और उल्लंंघनों के कारण एक प्रमाणन कंपनी को निलंबित कर दिया गया था, लेकिन इस एजेंसी द्वारा प्रमाणित उत्पादक समूहों को अन्य एजेंसियों द्वारा बिना उचित जांच और प्रणालीगत कमजोरियों का उपयोग करते हुए स्थानांतरित और अधिग्रहित किया जा रहा है। हालांकि इस प्रमाणन एजेंसी को अधिकारियों द्वारा निलंबित कर दिया गया था, लेकिन दिक्कतें अब भी मौजूद हैं।
उन्होंने कहा कि ध्यान देने वाली बात यह है कि ये प्रमाणन एजेंसियां इन उत्पादकों को लेने में तैयार रही हैं, जो नैतिकता पर व्यावसायिक हित के प्रमुख चरित्र को दर्शाता है। चंद्रशेखरन ने कहा कि एनपीओपी में समस्या प्रणालीगत होने के साथ-साथ संरचनात्मक भी है। उत्पादक समूह की नीतियों और प्रक्रियाओं को संस्थागत क्षमता निर्माण के अलावा विस्तृत सुधार की आवश्यकता है।
एपीडा की वेबसाइट के अनुसार 31 मार्च, 2021 तक भारत में जैविक प्रमाणन प्रक्रिया (एनपीओपी के अंतर्गत पंजीकृत) के तहत कुल क्षेत्र लगभग 43.4 लाख हेक्टेयर था। इसमें 26.5 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य क्षेत्र और अन्य 16.8 लाख हेक्टेयर वन्य फसल संग्रह शामिल है।

First Published - February 17, 2022 | 10:59 PM IST

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