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पीएमओ से लेकर विदेश सचिव बनने तक का सफर

Last Updated- December 11, 2022 | 8:07 PM IST

देश के अगले विदेश सचिव पद पर विनय मोहन क्वात्रा की नियुक्ति के पक्ष में दो बातें अहम  हैं। पहली बात तो वह प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव के पद पर काम कर चुके हैं और दूसरी यह कि वह नेपाल में भारत के राजदूत भी रहे हैं। मई 2014 में देश का प्रधानमंत्री बनने के तत्काल बाद नरेंद्र मोदी को ब्राजील में ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में भाग लेने के लिए रवाना होना था। उन्हें हिंदी बोलने और समझने में प्रखर अधिकारियों की जरूरत थी। क्वात्रा की मदद से ऐसे अधिकारियों की तलाश आसान हो गई। क्वात्रा स्वयं हिंदी के अलावा रूसी और फ्रांसीसी भाषा के जानकार हैं। सरकार ने क्वात्रा की अहमियत समझी और उन्हें 2015 में प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) स्थानांतरित कर दिया। क्वात्रा ने 2017 तक पीएमओ में काम किया। उसके बाद उन्हें फ्रांस में राजदूत बनाकर भेज दिया गया। देश में कई ऐसे विदेश सचिव रहे हैं जो फ्रांस में राजदूत रह चुके थे। मई में विदेश सचिव की बागडोर संभालने वाले क्वात्रा जिनेवा के अलावा दक्षिण अफ्रीका, चीन और रूस में भारतीय दूतावास में काम कर चुके हैं। वह विदेश मंत्रालय में अफगानिस्तान में भारत के विकास कार्यक्रमों की कमान संभाल चुके हैं और दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) में आर्थिक, व्यापारिक और वित्त संबंधी मुद्दे देख चुके हैं।
मगर नेपाल में राजदूत के रूप में उनका कार्यकाल उनके करियर में अहम पड़ाव साबित हुआ। 2020 में कोविड आने से पहले वह मंजीव पुरी की जगह नेपाल में भारत के राजदूत बनाकर भेजे गए थे। भारत और नेपाल के संबंधों की एक अपनी कहानी है। दोनों देशों के संबंध कभी अर्श पर तो कभी फर्श पर रहे हैं। क्वात्रा जब नेपाल पहुंचे तब दोनों देशों के संबंधों में दरार आ गई थी। 2010 में दोनों देशों के संबंध इतने खराब हो गए कि भारतीय राजदूत की कार पर पथराव तक हो गया। इसी दौरान चीन का प्रभाव वहां बढ़ता जा रहा था। चीन का प्रभाव कम करने और भारत के साथ संबंध सुधारने में पुरी ने पूरा जोर लगा दिया। मगर नेपाल के साथ संबंध सामान्य करने की जिम्मेदारी अंतत: क्वात्रा के कंधों पर आ गई।
नेपाल में प्रधानमंत्री के पी ओली चीन के हितों को अपने देश में प्रमुखता दे रहे थे। ओली ने नेपाल में अति राष्ट्रवाद की रणनीति अपनाई जिससे भारत के साथ रिश्ते और बिगड़ते गए। नेपाल के पश्चिमी हिस्से पर कालापानी के निकट लिपुलेख भारत और नेपाल के बीच एक विवादित मुद्दा रहा है। दोनों ही देश इसे अपना अभिन्न हिस्सा बताते रहे हैं। क्वात्रा के काठमांडू पहुंचने के कुछ ही दिनों बाद उनके लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई। तब सत्ताधारी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी ने संसद में एक विशेष प्रस्ताव पारित कर कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख नेपाल को लौटाने की मांग कर डाली।
यह विषय इसलिए भी संवेदनशील था क्योंकि भारतीय सेना में गोरखा रेजिमेंट के रूप में नेपाली नागरिकों के लिए विशेष जगह रखी गई है। पूर्व सैन्य प्रमुख (चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ) जनरल विपिन रावत स्वयं गोरखा रेजिमेंट से आए थे। रावत ने क्वात्रा की मदद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने नेपाली सेना में पूर्व सेना प्रमुखों से कालापानी का मुद्दा शांत करने के लिए कहा। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। नेपाल की संसद में एक प्रस्ताव पारित कर नए मानचित्र का अनुमोदन कर दिया गया जिसमें इस विवादित क्षेत्र को नेपाल का हिस्सा बताया गया।
क्वात्रा ने धैर्य रखा और शांत मन से काम किया। नेपाल में किसी भारतीय राजदूत को वहां की द्विपक्षीय राजनीति में असरदार भूमिका निभाने का मौका मिलता है। हालांकि इतिहास गवाह रहा है कि यह रणनीति कभी कारगर साबित नहीं हुई है। नेपाल की राजनीति पर अपना प्रभाव डालने के बजाय भारत किनारे पर खड़ा रहा और इस बीच चीन को बड़ा मौका हाथ लग गया। चीन ने कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों धड़ों को एकजुट किया और एक नेता को दूसरे नेता के खिलाफ खड़ा कर दिया। चीन ने भी वही गलती दोहराई जो भारत करता आया था। भारत ने एक बदली रणनीति के तौर पर व्यावहारिक हस्तक्षेप किया और कोविड-19 प्रबंधन जैसे कार्यों में नेपाल की मदद की।
क्वात्रा के साथ काम कर चुके लोगों का कहना है कि वह सरल और व्यावहारिक रवैया रखने वाले व्यक्ति हैं। क्वात्रा के बारे में कहा जाता है कि वह नतीजे पाने के लिए कड़ी मेहनत करने से नहीं कतराते हैं। वह भू-राजनीतिक मामलों के भले विचारक नहीं हों मगर देश में ऐसे लोगों की कमी भी नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी की कूटनीतिक विचारधारा में क्वात्रा पूरा भरोसा करते हैं और इसका जिक्र करने से भी पीछे नहीं रहे हैं। कुछ दिनों पहले नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा भारत आए थे। कूटनीतिक गलियारों में उनकी इस यात्रा को सफल बताया जा रहा है। यह इस बात का प्रमाण है कि क्वात्रा ने कितना काम किया है।
सरकार ने दो समान तेज तर्रार अधिकारियों के ऊपर क्वात्रा को विदेश सचिव नियुक्त करने में तरजीह दी है। अमेरिका में भारत के राजदूत तरणजीत सिंह संधू और कनाडा में भारत के उच्चायुक्त और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक कर्मी अजय बिसारिया भी विदेश सचिव पद के प्रबल दावेदार थे। बिसारिया पाकिस्तान में प्रतिकूल परिस्थितियों में काम कर चुके हैं। इन दोनों अधिकारियों की प्रतिभाओं का भी सम्मान होना चाहिए। 

First Published - April 7, 2022 | 11:26 PM IST

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