सैटेलाइट ब्रॉडबैंड स्पेक्ट्रम की नीलामी करने या एक तय प्रशासनिक मूल्य पर इसकी पेशकश करने की नीति पर फैसला करने को लेकर करीब 2 साल से अधिक समय से लड़ाई चल रही थी। आज संसद में दूरसंचार विधेयक पेश होने के बाद यह बहस पूरी हो गई है और विधेयक में प्रशासनिक मूल्य पर स्पेक्ट्रम आवंटित करने का प्रस्ताव किया गया है।
इस खेल में 4 खिलाड़ी शामिल थे। कॉर्पोरेट की ओर से सुनील मित्तल की कंपनी वन वेब ने प्रशासनिक मूल्य का पक्ष लिया, जबकि रिलायंस जियो आक्रामक रूप से नीलामी की मांग कर रही थी और इसे स्पेक्ट्रम आवंटन का सबसे साफ सुथरा तरीका बता रही थी।
सरकार और उसकी संस्थाओं के बीच भी अलग अलग राय थी। दूरसंचार विभाग साफ तौर पर नीलामी के पक्ष में था, लेकिन नियामक इस पर व्यापक विमर्श चाहता था। इसकी शुरुआत सितंबर 2021 में हुई, जब दूससंचार विभाग ने संचार नियामक ट्राई को एक रेफरेंस भेजा, जिसमें अंतरिक्ष आधारित संचार की नीलामी के लिए उचित फ्रीक्वेंसी बैंड और ब्लॉक साइज, आधार कीमत और मात्रा के बारे में सिफारिश मांगी गई थी।
कई पत्रव्यवहार और स्पष्टीकरण की मांग के बाद ट्राई ने इस साल अप्रैल में एक परामर्श पत्र जारी किया, जिसमें पूछा गया कि स्पेक्ट्रम की नीलामी प्रशासनिक मूल्य के आधार पर करने या किसी और तरीके से आवंटन में बेहतर विकल्प क्या होगा। इसके साथ ही नए सिरे से एक व्यापक बहस छिड़ गई।
साफतौर पर दूरसंचार विभाग का विचार था कि नीलामी बेहतर विकल्प है। इस विवादास्पद मसले पर बिजनेस स्टैंडर्ड के साथ बातचीत में संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव का कहना था कि ‘हमारी प्राथमिकता नीलामी है। अगर हम उचित और साफ सुधरी नीलामी की प्रक्रिया बना लेते हैं, तो ऐसा क्यों नहीं किया जाना चाहिए। अगर ऐसा कर पाना संभव नहीं है तो प्रशासनिक मूल्य पर आवंटन का विधेयक लाया जाएगा। ’
लेकिन मित्तल की वन वेब ने ही नहीं, बल्कि प्रमुख सैटेलाइट कारोबारियों के संगठन इंडियन स्पेस एसोसिएशन के साथ टाटा (नेल्को), कुइपर (एमेजॉन का) और यहां तक कि एलॉन मस्क के स्टारलिंक ने भी इसका पक्ष लिया, जो भारत में सैटेलाइट ब्रॉडबैंड सेवा मुहैया कराने को इच्छुक है। ट्राई के परामर्श पत्र पर इनके जवाब से रुख साफ हुआ। वहीं दूसरी ओर रिलायंस जियो अकेली पड़ गई।
अभी भारत में सैटेलाइट ब्रॉडबैंड बाजार बहुत छोटा (100-150 लाख डॉलर) है, लेकिन इसकी संभावनाएं बहुतअधिक हैं क्योंकि देश का करीब 30 प्रतिशत इलाका विश्वसनीय क्षेत्रीय ब्रॉडबैंड सेवा से वंचित है।
प्रशासनिक आवंटन के समर्थकों का कहना है कि यह एक वैश्विक प्रवृत्ति है और भारत इससे अलग नहीं रह सकता। उन्होंने क्षेत्रीय स्थिति का हवाला देते हुए कहा कि यहां खेल अलग है। ऑपरेटरों को अलग अलग बैंड में एक्सक्लूसिव फ्रीक्वेंसी की जरूरत होती है और निर्धारित फ्रीक्वेंसी में कोई हस्तक्षेप नहीं होता। इसलिए नीलामी में फ्रीक्वेंसी दी जाती है।
लेकिन सैटेलाइट सर्विस में सैटेलाइट द्वारा स्पेक्ट्रम को वैश्विक रूप से साझा किया जाता है, जो ज्यादातर एक खास बैंड के भीतर काम करता है और स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल पहले ही सैटेलाइट कंपनियों द्वारा डायनमिक ऑटोमेटेड सिस्टम द्वारा सद्भावना के आधार पर समन्वित है। इसलिए इसे प्रशासनिक आधार पर दिया जाना चाहिए। उनका तर्क था कि थाईलैंड, मैक्सिको, ब्राजील जैसे देशों ने नीलामी की कवायद की, लेकिन उन्हें प्रशासनिक आवंटन का तरीका अपनाना पड़ा।
उनका तर्क है कि साझा किए जाने से स्पेक्ट्रम के इस्तेमाल की कुशलता में सुधार होगा और 200 से ज्यादा छोटे सैटेलाइट स्टार्टअप भारत में सेवाओं की पेशकश कर रहे हैं और वे समुद्र के मछुआरों जैसे लोगों को सेवाएं मुहैया करा रहे हैं। उन्हें भी स्पेक्ट्रम मिल सकेगा। खर्चीले नीलामी के तरीके से उनके पास काम बंद करने के सिवा कोई विकल्प नहीं होगा।
वहीं जियो जैसी कंपनियों ने इस कदम का विरोध किया। उनका तर्क है कि इससे मोबाइल सेवाएं देने वाले कारोबारियों द्वारा स्पेक्ट्रम की कीमत की पेशकश में असमानता आएगी, जो एक ही ब्रॉडबैंड सेवा मुहैया करा रही होंगी। उन्हें यह भी डर था कि सैटेलाइट सेवा में पहले आने वाली 3-4 कंपनियों को आईटीयू के द्वारा पहले आओ पहले पाओ के आधार पर प्रेफर्ड ऑर्बिटल स्लॉट मिल जाएगा और वे इस कारोबार में आने वाले नए कारोबारियों को बाहर कर देंगी।
हालांकि ट्राई ने अभी इस परामर्श प्रक्रिया पर पर अंतिम विचार नहीं दिया है, लेकिन साफतौर पर सरकार ने प्रशासनिक मूल्य के आधार पर स्पेक्ट्रम की पेशकश करने का फैसला किया है। यह डीओटी के पहले के रुख के विपरीत है।