ये आम चुनाव कितने करीबी हो सकते हैं? अगर आप नरेंद्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी (BJP) के प्रशंसक हैं तो आप कहेंगे तो इन चुनावों में सबकुछ अनुमान के मुताबिक ही घटित होगा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) को 400 सीटें मिलने की उम्मीद है।
अगर आप विपक्ष के समर्थक हैं तो आप कह सकते हैं कि ये चुनाव 2004 जैसे होंगे जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले राजग को जीत का दावेदार माना जा रहा था लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा। पहले चरण का मतदान हो चुका है।
इस बीच टेलीविजन चैनलों पर कई ‘ओपिनियन पोल’ प्रसारित हुए। इन्हें किस तरह अंजाम दिया जाता है कोई नहीं जानता। इन सभी पोल में यही कहा गया है कि भाजपा 2019 से बड़ी जीत हासिल करेगी। हाल के समय में सबसे सफल चुनाव पूर्वानुमान लगाने वाले प्रदीप गुप्ता (ऐक्सिस माई इंडिया) ने अब तक कुछ नहीं कहा है।
एक ट्वीट के मताबिक उन्होंने मनीकंट्रोल से कहा था कि भाजपा को 13 राज्यों में मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है। उस ट्वीट को बाद में हटा दिया गया। उन्होंने ओपिनियन पोल करने का कोई दावा नहीं किया है।
जब कोई अग्रणी चुनाव सर्वेक्षक अपने पत्ते नहीं खोल रहा हो तो एक पत्रकार क्या कर सकता है? वह चुनावों का ‘पाठ’ कर सकता है। क्या ऐसा हो सकता है कि दोनों पक्ष थोड़ा-थोड़ा सही हों और गुप्ता ने अपने मिटा दिए गए ट्वीट में जो कहा था वह भी सही हो?
भारत जैसे विशाल देश के चुनावों में जब मोदी अपने सर्वश्रेष्ठ स्तर पर हों तब भी नतीजे विभिन्न राज्यों में हुए चुनावों का ही नतीजा होते हैं। वर्ष 1989 से 2014 तक गठबंधन के 25 वर्षों में मैं यही दलील देता थ कि भारत के आम चुनाव नौ सेट वाले टेनिस मैच की तरह हैं जिनमें पांच सेट जीतने वाला खिलाड़ी यह चुनावी ग्रैंडस्लैम जीतता है।
इनमें से नौ राज्य थे: उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश (विभाजन के पहले), मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान, कर्नाटक और केरल। इन राज्यों में कुल मिलाकर 351 सीट थीं। पांच राज्यों में चुनाव जीतने वाले को करीब 200 सीट मिल जाती थीं। इस प्रकार गठबंधन 272 का आंकड़ा पा लेता था।
वर्ष 2014 में यह सिलसिला खत्म हो गया। इन चुनावों में हम छह राज्यों पर नजर रखेंगे: महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार, कर्नाटक, झारखंड और ओडिशा। इन राज्यों में 193 लोक सभा सीट हैं और यहां कड़ा मुकाबला है। इनसे ही तय होगा कि 4 जून को किसके पास कितनी सीट होंगी। अगर उसे 225 से अधिक सीट पर जीत हासिल करनी है तो वे इन्हीं राज्यों से आएंगी।
वर्ष 1977 के बाद जन्मे मतदाताओं के लिए अगर हम पहली गैर कांग्रेस सरकार को प्रस्थान बिंदु मानें तो 2014 तक लोकसभा में बहुमत का ख्याल अजीब था। यही कारण है कि 2014 में मोदी की जीत उन्हें जबरदस्त लगी हालांकि 282 सीट के साथ पार्टी को मामूली बहुमत हासिल था।
इंदिरा गांधी ने जब 1969 में कांग्रेस को पुराने नेताओं से मुक्त कराया था तब एक छोटी लोक सभा में भी उनके पास 350 सीट थीं। अगर 2014 की जीत जबरदस्त थी तो 2019 में तो उनकी नजर में सफाया ही हो गया था। पुलवामा-बालाकोट के कारण राष्ट्रवादी उभार ने 2019 में भाजपा को 2014 की तुलना में अधिक वोट दिलाए और उसका मत प्रतिशत 31.34 फीसदी से बढ़कर 37.7 फीसदी हो गया। वहीं सीट में केवल 20 का इजाफा हुआ और पार्टी 303 सीट तक पहुंची।
यह आंकड़ा हमें बताता है कि जब इतना लोकप्रिय नेता सत्ता में हो तब भी देश में चुनाव राज्य दर राज्य ही होते हैं। मोदी को बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, असम, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे 12 राज्यों में 278 सीट पर जीत मिली थी। बाकी पूरे देश में पार्टी को केवल 25 सीट पर जीत मिली। पश्चिम बंगाल और ओडिशा में पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया। परंतु 12 राज्यों में स्पष्ट जीत ने यह सफलता तय की।
इतिहास बताता है कि भाजपा को 2019 में 224 से अधिक सीट पर 50 फीसदी से अधिक मत मिले। हम इसे तब अच्छी तरह समझ पाएंगे जब हम याद करें कि राजीव गांधी 414 सीट जीतने के बावजूद 48.12 फीसदी मत ही हासिल कर पाए थे। इससे दो निष्कर्ष निकलते हैं। पहला, इन 242 सीट में से अधिकांश भाजपा के अच्छे प्रदर्शन वाले 12 राज्यों में हैं और विपक्षियों के लिए 2024 में कड़ा मुकाबला है। यह तब है विपक्षी गठबंधन है, कुछ जाति समूह नाराज हैं और पुलवामा जैसा कोई कारक भी नहीं है। हरियाणा की बात करें तो वहां कई नकारात्मक कारक हैं।
भाजपा की राज्य सरकार के खिलाफ असंतोष है। वर्ष 2019 में भाजपा को वहां 58.21 फीसदी मत मिले थे। दूसरा, यही आंकड़े बताते हैं कि भाजपा को जहां इन राज्यों में 224 सीट पर जीत मिली थी जबकि शेष पूरे देश में उसे केवल 79 सीट पर जीत मिली, 319 सीट में से। यह सही है कि पार्टी इन सभी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ी थी लेकिन मैं 224 सीट के अलावा बाकी की बात कर रहा हूं। यानी उसे एक चौथाई से भी कम सीटों पर जीत मिली।
अगर आप भाजपा समर्थक हैं तो यहीं से शुरुआत कर सकते हैं और 224 सीट को हल्के में ले सकते हैं। परंतु 370 के आंकड़े पर पहुंचने के लिए शेष 319 में से आधी सीट जीतनी होंगी। असली लड़ाई यहीं है। मोदी को अगर अपना दबदबा बरकरार रखना है तो उनके लिए पहला लक्ष्य होगा 303 सीट का आंकड़ा पार करना।
यह बात हमें वापस छह राज्यों के विचार की ओर लाती है। इन राज्यों में कुल 193 सीट हैं। इनमें से चार राज्य- कर्नाटक, बिहार, महाराष्ट्र और झारखंड उन 12 राज्यों में शामिल थे जहां 2019 में मोदी को जीत मिली। इन राज्यों में उनके सामने नई राजनीतिक चुनौतियां हैं।
पश्चिम बंगाल और ओडिशा में उन्हें पहले ही तरह-तरह की चुनौती मिल चुकी है। लगभग 100 अन्य सीट के लिए तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और केरल में मुकाबला होगा जहां भाजपा के लिए बहुत अधिक संभावनाएं नहीं हैं। उसे 303 का आंकड़ा पार करने के लिए इन छह राज्यों में 100 सीट पर जीत हासिल करनी होगी।
इन छह राज्यों को चुनने की दो वजह हैं। पहली, भाजपा इनमें से हर राज्य में मजबूत है। दूसरा मोदी को हर राज्य में एक अलग हकीकत का सामना करना पड़ रहा है। महाराष्ट्र और बिहार में उनके मजबूत साझेदार कमजोर पड़े हैं। शिवसेना का विभाजन हो चुका है और जनता दल यूनाइटेड काफी कमजोर पड़ा है।
मोदी के सामने उसके नेता नीतीश कुमार के नाम पर वोट जुटाना एक बड़ी चुनौती है। झारखंड और कर्नाटक में भाजपा के विरोधी दलों की सरकार है। इससे संतुलन गड़बड़ाया है। ओडिशा में 2019 की तरह फिक्स और दोस्ताना लड़ाई नहीं होगी। उस वक्त विधानसभा चुनाव के बदले लोक सभा चुनाव का सौदा जैसा किया गया था।
नवीन पटनायक को चिंता होगी कि अगर वह कमजोर साबित हुए तो उन्हें अपना बुढ़ापा राजनीतिक पराभव में गुजारना होगा और खुद को नहीं तो अपने लोगों को एजेंसियों से बचाना होगा। ये तमाम वजह हैं जिनकी वजह से हम कहते हैं कि देश के राजनीतिक परिदृश्य में व्यापक तौर पर भले ही यह चुनाव अनुमान लगाने लायक लग रहा हो लेकिन कुछ राज्यों में मुकाबला 2019 की तुलना में कहीं अधिक करीबी है।
यही वजह है कि हमने जिन छह राज्यों का जिक्र किया है वहां देखना होगा कि मोदी 2019 से बेहतर प्रदर्शन कर पाते हैं या नहीं। अगर विपक्ष उन्हें 272 के आंकड़े से नीचे रखना चाहता है तो इन राज्यों में उसे अच्छा प्रदर्शन करना होगा।